"प्रभाष जोशी": अवतरणों में अंतर

छो 2402:8100:384F:A9B8:9200:F043:94D:51BA (Talk) के संपादनों को हटाकर InternetArchiveBot के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया
टैग: वापस लिया
Rescuing 1 sources and tagging 0 as dead.) #IABot (v2.0.8.5
पंक्ति 31:
देशज संस्कारों और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित प्रभाष जोशी सर्वोदय और गांधीवादी विचारधारा में रचे बसे थे। जब १९७२ में जयप्रकाश नारायण ने मुंगावली की खुली जेल में माधो सिंह जैसे दुर्दान्त दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तब प्रभाष जोशी भी इस अभियान से जुड़े सेनानियों में से एक थे। बाद में दिल्ली आने पर उन्होंने १९७४-१९७५ में एक्सप्रेस समूह के हिन्दी साप्ताहिक प्रजानीति का संपादन किया।<ref>{{Cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5201659.cms |title=संग्रहीत प्रति |access-date=6 नवंबर 2009 |archive-url=https://web.archive.org/web/20091109032542/http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5201659.cms |archive-date=9 नवंबर 2009 |url-status=live }}</ref> आपातकाल में साप्ताहिक के बंद होने के बाद इसी समूह की पत्रिका आसपास उन्होंने निकाली। बाद में वे [[द इंडियन एक्सप्रेस|इंडियन एक्सप्रेस]] के [[अहमदाबाद]], [[चण्डीगढ़|चंडीगढ़]] और [[दिल्ली]] में स्थानीय संपादक रहे। प्रभाष जोशी और जनसत्ता एक दूसरे के पर्याय रहे। वर्ष १९८३ में एक्सप्रेस समूह के इस हिन्दी दैनिक की शुरुआत करने वाले प्रभाष जोशी ने हिन्दी पत्रकारिता को नई दशा और दिशा दी। उन्होंने सरोकारों के साथ ही शब्दों को भी आम जन की संवेदनाओं और सूचनाओं का संवाद बनाया। प्रभाष जी के लेखन में विविधता और भाषा में लालित्य का अद्भुत समागम रहा। उनकी कलम सत्ता को सलाम करने की जगह सरोकार बताती रही और जनाकांक्षाओं पर चोट करने वालों को निशाना बनाती रही। उन्होंने संपादकीय श्रेष्ठता पर प्रबंधकीय वर्चस्व कभी नहीं होने दिया। १९९५ में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से निवृत्त होने के बाद वे कुछ वर्ष पूर्व तक प्रधान सलाहकार संपादक के पद पर बने रहे। उनका साप्ताहिक स्तंभ कागद कारे उनके रचना संसार और शब्द संस्कार की मिसाल है। प्रभाष जोशी ने [[जनसत्ता]] को आम आदमी का [[समाचारपत्र|अखबार]] बनाया। उन्होंने उस भाषा में लिखना-लिखवाना शुरू किया जो आम आदमी बोलता है। देखते ही देखते जनसत्ता आम आदमी की भाषा में बोलनेवाला अखबार हो गया। इससे न केवल भाषा समृद्ध हुई बल्कि बोलियों का भाषा के साथ एक सेतु निर्मित हुआ जिससे नये तरह के मुहावरे और अर्थ समाज में प्रचलित हुए।
 
अब तक उनकी प्रमुख पुस्तकें जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं वे हैं- हिन्दू होने का धर्म, मसि कागद और कागद कारे। उन्हें हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में योगदान के लिए साल २००७-०८ का [[शलाका सम्मान]] भी प्रदान किया गया था।<ref>{{Cite web |url=http://visfot.com/index.php/permalink/32.html{{Dead link|title=संग्रहीत प्रति |access-date=जून6 नवंबर 2009 |archive-date=27 नवंबर 2020 |botarchive-url=https://web.archive.org/web/20201127201226/http://visfot.com/index.php/permalink/32.html |url-status=InternetArchiveBotdead }}</ref>
 
जोशी जी अनुकरणीय क्यों है और उन्हें पत्रकार क्यों माना जाए ? इन दो सवालों के जबाव उनके जीवनकर्म में समाहित हैं। प्रभाष जी बंद कमरे में कलम घिसने वाले पत्रकार नहीं होकर एक एक्टिविस्ट / कार्यकर्त्ता थे, जो गाँव, शहर, जंगल की खाक छानते हुए सामाजिक विषमताओं का अध्ययन कर ना केवल समाज को खबर देते थे<ref name="janokti.com"/> अपितु उसे दूर करने का हर संभव प्रयास भी उनकी बेमिसाल पत्रकारिता का हीं एक हिस्सा था