"चाहरवाटी": अवतरणों में अंतर
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चाहर (हिन्दू-जाटों का एक गोत्र)
भारत में 17 बार आने वाला मुस्लिम आक्रमणकारी 'महमूद गजनवी' जिन योद्धाओं से युद्ध करने के बाद फिर कभी भारत में कभी नहीं लौटा वो योद्धा थे 'जाट' .
उन्ही 'जाट' योद्धाओं में से एक महान योद्धा थे -
*राजा चाहरदेव* :-
राजस्थान के नरवर राज्य पर जाट राजा चाहरदेव का शासन था। यह प्रतापी राजा मुस्लिम आक्रांताओं के साथ लड़ाई में मारे गए और चाहर वंश 'ब्रज प्रदेश' और 'जांगल प्रदेश' में बस गया।
इतिहासकारों को ग्वालियर के आस-पास खुदाई में सिक्के मिले हैं जिन पर एक तरफ अश्वारूढ़ राजा की तस्वीर है और दूसरी और अश्वारूढ़ श्रीसामंत देव लिखा है। सामंत पर ही रहने वाले राजा के इस सिक्के को इतिहासकारों ने राजा चाहरदेव के सिक्के के रूप में पहचाना हैं।
1268 ई. में कंवरराम व कानजी चाहर ने 'सिद्धमुख' एवं 'काजण' नामक स्थान पर राज्य किया जो जांगल प्रदेश में चाहर वंश के राज्य थे।
सन् 1414 राजा मालदेव चाहर :-
उस समय 80 गाँवों की एक पट्टी होती थी, और एक पट्टी का एक लम्बरदार। जांगल प्रदेश के सात पट्टीदार लम्बरदारों से पूरा लगान न उगा पाने के कारण दिल्ली का बादशाह खिज्रखां मुबारिक (सैयद वंश) नाराज हो गए। लखिज्रखां मुबारिक ने उन सातों चौधरियों को पकड़ने के लिए सेनापति बाजखां पठान के नेतृतव में सेना भेजी। खिज्रखां सैयद का शासन 1414 ई से 1421 ई तक था। बाजखां पठान इन सात चौधरियों को गिरफ्तार कर दिल्ली लेजा रहा था। यह बाजखां के साथ सेना की टुकड़ी, काजण राज्य से गुजरी। अपनी रानी के कहने पर राजा मालदेव ने सेनापति बाजखां पठान को इन चौधरियों को छोड़ने के लिए कहा. किन्तु वह नहीं माना। आखिर में युद्ध हुआ जिसमें मुग़ल सेना मारी गयी. इस घटना से यह कहावत प्रचलित है कि - "माला तुर्क पछाड़याँ दे दोख्याँ सर दोट । सात गोत के चौधरी, बसे चाहर की ओट ।।" (ये सात - सऊ, सहारण, गोदारा, बेनीवाल, पूनिया, सिहाग और कस्वां गोत्र के थे।)
1416 ई. में स्वयं बादशाह खिज्रखां मुबारिक सैयद एक विशाल सेना लेकर राजा मालदेव चाहर को सबक सिखाने आया। एक तरफ सिधमुख एवं कांजण की छोटी सेना थी तो दूसरी तरफ दिल्ली बादशाह की विशाल सेना। मालदेव चाहर की अत्यंत रूपवती कन्या सोमादेवी थी। कहते हैं कि आपस में लड़ते सांडों को वह सींगों से पकड़कर अलग कर देती थी। बादशाह ने संधि प्रस्ताव के रूप में युद्ध का हर्जाना और विजय के प्रतीक रूप में सोमादेवी का हाथ माँगा। स्वाभिमानी मालदेव ने धर्म-पथ पर बलिदान होना श्रेयष्कर समझा। चाहरों एवं खिज्रखां सैयद में युद्ध हुआ। इस युद्ध में सोमादेवी भी पुरुष वेश में लड़ी। युद्ध में दोनों पिता-पुत्री एवं अधिकांश चाहर मारे गए किन्तु मुस्लिम शासकों की पराधीनता स्वीकार नहीं की।
जिसके बाद शेष चाहर बादलगढ़ के पास रहने चले गए। कालान्तर में बादलगढ़ का नाम अकबराबाद और फिर आगरा हो गया । मुग़ल शाशकों के बाद अंग्रेजों ने भी कई वर्ष भारत पर शाशन किया। चाहर गोत्र के लोगों की संख्या जो उस वक़्त मात्र कुछ सैकड़ों की संख्या में थी, वह आजाद भारत के कई वर्षों बाद 21वी सदी में लगभग 2 लाख है। उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के अकोला ब्लॉक में आज भी जाटों का 'चाहर' वंश का गढ़ है,और उस क्षेत्र के कई गाँव में यह वंश निवास करता है।
बाघराम चाहर, रामकी चाहर, बाबा घासीराम चाहर आदि ने मुग़लों से अनेक बार लोहा लेकर इस क्षेत्र की संपन्नता को बरकार रखा और इसीलिए वर्तमान में चाहरों की राजधानी कहे जाने वाले 'अकोला' में बाबा घासीराम जी का मंदिर भी निर्मित है ।
जब भी कोई शासक अत्याचारी बना है, इस भूमि से भी अवतार की भांति वीर जन्म लेते रहे हैं।
20वीं सदी में भी 'चाहर' जो उच्च पद पर पहुंचे उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
* रमेश चाहर उर्फ वर्माजी (विधायक)
* एस. एस. चाहर (ADG-BSF)
* दीपक चाहर (अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर)
* राजकुमार चाहर (सांसद)
(रिसर्च जारी है... शीघ्र ही अतिरिक्त सूचना, उसके संग्रह उपरांत पुष्टि के बाद प्रकाशित की जाएगी )
==संदर्भ==
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