"चर्यापद": अवतरणों में अंतर

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:;छोइ छोइ जाइ सो बाह्य नाड़िआ।।
 
यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक है कि हिंदू तंत्र की तरह बौद्धतंत्र में भी शरीर के भीतर ही साधक उस अशरीरी को पाने की साधना करते हैं। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को बौद्धतंत्र में क्रमश: ललना, रसना और अवधूती या अवधूतिका कहा गया है। अवधूतोअवधूती ही मध्य मार्ग हैं जिससे होकर अद्वयबोधिचित्त या सहाजनंदसहाजनन्द की प्राप्ति होती है। मूलाधार बौद्धतंत्र का वज्रागार है और सहस्रार के जैसा 64 दलों का उष्णीष कमल है, जिसमें आनंद का आस्वादन होता है।
 
चर्यापदों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के लिये और भी नाम प्रयुक्त हुए हैं, जैसे इड़ा के लिये प्रज्ञा, ललना, वामगा, शून्यता, विंदु, निवृत्ति, ग्राहक, वज्र, कुलिश, आलि (अकारादि स्वरवर्ण), गंगा, चंद्र, रात्रि, प्रण, चमन, ए, भव आदि; पिंगला के लिये उपाय, रसना, दक्षिणगा करुणा, नाद, प्रवृत्ति, ग्राह्य, पद्म, कमल, कालि (काकारादि व्यंजनवर्ण), यमुना, सूर्य दिवा, अपान, धमन, वं, निर्वाण, आदि। चर्यापद के अध्ययन के लिये इनकी जानकारी आवश्यक है।
 
==कुछ चर्यापद==
;१ राग [ पटमञ्जरी ]
:चर्यापद
:लुइपादानाम
 
:काआ तरुबर पञ्च बि डाल।
:चञ्चल चीए पइठो काल॥ ध्रु॥
:दिढ़ करिअ महासुह परिमाण।
:लुइ भणइ गुरु पुच्छिअ जाण॥ ध्रु॥
:सअल समाहिअ काहि करिअइ।
:सुख दुखेतेँ निचित मरिअइ॥ ध्रु॥
:एड़ि एउ छान्दक बान्ध करणक पाटेर आस।
:सुनुपाख भिति लेहु रे पास॥ ध्रु॥
:भणइ लुइ आम्‌हे झाने दिठा।
:धमण चमण बेणि पिण्डि बइठा॥ ध्रु॥
;२ राग गबड़ा
:चर्यापद
:कुक्कुरीपादानाम्
 
:दुलि दुहि पिटा धरण न जाइ।
:रुखेर तेन्तलि कुम्भीरे खाअ॥
:आङ्गन घरपण सुन भो बिआती।
:कानेट चोरे निल अधराती॥ ध्रु॥
:ससुरा निद गेल बहुड़ी जागअ।
:कानेट चोरे निल का गइ [न] मागअ॥ ध्रु॥
:दिबसइ बहुड़ी काड़इ डरे भाअ।
:राति भइले कामरु जाअ॥ ध्रु॥
:अइसन चर्य्या कुक्कुरीपाएँ गाइड़।
:कोड़ि मझेँ एकु हिअहि समाइड़॥ ध्रु॥
 
== संग्रह ग्रंथ ==