"फ़रीदुद्दीन गंजशकर": अवतरणों में अंतर
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==जीवनी==
बाबा फरीद का जन्म ११७3 ई. में लगभग पंजाब में हुआ। उनका वंशगत संबंध [[काबुल]] के बादशाह फर्रुखशाह से था। १८ वर्ष की अवस्था में वे [[मुल्तान]] पहुंचे और वहीं [[ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी]] के संपर्क में आए और [[चिश्ती]] सिलसिले में दीक्षा प्राप्त की। गुरु के साथ ही मुल्तान से देहली पहुँचे और ईश्वर के ध्यान में समय व्यतीत करने लगे। देहली में शिक्षा दीक्षा पूरी करने के उपरांत बाबा फरीद ने १९-२० वर्ष तक [[हिसार]] जिले के हाँसी नामक कस्बे में निवास किया। शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की मृत्यु के उपरांत उनके खलीफा नियुक्त हुए किंतु राजधानी का जीवन उनके शांत स्वभाव के अनुकूल न था अत: कुछ ही दिनों के पश्चात् वे पहले हाँसी, फिर खोतवाल और तदनंतर दीपालपुर से कोई २८ मील दक्षिण पश्चिम की ओर एकांत स्थान अजोधन (पाक पटन) में निवास करने लगे। अपने जीवन के अंत तक वे यहीं रहे। अजोधन में निर्मित फरीद की समाधि [[हिंदुस्तान]] और [[खुरासान]] का पवित्र तीर्थस्थल है। यहाँ [[मुहर्रम]] की ५ तारीख को उनकी मृत्यु तिथि की स्मृति में एक मेला लगता है। [[नागपुर]] जिले में भी एक पहाड़ी जगह गिरड पर उनके नाम पर मेला लगता है।
गिरड नाम के गाव मे उनका
वे [[योगी|योगियों]] के संपर्क में भी आए और संभवत: उनसे स्थानीय भाषा में विचारों का आदान प्रदान होता था। कहा जाता है कि बाबा ने अपने चेलों के लिए [[हिंदी]] में जिक्र (जाप) का भी अनुवाद किया। [[सियरुल औलिया]] के लेखक अमीर खुर्द ने बाबा द्वारा रचित [[मुल्तानी भाषा]] के एक दोहे का भी उल्लेख किया है। गुरु ग्रंथ साहब में शेख फरीद के ११२ 'सलोक' उद्धृत हैं। यद्यपि विषय वही है जिनपर बाबा प्राय: वार्तालाप किया करते थे, तथापि वे बाबा फरीद के किसी चेले की, जो बाबा [[गुरु नानक|नानक]] के संपर्क में आया, रचना ज्ञात होते हैं। इसी प्रकार फवाउबुस्सालेकीन, अस्रारुख औलिया एवं राहतुल कूल्ब नामक ग्रंथ भी बाबा फरीद की रचना नहीं हैं। बाबा फरीद के शिष्यों में हजरत अलाउद्दीन अली आहमद साबिर कलियरी और हजरत निजामुद्दीन औलिया को अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। वास्तव में बाबा फरीद के आध्यात्मिक एवं नैतिक प्रभाव के कारण उनके समकालीनों को इस्लाम के समझाने में बड़ी सुविधा हुई।
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