"पद्मावत": अवतरणों में अंतर
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:''अनेक वनों और समुद्रों को पार करके वह सिंहल पहुँचा। उसके साथ में वह सुग्गा भी था। सुग्गे के द्वारा उसने पदमावती के पास अपना प्रेमसंदेश भेजा। पदमावती जब उससे मिलने के लिये एक देवालय में आई, उसको देखकर वह मूर्छित हो गया और पदमावती उसको अचेत छोड़कर चली गई। चेत में आने पर रतनसेन बहुत दु:खी हुआ। जाते समय पदमावती ने उसके हृदय पर चंदन से यह लिख दिया था कि उसे वह तब पा सकेगा जब वह सात आकाशों (जैसे ऊँचे) सिंहलगढ़ पर चढ़कर आएगा। अत: उसने सुग्गे के बताए हुए गुप्त मार्ग से सिंहलगढ़ के भीतर प्रवेश किया। राजा को जब यह सूचना मिली तो उसने रतनसेन को शूली देने का आदेश दिया किंतु जब हीरामन से रतनसिंह राजपूत के बारे में उसे यथार्थ तथ्य ज्ञात हुआ, उसने पदमावती का विवाह उसके साथ कर दिया।
रतनसिंह
यहाँ, उसकी सभा में राघव नाम का एक तांत्रिक था, जो असत्य भाषण के कारण रतनसिंह द्वारा निष्कासित होकर तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन की सेवा में जा पहुँचा और जिसने उससे पदमावती के सौंदर्य की बड़ी प्रशंसा की। अलाउद्दीन पदमावती के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुनकर उसको प्राप्त करने के लिये लालायित हो उठा और उसने इसी उद्देश्य से चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। दीर्घ काल तक उसने चित्तौड़ पर घेरा डाल रखा, किंतु कोई सफलता होती उसे न दिखाई पड़ी, इसलिये उसने धोखे से रतनसिंह राजपूत को बंदी करने का उपाय किया। उसने उसके पास संधि का संदेश भेजा, जिसे रतन सिंह
चित्तौड़ में पदमावती अत्यंत दु:खी हुई और अपने पति को मुक्त कराने के लिये वह अपने सामंतों गोरा तथा बादल के घर गई। गोरा बादल ने रतनसिह
जिस समय वह दिल्ली में बंदी था, कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पदमावती के पास एक दूत भेजकर उससे प्रेमप्रस्ताव किया था। रतन सिंह
इस कथा में जायसी ने [[इतिहास]] और [[कल्पना]], लौकिक और अलौकिक का ऐसा सुंदर सम्मिश्रण किया है कि हिंदी साहित्य में दूसरी कथा इन गुणों में "पदमावत" की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी है। प्राय: यह विवाद रहा है कि इसमें कवि ने किसी रूपक को भी निभाने का यत्न किया है। रचना के कुछ संस्करणों में एक छंद भी आता है, जिसमें संपूर्ण कथा को एक आध्यात्मिक रूपक बताया गया है और कहा गया है कि चित्तौड़ मानव का शरीर है, राजा उसका मन है, सिंहल उसका हृदय है, पदमिनी उसकी बुद्धि है, सुग्गा उसका गुरु है, नागमती उसका लौकिक जीवन है, राघव शैतान है और अलाउद्दीन माया है; इस प्रकार कथा का अर्थ समझना चाहिए। किंतु यह छंद रचना की कुछ ही प्रतियों में मिलता है और वे प्रतियाँ भी ऐसी ही हैं जो रचना की पाठपरंपरा में बहुत नीचे आती है। इसके अतिरिक्त यह कुंजी रचना भर में हर जगह काम भी नहीं देती है : उदाहरणार्थ गुरु-चेला-संबंध सुग्गे और रतनसेन में ही नहीं है, वह रचना के भिन्न भिन्न प्रसंगों में रतनसेन-पदमावती, पदमावती-रतनसेन और रतनसेन तथा उसके साथ के उन कुमारों के बीच भी कहा गया है जो उसके साथ सिंहल जाते हैं। वस्तुत: इसी से नहीं, इस प्रकार की किसी कुंजी के द्वारा भी कठिनाई हल नहीं होती है और उसका कारण यही है कि किसी रूपक के निर्वाह का पूरी रचना में यत्न किया ही नहीं गया है। जायसी का अभीष्ट केवल प्रेम का निरूपण करना ज्ञात होता है। वे स्थूल रूप में प्रेम के दो चित्र प्रस्तुत-करते हैं : एक तो वह जो आध्यात्मिक साधन के रूप में आता है, जिसके लिये प्राणों का उत्सर्ग भी हँसते हँसते किया जा सकता है; रतनसेन और पदमावती का प्रेम इसी प्रकार का है : रतनसेन पदमावती को पाने के लिये सिंहलगढ़ में प्रवेश करता है और शूली पर चढ़ने के लिये हँसते हँसते आगे बढ़ता है; पदमावती रतनसेन के शव के साथ हँसते हँसते चितारोहण करती है और अलाउद्दीन जैसे महान सुल्तान की प्रेयसी बनने का लोभ भी अस्वीकार कर देती है। दूसरा प्रेम वह है जो अलाउद्दीन पदमावती से करता है। दूसरे की
== अध्याय योजना ==
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