"मार्टिन लुथर": अवतरणों में अंतर

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== जीवनी ==
लूथर का जन्म जर्मनी के सेक्सनी राज्य के इस्लीडेन नामक गांव में हुआ था। उनके पिता हैंस लूथर खान के मजदूर थे, जिनके परिवार में कुल मिलाकर आठ बच्चे थे और मार्टिन उसकी दूसरी संतान थे। अट्ठारह वर्ष की अवस्था में मार्टिन लूथर एरफुर्ट के नए विश्वविद्यालय में भरती हुए और सन् 1505 मेमें उन्हें एम॰ए॰ की उपाधि मिली। इसके बाद वह अपने पिता के इच्छानुसार विधि (कानून) का अध्ययन कने लगे किंतु एक भयंकर तूफान में अपने जीवन को जोखिम में समझकर उन्होंने संन्यास लेने की मन्नत की। इसके फल्स्वरूप वह सन् 1505 में ही संत अगस्तिन के संन्यासियों के धर्मसंघ के सदस्य बने और 1507 ई. में उन्हें पुरोहित का अभिषेक दिया गया। लूथर के अधिकारी ने उनको अपने संघ का अध्यक्ष बनाने के उद्देश्य से उन्हें विट्टेनबर्ग विश्वविद्यालय भेजा जहाँ लूथर को सन् 1512 ई. में धर्मविज्ञान में डाक्टरेटर की उपाधि मिली। उसी विश्वविद्यालय में वह बाइबिल के प्रोफेसर बने और साथ साथ अपने संघ के प्रांतीय अधिकारी के पद पर भी नियुक्त हुए।
 
लूथर शीघ्र ही अपने व्याख्यानों में निजी आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर बाइबिल की व्याख्या करने लगे। उस समय उनके अंत:करण में गहरी अशांति व्याप्त थी। ईश्वर द्वारा ठहराए हुए नियमों को सहज रूप से पूरा करने में अपने को असमर्थ पाकर वह सिखलाने लगे कि आदिपाप के कारण मनुष्य का स्वभाव पूर्ण रूप से विकृत हो गया था (दे. आदिपाप)। चर्च की परंपरागत शिक्षा यह थी कि बपतिस्मा (ईसाई दीक्षास्नान) द्वारा मनुष्य आदिपाप से मुक्त हो जाता है किंतु लूथर की धारणा थी कि बपतिस्मा संस्कार के बाद भी मनुष्य पापी ही रह जाता है और धार्मिक कार्यों द्वारा कोई भी पुण्य नहीं अर्जित कर सता अत: उसे ईसा पर भरोसा रखना चाहिए। ईसा के प्रति भरोसापूर्ण आत्मसमर्पण के फलस्वरूप पापी मनुष्य, पापी रहते हुए भी, ईश्वर का कृपापात्र बनता है। ये विचार चर्च की शिक्षा के अनुकूल नहीं थे किंतु सन् 1517 ई तक लूथर ने खुलमखुल्ला चर्च के प्रति विद्रोह किया।