"सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५": अवतरणों में अंतर

सूचना का अधिकार अधिनियम की विस्तृत जानकारी
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द्वितीय अपील के तहत केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग के आदेश से संतुष्ट न होने पर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। केन्द्र में उच्चतम न्यायालय और राज्य में उच्च न्यायालय में आदेश के खिलाफ या आदेश के बाद भी केंद्रीय जन सूचना अधिकारी उसे मानने से इंकार करता है तो ऐसी परिस्थितियों में जाया जा सकता है।
 
==कानून का वैश्विक अध्ययन==
*"सूचना का अधिकार दिवस की समस्त देशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं-*
विश्व के पांच देशों के सूचना के अधिकार का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए पांच देशों स्वीडन, कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको तथा भारत का चयन किया गया और इन देशों के कानून, लागू किए वर्ष, शुल्क, सूचना देने की समयावधि, अपील या शिकायत प्राधिकारी, जारी करने का माध्यम, प्रतिबन्धित करने का माध्यम आदि का तुलना सारणी के माध्यम से किया गया है। देश स्वीडन, कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको, भारत कानून संविधान कानून द्वारा संविधान संविधान कानून द्वारा लागू वर्ष 1766, 1982, 1978, 2002, 2005 शुल्क निशुल्क निशुल्क निशुल्क निशुल्क शुल्क द्वारा सूचना देने की समयावधि तत्काल 15 दिन 1 माह 20 दिन 1 माह या (जीवन व स्वतंत्रता के मामले में 48 घण्टा)
अपील/ शिकायत प्राधिकारी न्यायालय सूचना आयुक्त संवैधानिक अधिकारी द नेशन कमीशन आॅफ ऐक्सेस टू पब्लिक इन्फाॅरर्मेशन विभागीय स्तर पर प्रथम अपीलीय अधिकारी अथवा सूचना आयुक्त/मुख्य सूचना आयुक्त केन्द्रीय या राज्य स्तर पर।
 
जारी करने का माध्यम कोई भी किसी भी रूप में इलेक्ट्रानिक रूप में सार्वजनिक ऑफलाइन एवं आनलाईन प्रतिबन्धित सूचना गोपनीयता एवं पब्लिक रिकार्ड एक्ट 2002 सुरक्षा एवं अन्य देशों से सम्बन्धित सूचनाएँ मैनेजमंट आॅफ गवर्नमेण्ट इन्फाॅरमेशन होल्डिंग 2003 डाटा प्रोटेक्शन एक्ट 1978 ऐसी सूचना जिससे देश का राष्ट्रीय, आंतरिक व बाह्य सुरक्षा तथा अधिनियम की धारा 8 से सम्बन्धित सूचनाएँ।
सूचना का अधिकार दिवस पर आज हम एक विशेष लेख के माध्यम से सूचना का अधिकार अधिनियम के इतिहास और जमीनी हकीकत के बारे में जानने का एक छोटा सा प्रयास करेंगे। मेरा यह लेख मध्य प्रदेश के प्रथम आरटीआई कार्यकर्ता एवं मेरे मार्गदर्शक श्री अजय दुबे जी राष्ट्रीय संयोजक सूचना का अधिकार आंदोलन के लिए समर्पित है।
 
विश्व में पांच देश स्वीडन, कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको और भारत के सूचना का अधिकार कानून का तुलनात्मक अध्ययन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत है-
किसी भी सफल लोकतंत्र के लिए शासन व्यवस्था में पारदर्शिता एवं जवाबदेही का होना अति आवश्यक है सरकार के कार्यकलापों में पारदर्शिता अर्थात छुपाओ विहीन प्रणाली अपनाने तथा आम आदमी को प्रशासन द्वारा सूचना प्रदान करने के लिए विश्व भर में सूचना का अधिकार अधिनियम की मांग लंबे समय से उठाई जाती रही है। लोकतंत्र में सरकार की सफलता तथा प्रतिष्ठा बहुत सीमा तक स्वस्थ, कुशल तथा पारदर्शी प्रशासनिक तंत्र पर निर्भर करती है। भारत का संविधान प्रारंभ से ही देश के नागरिकों को भाषा एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता था, किंतु जानने का अधिकार इसमें सम्मिलित नहीं रहा है । यद्यपि कालांतर विभिन्न न्यायिक निर्णय के आधार पर सूचना का अधिकार कि संविधान में भी पुष्टि की गई।
 
विश्व में सबसे पहले स्वीडन ने सूचना का अधिकार कानून 1766 में लागू किया, जबकि कनाडा ने 1982, फ्रांस ने 1978, मैक्सिको ने 2002 तथा भारत ने 2005 में लागू किया।
संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के खंड (क) के अंतर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार तथा अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का एक अंग माना गया है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो बिना सूचना के जानकारी के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या औचित्य, क्योंकि वर्तमान युग में सूचना ही जीवन का प्राण है। सूचना के अधिकार को वैश्विक स्तर पर प्रायः- "Freedom of Information" , "Official Information" , Access to Information" , "Public Information" , "Code on Access to Information", इत्यादि नामों से भी जाना जाता है स्थूल रूप में सूचना की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ इंफॉर्मेशन) या सूचना का अधिकार (राइट टू इनफार्मेशन) से तात्पर्य- "उस वैधानिक नागरिक अधिकार से है जो किसी देश के व्यक्तियों को सरकारी कार्यकरण से संबंधित सूचना प्राप्त करने के अवसर एवं सहज पहुंच प्रदान करता है।"
#विश्व में स्वीडन पहला ऐसा देश है, जिसके संविधान में सूचना की स्वतंत्रता प्रदान की है, इस मामले में कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको तथा भारत क संविधान उतनी आज़ादी प्रदान नहीं करता। जबकि स्वीडन के संविधान ने 250 वर्ष पूर्व सूचना की स्वतंत्रता की वकालत की है।
#सूचना मांगन वाले को सूचना प्रदान करने की प्रक्रिया स्वीडन, कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको तथा भारत में अलग-अलग है जिसमें स्वीडन सूचना मांगने वाले को तत्काल और निशल्क सूचना देने का प्रावधान है।
#सूचना प्रदान करने लिए फ्रांस और भारत में 1 माह का समय निर्धारित किया गया है, हालांकि भारत ने जीवन और स्वतंत्रता के मामले में 48 घण्टे का समय दिया गया है, किन्तु स्वीडन अपने नागरिकों को तत्काल सूचना उपलब्ध कराता है, जबकि कनाडा 15 दिन तथा मैक्सिको 20 दिन में सूचना प्रदान कर देता है।
#सूचना न मिलने पर अपील प्रक्रिया भी लगभग एक ही समान है।
#स्वीडन में सूचना न मिलने पर न्यायालय में जाया जाता है। कनाडा तथा भारत में सूचना आयुक्त जबकि फ्रांस में संवैधानिक अधिकारी एवं मैक्सिको में ’द नेशनल आॅन एक्सेस टू पब्लिक इनफाॅरमेशन’ अपील और शिकयतों का निपटारा करता है।
#स्वीडन किसी भी माध्यम द्वारा तत्काल सूचना उपलब्ध कराता है जिनमें वेबसाइट पर भी सूचना जारी किया जाती है। कनाडा और फ्रांस अपने नागरिकों को किसी भी रूप में सूचना दे सकता है, जबकि मैक्सिको इलेक्ट्राॅनिक रूप से सूचनाओं का सार्वजनिक करता है तथा भारत प्रति व्यक्ति को सूचना उपलब्ध कराता है।
#गोपनीयता के मामले में स्वीडन ने गोपनीयता एवं पब्लिक रिकार्ड एक्ट 2002, कनाडा ने सुरक्षा एवं अन्य देशों से सम्बन्धित सूचनाएँ मैनेजमंट आॅफ गवर्नमेण्ट इन्फाॅरमेशन होल्डिंग 2003, फ्रांस ने डाटा प्रोटेक्शन एक्ट 1978 तथा भारत ने राष्ट्रीय, आंतरिक व बाह्य सुरक्षा तथा अधिनियम की धारा 8 में उल्लिखित प्रावधानों से सम्बन्धित सूचनाएँ देने पर रोक है।
 
आधुनिक विश्व के ऐतिहासिक पन्नों में आज लगभग 145 देशों में सूचना का अधिकार अधिनियम प्रभावी ढंग से लागू हो चुका है। और इन देशों का गौरव बढ़ा रहा है। वस्तुतः संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से ही सूचना की स्वतंत्रता संबंधी अंतरराष्ट्रीय प्रयासों को गति मिलने लगी। सन 1994 में विश्व बैंक द्वारा निर्मित "Policy on the Disclosure of Information" ने भी लोकतांत्रिक सरकारों पर दबाव बनाया। *परंतु समूचे विश्व में स्वीडन इकलौता वह देश है, जिसने अपने संविधान में सर्वप्रथम सन 1766 में सूचना का अधिकार की वकालत करते हुए देश के नागरिकों को सूचना का अधिकार का संवैधानिक अधिकार दिया साथ ही दुनिया में सबसे पुराना संविधान होने का दावा किया है, यदि साफ शब्दों में कहा जाए तो स्वीडन सूचना का अधिकार अधिनियम की जननी है।* यद्यपि सूचना की स्वतंत्रता संबंधी प्रथम वैधानिक प्रयास स्वीडन में हुए थे, परंतु इस नाम से (Freedom of Information) व्यापक एवं स्पष्ट कानून सन 1966 में अमेरिका में निर्मित हुआ।
 
*भारत में=== '''सूचना का अधिकार की(संशोधन) विधेयक, 2019''' शुरुआत-*===
हाल ही में लोकसभा ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 [Right to Information (Amendment) Bill, 2019] पारित किया। इस विधेयक में सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को संशोधित करने का प्रस्ताव किया गया है।
भारत में अंग्रेजों ने लगभग 250 वर्षों तक शासन किया इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारत में शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 बनाया, जिसके अंतर्गत सरकार को यह अधिकार हो गया कि वह किसी भी सूचना को गोपनीय कर सकेगी।
सन 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ, लेकिन संविधान निर्माताओं ने संविधान में इसका कोई भी वर्णन नहीं किया और न अंग्रेजो के द्वारा बनाया हुआ शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 का संशोधन किया। आने वाली सरकारों ने गोपनीयता अधिनियम 1923 की धारा 5 व 6 के प्रावधानों का लाभ उठाकर जनता से सूचनाओं को छुपाती रही
 
=== संशोधन के प्रमुख बिंदु: ===
भारत में सूचना के अधिकार की मांग सत्तर के दशक के दशक में उस समय उठने लगी थी जब दिल्ली के चर्चित चोपड़ा हत्याकांड के बाद हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार ने खूंखार अपराधियों रंगा-बिल्ला से जेल में साक्षात्कार हेतु प्रशासन से इस आधार पर अनुमति चाही थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में सूचना की प्राप्ति समाहित है।
 
* [http://societykarma.in/why-rti-amendment-bill-controversial/ सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अनुसार मुख्य सूचना आयुक्त] {{Webarchive|url=https://web.archive.org/web/20200111002242/http://societykarma.in/why-rti-amendment-bill-controversial/ |date=11 जनवरी 2020 }} (Chief Information Commissioner) और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है, परंतु संशोधन के तहत इसे परिवर्तित करने का प्रावधान गया है। प्रस्तावित संशोधन के अनुसार, मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
चंद वर्षों बाद ही इस मामले ने एक बार फिर तूल पकड़ लिया मामला था उत्तर प्रदेश के रायबरेली चुनाव का जिसमें देश की सबसे ताकतवर महिला पर गलत ढंग से चुनाव जीतने का आरोप लगा और इस मामले में जंग का अखाड़ा बना उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद हाई कोर्ट *"राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश*(1975) 4 एस.सी.सी. 428 के मामले ने देश की नीव हिला कर रख दी। गौरतलब है कि 12 जून 1975 को मामले की सुनवाई करने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में गड़बड़ी करने का दोषी पाया और उन्हें जनप्रतिनिधि कानून के तहत किसी भी निर्वाचित पद पर रहने से रोक दिया इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश में रायबरेली सीट से 1971 का लोकसभा चुनाव अपने निकटतम प्रतिद्वंदी राज नारायण को हराकर जीता था पराजित नेता राज नारायण ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि उनके चुनाव एजेंट यशपाल कपूर एक सरकारी लोक सेवक थे और इंदिरा गांधी ने निजी चुनाव संबंधी कार्यों के लिए सरकारी अधिकारियों का इस्तेमाल किया। साथ ही जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जानने का अधिकार ऐसा अधिकार हैं जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के अधीन गारंटीकृत वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से उदभूत होता है। और तब कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर लगे चुनावी कदाचार के लगे आरोपों के बाद जस्टिस जगमोहन लाल सिंहा द्वारा उन्हें अयोग्य घोषित करार कर दिया गया और उनके ऊपर 6 साल तक चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंधित कर दिया गया इस फैसले ने देश को हिला कर रख दिया जिसका प्रत्यक्ष असर आपातकाल की घोषणा पर हुआ जिसके दुष्परिणाम देश को भुगतना पडा।
* नए विधेयक के तहत केंद्र और राज्य स्तर पर मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते तथा अन्य रोज़गार की शर्तें भी केंद्र सरकार द्वारा ही तय की जाएंगी।
 
* सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 यह प्रावधान करता है कि यदि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त पद पर नियुक्त होते समय उम्मीदवार किसी अन्य सरकारी नौकरी की पेंशन या अन्य सेवानिवृत्ति लाभ प्राप्त करता है तो उस लाभ के बराबर राशि को उसके वेतन से घटा दिया जाएगा, लेकिन इस नए संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है।
*भारत के अलग-अलग हिस्सों में हुई सूचना के अधिकार की शुरुआत किए गए कई आंदोलन*
 
भारत में पारदर्शिता के लिए व्यवस्थित आंदोलन की शुरुआत पर्यावरण आंदोलन के रूप में हुई। 1984 में भोपाल गैस कांड ने पूरे देश के पर्यावरण आंदोलनकारियों को सकते में डाल दिया। यह बात सबकी चिंता का विषय बनी कि अपने ही देश के भीतर चल रहे इतने खतरनाक रासायनिक उद्योग के संबंध में देशवासियों को बेहद कम जानकारी थी इन चिंताओं ने ऐसी सूचनाएं सार्वजनिक करने का दबाव बनाया। 1984 के बाद बने पर्यावरण संबंधी कानूनों में जन भागीदारी तथा जनसुनवाई के पहलू जोड़े गए, ताकि नागरिकों को उनके क्षेत्र में होने वाले प्रदूषण संबंधी किसी भी संभावना की पर्याप्त जानकारी हो सके।
 
बाँम्बे एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप ने 1985-86 में महसूस किया कि पुणे कैंटोनमेंट बोर्ड द्वारा विभिन्न भवनों का का अवैध ढंग से निर्माण कराया जा रहा है संगठन ने इन भवनों के निर्माण से संबंधित नक्शाे का अध्ययन करने की अनुमति मांगी लेकिन बोर्ड ने साफ इंकार कर दिया। उस वक्त तक सूचना का अधिकार जैसा कोई कानून नहीं होने के कारण संगठन ने 1986 में हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर करके इस संबंधी अनुमति मांगी अदालत ने अनुमति दे दी।
 
*भारत में सूचना का अधिकार के लिए आंदोलन का जन्म-*
 
भारत में सूचना का अधिकार के लिए सबसे ठोस, स्पष्ट एवं अनवरत आंदोलन राजस्थान के किसानों ने चलाया इस आंदोलन का नेतृत्व आई.ए.एस की नौकरी छोड़ चुकी समाज सेविका अरुणा रॉय एवं निखिल डे ने किया।
मजदूर किसान जागृति संगठन का आंदोलन भारत में सूचना का अधिकार का अगुआ बना दूसरी ओर महाराष्ट्र में अन्ना हजारे ने गांधीवादी तरीके से आंदोलन चलाकर पारदर्शिता के पक्ष में जोरदार माहौल तैयार किया।
 
सूचना का अधिकार अभियान का सूत्रपात राजस्थान में निर्धन मजदूरों के संगठन मजदूर किसान शक्ति संगठन द्वारा किया गया। यह कृषकों एवं ग्रामीणों श्रमिकों का संगठन है। इस संगठन का जन्म राजस्थान में जिला राजसामद की तहसील देवगढ़ में अवस्थित ग्राम सोहनगढ़ के सामंतवादी भू-स्वामी के विरुद्ध भूमि संघर्ष से 1मई 1990 को हुआ जिसे श्रमिक वर्ग "श्रमिक दिवस" के रूप में उत्साह एवं हर्षोल्लास के साथ मनाता है। नीलाभ मिश्र के 'पीपुल्स राइट टू इनफॉरमेशन मूवमेंट बहस संख्या 4 यू. एंन. डी. पी. इंडिया, जब मजदूर किसान संगठन का 90 के दशक में गठन किया था, तो इसका कथित उद्देश्य अपने प्राथमिक संघटको अर्थात ग्रामीण निर्धनों के जीवन में परिवर्तन लाने हेतु संघर्ष एवं रचनात्मक कार्रवाई की पद्धतियों का प्रयोग करना था।
 
'सूचना के अधिकार की मांग का बीजारोपण न्यूनतम मजदूरी हेतु संघर्ष में हुआ। राजस्थान राज्य में, न्यूनतम मजदूरी पर विधि का अतिरिक्त महत्व है क्योंकि वहां राज्य को नियमित रूप से अनावृष्टि राहत कार्यक्रम को चलाना पड़ता है और अक्सर यह होता है कि कु-प्रबंध एवं भ्रष्टाचार के चलते, न्यूनतम मजदूरी संदाय नहीं की जाती।
 
साक्षरता का स्तर भी दयनीय ढंग से अत्यंत कम है और ऋण भार अधिक है। न्यूनतम मजदूरी की लड़ाई के दौरान ही पारदर्शिता एवं सूचना के अधिकार के महत्व काे समझा गया। हर बार जब श्रमिक न्यूनतम मजदूरी की मांग करते हैं, तो उनसे यही कहा जाता है कि उन्होंने कार्य नहीं किया है। जब श्रमिकों ने यह मांग उठाई कि अभिलेखों को दिखाया जाए तो उनसे कहा गया कि अभिलेख सरकारी लेखें हैं और इसलिए गुप्त हैं। इस प्रकार से यह स्पष्ट हो गया कि अभिलेखों तक पहुंच रखना, भ्रष्टाचार निवारण करना, न्यूनतम मजदूरी के लिए प्रयास करना तथा उसे प्राप्त करना और यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि आधारभूत ढांचा तैयार कराया जाए।
 
जब श्रमिकों ने बिल, बाउचरों तथा अपनी पंचायत में उपगत कार्यों के मस्टर रोल से पहुंच करनी प्रारंभ कर दी तो यह पाया गया कि वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि वृहद पैमाने पर घोटाले हुए हैं बिलों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया था। निधियों के कार्यों की अन्यार्थ प्रविष्टियां की गई थी अधिकांश संनिर्माण कार्यों को केवल कागज पर दर्शाया गया था। वास्तव में ऐसा कोई कार्य कभी किया ही नहीं गया था, और यदि किसी कार्य को किया भी गया था तो उसे या तो अधूरा ही छोड़ दिया गया था या फिर प्रयुक्त सामग्री निम्न स्तरीय थी और उसकी अपेक्षा से कम मात्रा में प्रयोग किया गया था परिणामतः स्थानीय अधिकारियों एवं अन्य पक्षों के मध्य सांठ-गांठ के कारण निर्धन श्रमिकों एवं ग्रामीणों का शोषण तथा उत्पीड़न होता रहा। यही कारण था कि इस निरंकुशता के विरुद्ध अविरत अभियान छेड़ा गया।
 
अतः लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए तटस्थ एवं खुले मंच की तलाश प्रारंभ हुई। इसी क्रम में गांव-गांव में जन-सुनवाई पर आधारित कार्यक्रम आयोजित किए गए किए जाने लगे। जनसुनवाई ऐसा मंच है कि जिसके माध्यम से साधारण लोगों को निर्भय होकर बोलने का अवसर प्राप्त होता है और वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्वासोत्पादक साक्ष्य देते हैं इस प्रकार से 'सूचना के अधिकार' आंदोलन का प्रारंभ हुआ।
 
भारत में सूचना का अधिकार के आंदोलनों पनपता देख देश की सरकार के मन में भी कहीं ना कहीं डर बढ़ने लगा और सरकार ने सर्वप्रथम गोपनीयता अधिनियम 1923 पर ध्यान केंद्रित करते हुए।
 
वर्ष 1982 में द्वितीय प्रेस आयोग ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 की विवादस्पद धारा 5 को निरस्त करने की सिफारिश की, क्योंकि इसमें कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया था कि 'गुप्त' क्या है और शासकीय गुप्त बात' क्या है ? इसलिए परिभाषा के अभाव में यह सरकार के निर्णय पर निर्भर था , कि कौन सी बात को गोपनीय माना जाए और किस बात को सार्वजनिक किया जाए।
 
1989 में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद बीपी सिंह की सरकार सत्ता में आई , जिसने सूचना का अधिकार कानून बनाने का वायदा किया।
3 दिसम्बर 1989 को अपने पहले संदेश में तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह ने संविधान में संशोधन करके सूचना का अधिकार कानून बनाने तथा शासकीय गोपनीयता अधिनियम में संशोधन करने की घोषणा की किन्तु बीपी की सरकार तमाम कोशिसे करने के बावजूद भी इसे लागू नहीं कर सकी और यह सरकार भी ज्यादा दिन तक न टिक सकी, वर्ष 1997 में केन्द्र सरकार ने एच.डी शौरी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करके मई 1997 में सूचना की स्वतंत्रता का प्रारूप प्रस्तुत किया , किन्तु शौरी कमेटी के इस प्रारूप को संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों ने दबाए रखा वर्ष 2002 में संसद ने सूचना की स्वतंत्रता विधेयक ( फ्रिडम ऑफ इन्फा रमेशन बिल ) पारित किया इसे जनवरी 2003 में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली , लेकिन इसकी नियमावली बनाने के नाम पर इसे लागू नहीं किया गया।
 
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ( यू.पी.ए. ) की सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए अपने वायदो पारदर्शिता युक्त शासन व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने के लिए 12 मई 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 संसद में पारित किया , जिसे 15 जून 2005 को राष्ट्रपति की अनुमति मिली और अन्ततः 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून जम्मू - कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू किया गया। इसी के साथ सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 2002 को निरस्त कर दिया गया इस कानून के राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से पूर्व नौ राज्यों ने पहले से लागू कर रखा था, जिनमें तमिलनाडु और गोवा में 1997, कर्नाटक ने 2000 , दिल्ली 2001, असम, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं महाराष्ट्र ने 2002, तथा जम्मू कश्मीर ने 2004 में लागू कर चुके थे
 
बाद के वर्षों में साल 2006 में 'विरप्पा मोइली' की अध्यक्षता में गठित ' द्वितीय प्रशासनिक आयोग ने विवादित शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 कानून को निरस्त करने की सिफारिश कि
 
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 22 में स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि इस अधिनियम को कोई अन्य अधिनियम प्रभावित नहीं करेगा चाहे वह शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 ही क्यों ना हो यह अधिनियम समस्त अधिनियम पर अति प्रभावी होगा।
 
भारत में सूचना का अधिकार अधिनियम 2005, राजस्थान के किसान मजदूरों के लिए अपनी आईएएस की नौकरी निछावर करने वाली समाज सेविका श्रीमती अरुणा रॉय दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल मध्य प्रदेश से सूचना का अधिकार के राष्ट्रीय संयोजक श्री अजय दुबे, महाराष्ट्र से आंदोलन छेड़ने वाले श्री अन्ना हजारे एवं राजस्थान में किसान मजदूरों की लड़ाई लड़ने वाले श्री निखिल डे के महानतम संघर्षों की कहानी है।
 
सूचना का अधिकार अधिनियम को विश्व में लागू हुए आज लगभग 255 वर्ष पूर्ण हो गए हैं एवं भारत में इस अधिनियम को लागू हुए आज 16 वर्ष पूर्ण हो गए हैं एवं इस अधिनियम में 2005 से लेकर अब तक दो बार संशोधन किया जा चुका है पहला संशोधन 2012 एवं द्वितीय संशोधन 2019 में किया जा चुका है।
 
*#भारतीय जनप्रतिनिधियों व लोकसेवकों का अलग है नजरिया इस कानून को लेकर।*
 
भारत में लोक सेवकों, राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा इस कानून को बकवास कहकर बंद करने की मांग उठाई जाती है, जिससे उनकी नीयत की पोल खुल जाती है खुद पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस कानून के दायरे को कम करने और गोपनीयता बढ़ाने की वकालत की है। भारत में इसकी स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि खुद सरकार ही इस कानून को लेकर गम्भीर नज़र नहीं आती है। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि आरटीआई किसी को खाने के लिए नहीं देता। आखिरकार ऐसे ही बयानों से सरकार की असली मशां जग जाहिर हो चुकी है।
 
'आलम यह है। कि सूचना आयुक्तो की नियुक्ति भी निष्पक्षता पूर्वक नहीं की जाती है लगभग पूर्व नौकरशाहों और योग्यताधारी अपने चहेते व्यक्तियों को ही इस कानून का मोहाफिज के रूप में सूचना आयुक्त बनना भ्रष्टाचार और दोहरी नीति का उदाहरण नहीं तो क्या है। भ्रष्टाचार की मुखालफत और पारदर्शिता की हामी भरने शियासी लोग और शियासी दल खुद भी आरटीआई के दायरे मे आने का विरोध कर चुके है। और यदि आरटीआई की जमीनी हकीकत देखे तो सत्ताधारी व विपक्षी दल सभी एक जुट होकर इस कानून के दायरे में न आने के लिये एक मंच पर साथ - साथ नजर आते है।
 
"ओमप्रकाश प्रजापति"- (आरटीआई एक्टिविस्ट बुंदेलखंड मध्य प्रदेश)
 
=अन्य देशों से तुलना=