"पुनर्जन्म": अवतरणों में अंतर

कार्तिक सिंह मेहता 31 अगस्त 2013 जन्म मृत्यु कब हुई
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कार्तिक सिंह मेहता जन्म 2013 31 अगस्त य
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'''पुनर्जन्म''' एक भारतीय मान्यता है जिसमें जीवात्मा के [[जन्म]] और [[मृत्यु]] के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है। विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ [[ऋग्वेद]] से लेकर वेद, दर्शनशास्त्र,
पुराण , गीता, योग आदि ग्रंथों में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस मान्यता के अनुसार शरीर का मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है परंतु जन्म जन्मांतर की श्रृंखला है। ८४ लाख योनियों में जीवात्मा अपने धर्म को प्रदर्शित करता है, आत्मज्ञान होने के बाद श्रृंखला रुकती है, जिस को मोक्ष के नाम से जाना जाता है। फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय, लोकसेवा, संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।
 
 
~पुनर्जन्म एवं चतुर्विध्द प्रमाण~
 
तत्र बुद्धिमान्नास्तिक्यबुद्धिं जह्याद् विचिकित्सां च । कस्मात् ? प्रत्यक्षं हाल्पमः अनल्प मप्रत्यक्षमस्ति , यदागमानुमानयुक्तिभिरुपलभ्यते ; पैरेव तावदिन्द्रिपैः प्रत्यक्षमुपलभ्यते , तान्येव सन्ति चाप्रत्यक्षाणि | | ७ | |
 
 
पुनर्जन्म का विचार करना हो तो सर्वप्रथम बुद्धिमान पुरुष के लिए उचित है कि वह नास्तिक की बुद्धि और शमशेर बुद्धि को त्याग दें जो कि प्रत्यक्ष ज्ञान करने योग्य अवस्थाएं कम है और अप्रत्यक्ष वस्तुएं बहुत है।
 
जिनको प्राप्ति आगम अनुमान और युक्ति प्रमाण से होती है। यदि केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माना जाए तो वह दूसरा दोष आ जाएगा कि जिन इंद्रियों से प्रत्यक्ष ग्रहण होता है वह स्वयं अप्रत्यक्ष है।
 
 
प्रत्यक्ष ज्ञान में बाधा हेतु-
 
¤ चक्षुरिंद्रिय से ग्राह्य रुप वाली वस्तुओं के रहने पर भी
 
•अत्यंत समीप होने के कारण।
 
•अत्यंत दूर होने के कारण।
 
• मन में चंचल होने के कारण
 
•सभी हार एक समान की वस्तुएं।
 
•किसी अन्य वस्तु से दब जाने के कारण
 
•अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण उस वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होना
 
•आवरण से ढक जाने के कारण
 
•इंद्रियों की दुर्बलता के कारण
 
 
¤ माता-पिता को जन्म के कारण मानने वाला पक्ष की शंका समाधान।
 
यह श्रुतियां भी पुनर्जन्म को ना मानने के कारण नहीं है। क्योंकि युक्ति विरोध होता है।
 
• संतान उत्पत्ति में यदि माता-पिता की संतान उत्पत्ति में आत्मा का प्रवेश संतान में होता है तो दोनों की आत्मा संतान में संचार करती है तो दोनों की मृत्यु हो जाने चाहिए।
 
• यदि अव्यव रूप से आत्मा का प्रवेश संतान में माना जाए तो आत्मा के सूक्ष्म अवयव का कहीं शास्त्र में उल्लेख नहीं मिलता क्योंकि वहां तो नीरवयव तथा सूक्ष्म होता है।
 
आ. गंगाधर अनुसार- संतान में माता-पिता के मन और बुद्धि का संचार होता है।
 
 
"बुद्धिर्मनश्च निर्णीते यथैवात्मा तथैव ते ।
येषां चैषां मतिस्तेषां योन्यास्ति चतुर्विधा" । । ११
 
प्रकारांतर से समाधान- बुद्धि और मन के संबंध में यह निर्णय हो चुका है कि यह दोनों आत्मा की भांति है। तथा एक है जिनकी (माता-पिता संतान की उत्पत्ति में कारण होता है। ) ऐसी बुद्धि (धारणा) है उनके मत में चार प्रकार की योनियों ,(जरायु अंडज स्वेद्ज उद्भिज्ज) नहीं हो सकती इसलिए केवल माता-पिता को संतान की उत्पत्ति में कारण मानना उचित नहीं है।
 
 
"विद्यात्स्वाभाविकं षण्णां धातूनां यत् स्वलक्षणम् । संयोगे च वियोगे च तेषां कर्मेव कारणम् "॥
 
स्वभाववादी की शंका का उत्तर-शरीर और जगत् को धारण करने वाले छह धातुओं के जो अपने लक्षण हैं ; जैसे — पृथिवी का काठिन्य आदि , जल का द्रवता आदि , अग्नि उष्णता , वायु का तिर्यग्गमन आदि , आकाश का अप्रतीपात आदि तथा आत्मा के ज्ञान आदि - उन्हें स्वाभाविक जानना चाहिए , परन्तु इनके ( छह धातुओं के ) संयोग और वियोग में कर्म ही कारण है ।
 
 
अनादेश्चेतनाधातोर्नेष्यते परनिर्मितिः । पर आत्मा स चे तुरिष्टोऽस्तु परनिर्मितिः ॥ १३
 
परनिर्माणवादी के पक्ष में दोष - जो अनादि चेतना धातु है , उसका दूसरे द्वारा निर्माण नहीं हो सकता । यदि पर शब्द से परमात्मा मानें , तो ऐसी स्थिति में परनिर्माण मानने में कोई आपत्ति नहीं है ।
 
• ऐसा मानने पर जन्म जन्मातरो के कर्मो से सम्बंधित पुनर्जन्म को स्वीकार करने मे कोई आपत्ति नही होती हे।
 
 
न परीक्षा न परीक्ष्यं न कर्ता कारणं न च । न देवा नर्षयः सिद्धाः कर्म कर्मफलं न च । । १४ । ।
 
यदृच्छावादी के मत में दूषण — समस्त सृष्टि यदृच्छा द्वारा ही होती हे । इसमे और कोई कारण नहीं हे । यदृच्छा में प्रमाणों द्वारा कोई परीक्षा नहीं है और न परीक्षा का काई विषय है । उनके मत में न कर्ता है , न कारण है , न देव है , न ऋषिगण है , न सिद्ध है ना कर्म है , न कर्मफल है । यदृच्छावाद से उसकी आत्मा दब गई है , इसलिए वह आत्मा को नहीं मानता । । इस नास्तिक मत को मानना सब पापों से बड़ा पाप है
 
•सत्य असत्य की परीक्षा का निर्देश- इसिलिए विवेकशील पुरुष को चाहिये की वह आमार्गप्रसृत अपनी इस मती को छोडकर ,सत्पुरुषो के बुद्धिरुपी प्रदीप से समस्त शास्त्रीय विषयों का ठीक ठीक रुप से विचार करे।
 
चतुर्विध परीक्षाएं
 
 
द्विविविधमेव तत् सर्व सञ्चासच्च , तस्य चतुर्विधा परीक्षा - आप्तापदेशा , प्रत्यक्षम , अनमा पुक्तिश्चेति ॥ १७
 
इस पचमहाभूत से बने संसार में सभी पदार्थ दो भागों में बंटे हुएह - १ . सत् और २ . असत इन दोनों की चार प्रकार से परोक्षा की जातो है - 1 . आप्तोपदेश , २ . प्रत्यक्ष , ३ . अनुमान और ४ . युक्तिसे
 
• नैयायिक के मत - प्रत्यक्ष, उपमान, और शब्द
 
•वेदन्ती और मीमांसक - प्रत्यक्ष,उपमान,शब्द ,अर्थापत्ति
 
और अनुपलब्धि
 
• सांख्यमतानुसार - प्रत्यक्ष, उपमान, और शब्दप्रमाण माना हे।
 
 
श्रीमदभगवदगीता -" ननाऽसतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सतः ।
 
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः "॥
 
(गीता अ० २ । १६)
 
अर्थात् - असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं होता और शब्द वस्तु का कभी अभाव नहीं होता इस प्रकार दोनों का ही अंत ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है। यही दृष्टिकोण महर्षि आत्रेय का भी है।
 
 
 
रजस्तमोभ्यां निर्मक्तास्तपोजानबलेन ।
 
पेषां त्रिकालममलं ज्ञानमव्याहतं सदा । ।( च. सु. 11/ १८)
 
1. अप्तोपदेश के लक्षण - आप्त पुरुषों का उपदेश प्रमाण माना जाता है , इसलिए पहले आप्त का लक्षण कहते है प और ज्ञान के बल से जो रज और तम से सर्वधा मुक्त हो गये हैं , जिन्हें भूत , भविष्य तथा वर्तमान इन तीनों कालों का पधार्थ तथा रुकावट रहित ( अकृष्ठित अप्रतिहत ) ज्ञान है , वे आप्त है , क्योंकि वे रज - तम दोष को छोड़ चुके है और उनका जान यथार्थ है । वे शिष्ट योकि वे सम्पूर्ण संसार को कर्तव्यपालन और हित - आचरण में प्रवृत्ति का तथा अकार्य एवं अहित - आचरण से निवृत्ति का उपदेश देकर शामन करते हैं ।
 
 
 
"आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानां सन्निकर्षात प्रवर्तते ।
 
व्यक्ता तदात्वे या बुद्धिः प्रत्यक्ष सा निश्च्यते "।(च. सु .11/20)
 
2. प्रत्यक्ष का लक्षण- आत्मा , इन्द्रिप , मन और विषय ( शब्द - स्पर्श - रूप आदि ) इन चारों के संयोग से तत्काल जो निश्चयात्मक ज्ञान होता है , उसे प्रत्यक्ष कहते हैं
 
 
प्रत्यक्षपूर्व त्रिविधं त्रिकालं चानुमीयते ।
 
बहिर्निगूढो धूमेन मैथुनं गर्भदर्शनात् ॥ (च. सु. 11/21)
 
3. अनुमान की परिभाषा - प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाने के बाद उसके ही आधार पर तीन प्रकार का तथा तीनों कालों का अनुमान किया जाता है । जैसे - धूम देखकर छिपी हुई ( वर्तमानकालिक ) अग्नि को अनुमान से जान लिया जाता है । गर्भ को देखकर ( भूतकाल में ) स्त्री का पुरुष से सहवास होना जाना जाता है । इसी प्रकार बीज को देखकर ( भविष्य में उत्पन्न होने वाले ) अनागत फल का अनुमान कर लिया । जाता है , क्योंकि पूर्वकाल में अनेक बार देखा गया है कि बीज से फल उत्पन्न हुआ था । इस तरह विद्वान् । लोग प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक वर्तमान , अतीत तथा भविष्य - इन तीनों कालों का ज्ञान कर लेते हैं ।
 
 
"बुद्धिः पश्यति या भावान् बहुकारणयोगजान् ।
 
युक्तिस्त्रिकाला साजेया त्रिवर्गः साध्यते यया "।। (च. सु .11/25)
 
4. युक्ति का लक्षण - अनेक कारणों के संयोग से उत्पन्न हुए अविज्ञात भावों ( विषयों ) को विज्ञात विषयों के कार्य - कारणभाव के अनुसार जो बुद्धि देखती है अर्थात् ज्ञान कराती है , उसे युक्ति कहते हैं । इस मुक्ति के द्वारा तीनों कालों के विषयों का ज्ञान होता है । इससे धर्म , अर्थ और काम ( त्रिवर्ग ) की सिद्धि होती है ।
 
 
~चतुर्विध प्रमाण द्वारा पुनर्जन्म की सिध्दि~
 
 
"तत्राप्तागमस्तावद् वेदः यश्चान्योऽपि कश्चिद् वेदार्थादविपरीतः परीक्षकैः प्रणीतः शिष्टानुमतो । लोकानप्रहप्रवृत्तः शास्त्रवावः स चाप्तागमः , आप्तागमादुपलभ्यते - दानतपोयज्ञसत्याहिंसाब्रह्मचर्याण्य भादयनिःश्रेयसकराणीति "॥ (च. सु. 11/27)
 
 
अप्तोपदेश प्रमाण द्वारा पुनर्जन्म कि सिध्दि - ( Establishment of Rebirth Theory ) यहाँ सर्वप्रथम आप्तोपदेश सा पुनर्जन्म की सिद्धि का निर्देश किया जा रहा है । आप्तों ( महपियों ) द्वारा दृष्ट अथवा उपदिष्ट आगम ही वेद निगम है । जो कोई दूसरा शास्त्र भी वेदों के सिद्धान्तों से विपरीत नहीं है , अर्थात् अपने सिद्धान्तों दारा वेदों का पोषक है , चतुर्विध प्रमाणों से परीक्षा करके रचा गया है , शिष्टजनों द्वारा अनुमोदित है और संसार के हित करने की क्षमता को रखता है , वह आप्तागम है । हमको आप्तागम से इस प्रकार के उपदेश प्राप्त होते हैं , कि ये - दान , तप , यज्ञ , सत्य , अहिंसा और ब्रह्मचर्य अभ्युदय एवम् निःश्रेयस् कारक होते हैं ।
 
 
प्रत्यक्षमपि चोपलभ्यते – मातापित्रोविसदृशान्यपत्यानि , तुल्यसम्भवानां वर्णस्वराकृतिसत्त्वति . भाग्यविशेषाः , प्रवरावरकुलजन्म , दास्यैश्वर्य , सुखासुखमायुः , आयुषो बंषम्यम् , इहाकृतस्यावाप्तिः , अशि . क्षितानां च रुदितस्तनपानहासत्रासादीनां प्रवृत्तिः , लक्षणोत्पत्तिः , कर्मसादृश्ये फलविशेषः , मेघा क्वचित क्वचित् कर्मण्यमेधा , जातिस्मरणम् , इहागमनमितश्च्युतानां च भूतानां , समदर्शने प्रियाप्रियत्वम् ॥ ३० ॥
 
 
प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि - प्रत्यक्ष प्रमाण भी पुनर्जन्म की सिद्धि में देखा जाता है । यथा - माता - पिता के विपरीत उनकी सन्ताने देखी जाती है । जब कि उन ( सन्तानों ) के उत्पत्ति - कारण समान हैं , फिर भी उनके वर्ण ( रंग ) , स्वर , आकृति ( रूप ) , सत्व ( मन ) , बुद्धि और भाग्य समान नहीं देखे जाते । ऊँच - नीच कुल में जन्म होना , सेवक - स्वामी होना , किसी की सुख आयु दूसरे की असुख ( कष्टकर ) आयु ( जीवन ) , एक दीर्घजीवी दूसरा अल्पायु , जो कर्म इस जीवन में नहीं किये गये है , उनके अनुरूप फलों का भोगना , बिना शिक्षा प्राप्त किये हीरोना , स्तनपान , हँसना , डरना आदि कर्मों की प्रवृत्ति , सौभाग्य या दुर्भाग्य सूचक लक्षणों की ( शरीरावयवों में ) उत्पत्ति , समान कर्म करने पर भी फल प्राप्ति में असमानता , किसी कर्म में मेधा ( धारणाशक्ति ) का होना किसी कर्म में न होना , इस लोक में आये हुए तथा यहाँ से गये ( मरे ) दुर प्राणियों में जाति - स्मरण का होना , समानरूप से देखने पर भी किसी को प्रिय और किसी को अप्रिय समझना । । इन सब लक्षणों को देखकर पूर्वजन्म के कर्म सम्बन्धों का प्रत्यक्षीकरण होता हो है ।
 
 
अत एवानुमीयते यत् स्वकृतमपरिहार्यमविनाशि पौर्वदेहिक वैवसंज्ञकमानुबन्धिकं कर्म , तस्यै तत फलम् , इतश्चान्यद् भविष्यतीति , फलाद् बीजमनुमीयते फलं च बीजात् ॥ ३१ ॥
 
 
अनुमान प्रमाण द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि - प्रत्यक्ष ज्ञान ही अनुमान का मूल आधार है । यहाँ पर कर्म के तीन विशेषण दिये है
 
१ . अपरिहार्य , २ . अविनाशी और ३ . आनुबन्धिक ।
 
ये वे कर्म हैं जो पूर्वजन्म में किये गये थे । उनका फल अपरि हार्य ( बिना भोगे टाला नहीं जा सकता ) है 'अर्थात् शुभ अथवा अशुभ जो भी कम हमने पूर्वजन्म में किया है उसको हमें भोगना ही पड़ेगा । जब तक नहीं भोगेंगे , तब तक वह ' अविनाशी ' है । क्योंकि ' नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । करोड़ों कल्पों तक भी अपने किये हुए कर्मों के फल का बिना भोग किये हुए उसकी समाप्ति नहीं होती ।
 
 
युक्तिश्चैषा - षड्धातुसमुदयाद् गर्भजन्म , कर्तृकरणसंयोगात् क्रिया ; कृतस्य कर्मणः फलं नाकृतस्य , नाङकुरोत्पत्तिरबीजात् ; कर्मसदृशं फलं नान्यस्माद् बीजादन्यस्योत्पत्तिः , इति युक्तिः ॥ ३२ ॥
 
 
युक्ति प्रमाण द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि - पुनर्जन्म को सिद्ध करने में यह युक्ति है कि षडधातु ( पञ्च महाभूत और आत्मा ) के समूह से गर्भ का जन्म होता है । क्योंकि कर्ता और कारण के परस्पर संयोग से क्रिया ( किसी कार्य की सम्पादिका ) होती है । कृत ( किये हुए ) कर्म का ही फल मिलता है न कि अकूत ( न किये हुए ) कर्म का । बीज के बिना कभी भी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती और कर्म के अनुरूप ही फल भी होता है । बीज के बिना अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती , यह युक्ति भी पूर्वोक्त विषय को ही समर्थन देती है । दूसरा दृष्टिकोण यह भी प्रस्तुत करती है कि यदि अंकुर की उत्पत्ति हुई है तो इसके मूल । में बीज अवश्य होगा , ऐसा हम अनुमान भी कर सकते हैं , क्योंकि एक ( प्रत्यक्ष ) बीज को बो करके हम । कुछ ही दिन में अंकुर को देखते हैं । इसी से प्रत्यक्ष का अनुमान से और अनुमान का युक्ति से सुस्थिर सम्बन्ध सिद्ध होता है।
 
 
 
एषा परीक्षा नास्त्यन्या यया सर्व परीक्ष्यते ।
 
आपरीक्ष्यं सदसच्चेवं तया चास्ति पुनर्भवः ॥ २६ ॥
 
 
चतुर्विध परीक्षा का उपसंहार - यही चतुर्विध परीक्षा है । इसके अतिरिक्त और कोई परीक्षा नहीं है । जिससे सभी प्रकार के ( पूर्ववर्णित ) सत् और असत् परीक्षा करने योग्य विषयों की परीक्षा की जा सकती है । उस परीक्षा से ही पुनर्भव ( पुनर्जन्म ) के अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है चार प्रमाणों द्वारा जब यह निश्चय हो गया है कि पुनर्जन्म होता ही है , तो वह सुख हो इसके लिये धर्म - द्वारों का उपदेश दिया गया है । मनुष्य के जीवन को मूलतः चार भागों में विभक्त किया पाहै । यथा - १ . ब्रह्मचय , २ . गृहस्थाश्रम , ३ . वानप्रस्थ और ४ . सन्यास ।
 
==पुनर्जन्म का मान्यता==
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'''अर्थात'''-श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता।
 
इसमें श्रीकृष्ण ने पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है और स्वयं (कृष्ण) को अपने पिछले कई जन्मों की जानकारी होने की बात भी रखी है।<ref>{{cite book|first1=महर्षि वेद|last1=व्यास|title=श्रीमद्भगवद्गीता|date=पौराणिक काल|location=भारत|page=अध्याय ४, श्लोक संख्या ५|url=http://www.aboutdays.com/geeta/bhagavad-gita-chapter-4-34.html#gsc.tab=0|language=संस्कृत|access-date=25 जनवरी 2018|archive-url=https://web.archive.org/web/20180125135120/http://www.aboutdays.com/geeta/bhagavad-gita-chapter-4-34.html#gsc.tab=0|archive-date=25 जनवरी 2018|url-status=deadlive}}</ref>
 
==सन्दर्भ==