"भट्टिकाव्य": अवतरणों में अंतर

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* तिङन्तकाण्डम्
 
रचना का मुख्य उद्देश्य व्याकरण एवं साहित्य के लक्षणों को लक्ष्य द्वारा उपस्थित करने का है। लक्ष्य द्वारा लक्षणों को उपस्थित करने की दृष्टि से यह महाकाव्य चार कांडोंकाण्डों में विभाजित है जिसमें तीन कांडकाण्ड संस्कृत व्याकरण के अनुसार विविध शब्दरूपों को प्रयुक्त कर रचयिता की उद्देश्यसिद्धि करते हैं। मध्य में एक कांड काव्यसौष्ठव के कतिपय अंगों को अभिलक्षित कर रचा गया है। रचना का अनुक्रम इस प्रकार है कि प्रथम कांड व्याकरणानुसारी विविध शब्दरूपों को प्रकीर्ण रूप से संगृहीत करता है। द्वितीय कांड 'अधिकार कांड' है जिसमें पाणिनीय व्याकरण के कतिपय विशिष्ट अधिकारों में प्रदर्शित नियमों के अनुसार शब्दप्रयोग है। तृतीय कांड साहित्यिक विशेषताओं को अभिलक्षित करने की दृष्टि से रचा गया है अतएव इस कांड को महाकवि ने 'प्रसन्नकांड' की संज्ञा दी है। इस कांड में चार अधिकरण हैं : प्रथम अधिकरण में शब्दालंकार एवं अर्थालंकार के लक्ष्य हैं। द्वितीय अधिकरण में माधुर्य गुण के स्वरूप का प्रदर्शन लक्ष्य द्वारा किया गया है, तृतीय अधिकरण में भाविकत्व का स्वरूप प्रदर्शन करते हुए कथानक के प्रसंगानुसार राजनीति के विविध तत्वों एवं उपायों पर प्रकाश डाला गया है। प्रसन्न कांड का चौथा अधिकरण इस महाकाव्य का एक विशेष रूप है। इसमें ऐसे पद्यों की रचना की गई है जिनमें संस्कृत तथा [[प्राकृत]] भाषा का समानांतर समावेश है, वही पद्य संस्कृत में उपनिबद्ध है जिसकी पदावली प्राकृत पद्य का भी यथावत् स्वरूप लिए है और दोनों भाषा में प्रतिपाद्य अर्थ एक ही है। भाषा सम का उदाहरण प्रस्तुत करता हुआ यह अंश भट्टिकाव्य की निजी विशेषता है। अंतिम कांड पुन: संस्कृत व्याकरण के एक जटिल स्वरूप तिङन्त के विविध शब्दरूप को प्रदर्शित करता है। यह कांड सबसे बड़ा है।
 
रचना का अनुक्रम इस प्रकार है कि प्रथम काण्ड व्याकरणानुसारी विविध शब्दरूपों को प्रकीर्ण रूप से संगृहीत करता है। द्वितीय कांड 'अधिकार कांड' है जिसमें पाणिनीय व्याकरण के कतिपय विशिष्ट अधिकारों में प्रदर्शित नियमों के अनुसार शब्दप्रयोग है। तृतीय कांड साहित्यिक विशेषताओं को अभिलक्षित करने की दृष्टि से रचा गया है अतएव इस कांड को महाकवि ने 'प्रसन्नकाण्ड' की संज्ञा दी है। इस कांड में चार अधिकरण हैं : प्रथम अधिकरण में शब्दालंकार एवं अर्थालंकार के लक्ष्य हैं। द्वितीय अधिकरण में माधुर्य गुण के स्वरूप का प्रदर्शन लक्ष्य द्वारा किया गया है, तृतीय अधिकरण में भाविकत्व का स्वरूप प्रदर्शन करते हुए कथानक के प्रसंगानुसार राजनीति के विविध तत्वों एवं उपायों पर प्रकाश डाला गया है। प्रसन्न कांड का चौथा अधिकरण इस महाकाव्य का एक विशेष रूप है। इसमें ऐसे पद्यों की रचना की गई है जिनमें संस्कृत तथा [[प्राकृत]] भाषा का समानांतर समावेश है, वही पद्य संस्कृत में उपनिबद्ध है जिसकी पदावली प्राकृत पद्य का भी यथावत् स्वरूप लिए है और दोनों भाषा में प्रतिपाद्य अर्थ एक ही है। भाषा सम का उदाहरण प्रस्तुत करता हुआ यह अंश भट्टिकाव्य की निजी विशेषता है। अंतिम कांड पुनः संस्कृत व्याकरण के एक जटिल स्वरूप तिङन्त के विविध शब्दरूप को प्रदर्शित करता है। यह काण्ड सबसे बड़ा है।
लक्षणात्मक इन चार कांडों में कथावस्तु के विभाजन की दृष्टि से प्रथम कांड में पहले पाँच सर्ग हैं जिनमें क्रमश: रामजन्म, सीताविवाह, राम का वनगमन एवं सीताहरण तथा राम के द्वारा सीतान्वेषण का उपक्रम वर्णित है। द्वितीय कांड अगले चार सर्गो को व्याप्त करता है जिसमें सुग्रीव का राज्याभिषेक, वानर भटों द्वारा सीता की खोज, लौट आने पर अशोकवाटिका का भंग और मारुति को पकड़कर सभा में उपस्थित किए जाने की कथावस्तु वर्णित है। तीसरे, प्रसन्नकांड में अगले चार सर्ग हैं जिनमें सीता के अभिज्ञान का प्रदर्शन, लंका में प्रभात का वर्णन, विभीषण का राम के पास आगमन तथा सेतुबंध की कथा है। अंतिम, तिङन्त कांड अगले नौ सर्ग ले लेता है जिनमें शरबंध से लगाकर राजा रामचंद्र के अयोध्या लौट आने तक का कथाभाग वर्णित है। चारों कांड और 22 सर्गो में 1625 पद्य हैं, जिनमें प्रथम पद्य मंगलाचरण वस्तुनिर्देशात्मक है तथा अंतिम पद्य काव्योपसंहार का है। 1625 पद्यसंख्या के इस महाकाव्य में अधिकांश प्रयोग अनुष्टुभ श्लोकों का है जिनमें सर्ग छह, नौ तथा 14 वाँ एवं 12 वाँ। दसवें सर्ग में विविध छंदों का प्रयोग किया गया है जिनमें पुप्पिताग्रा प्रमुख है। इनके अतिरिक्त प्रहर्षिणी, मालिनी, औपच्छंदसिक, वंशस्थ, वैतालीय, अश्वललित, नंदन, पृथ्वी, रुचिरा, नर्कुटक, तनुमध्या, त्रोटक, द्रुतविलंबित, प्रमिताक्षरा, प्रहरणकलिका, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीड़ित एवं स्रग्धरा का छुटपुट प्रयोग दिखाई देता है। साहित्य की दृष्टि से भट्टिकाव्य में प्रधानत: ओजोगुण एवं गौड़ी रीति है, तथापि अन्य माधुर्यादि गुणों के एंव वैदर्भी तथा लाटी रीति के निदर्शन भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
 
इन चार कांडों में कथावस्तु के विभाजन की दृष्टि से प्रथम काण्ड में पहले पाँच सर्ग हैं जिनमें क्रमशः रामजन्म, सीताविवाह, राम का वनगमन एवं सीताहरण तथा राम के द्वारा सीतान्वेषण का उपक्रम वर्णित है। द्वितीय कांड अगले चार सर्गो को व्याप्त करता है जिसमें सुग्रीव का राज्याभिषेक, वानर भटों द्वारा सीता की खोज, लौट आने पर अशोकवाटिका का भंग और मारुति को पकड़कर सभा में उपस्थित किए जाने की कथावस्तु वर्णित है। तीसरे, प्रसन्नकाण्ड में अगले चार सर्ग हैं जिनमें सीता के अभिज्ञान का प्रदर्शन, लंका में प्रभात का वर्णन, विभीषण का राम के पास आगमन तथा सेतुबन्ध की कथा है। अंतिम, तिङन्त कांड अगले नौ सर्ग ले लेता है जिनमें शरबंध से लगाकर राजा [[रामचंद्र]] के [[अयोध्या]] लौट आने तक का कथाभाग वर्णित है।
 
चारों कांड और 22 सर्गो में 1625 पद्य हैं, जिनमें प्रथम पद्य [[मंगलाचरण]] वस्तुनिर्देशात्मक है तथा अंतिम पद्य काव्योपसंहार का है। 1625 पद्यसंख्या के इस महाकाव्य में अधिकांश प्रयोग [[अनुष्टुभ]] श्लोकों का है जिनमें सर्ग छह, नौ तथा 14 वाँ एवं 12 वाँ। दसवें सर्ग में विविध छंदों का प्रयोग किया गया है जिनमें पुप्पिताग्रा प्रमुख है। इनके अतिरिक्त प्रहर्षिणी, मालिनी, औपच्छंदसिक, वंशस्थ, वैतालीय, अश्वललित, नंदन, पृथ्वी, रुचिरा, नर्कुटक, तनुमध्या, त्रोटक, द्रुतविलंबित, प्रमिताक्षरा, प्रहरणकलिका, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीड़ित एवं स्रग्धरा का छुटपुट प्रयोग दिखाई देता है। साहित्य की दृष्टि से भट्टिकाव्य में प्रधानतः ओजोगुण एवं गौड़ी रीति है, तथापि अन्य माधुर्यादि गुणों के एंव वैदर्भी तथा लाटी रीति के निदर्शन भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
 
{| class="wikitable"
| colspan="3" align="center"|
 
=== 'शास्त्र-काव्य' के रूप में भट्टिकाव्य ===
|-
! भट्टिकाव्य के काण्ड और श्लोक
! पाणिनि के सूत्र
! विषय
|-
| colspan="3" align="center"|
 
==== प्रकीर्ण काण्ड ====
 
|-
| 1.1-5.96
| n/a
| विविध सूत्र
|-
| colspan="3" align="center"|
 
==== अधिकार काण्ड ====
 
|-
| 5.97-100
| 3.2.17-23
| The affix {{IAST|Ṭa}}
|-
| 5.104-6.4
| 3.1.35-41
| The suffix ām in the periphrastic perfect
|-
| 6.8-10
| 1.4.51
| Double accusatives
|-
| 6.16-34
| 3.1.43-66
| Aorists using sĪC substitutes for the affix CLI
|-
| 6.35-39
| 3.1.78
| The affix ŚnaM for the present tense system of class 7 verbs
|-
| 6.46-67
| 3.1.96-132
| The future passive participles or gerundives and related forms formed from the {{IAST|kṛtya}} affixes tavya, tavyaT, anīyaR, yaT, Kyap, and {{IAST|ṆyaT}}
|-
| 6.71-86
| 3.1.133-150
| Words formed with nirupapada {{IAST|kṛt}} affixes {{IAST|ṆvuL, tṛC, Lyu, ṆinI, aC, Ka, Śa, Ṇa, ṢvuN, thakaN, ṆyuṬ and vuN}}
|-
| 6.87-93
| 3.2.1-15
| Words formed with {{IAST|sopapada kṛt}} affixes {{IAST|aṆ, Ka, ṬaK, aC}}
|-
| 6.94-111
| 3.2.28-50
| Words formed with affixes KHaŚ and KhaC
|-
| 6.112-143
| 3.2.51-116
| Words formed with {{IAST|kṛt}} affixes
|-
| 7.1-25
| 3.2.134-175
| {{IAST|kṛt (tācchīlaka) affixes tṛN, iṣṇuC, Ksnu, Knu, GHinUṆ, vuÑ, yuC, ukaÑ, ṢākaN, inI, luC, KmaraC, GhuraC, KuraC, KvaraP, ūka, ra, u, najIṄ, āru, Kru, KlukaN, varaC and KvIP}}
|-
| 7.28-34
| 3.3.1-21
| {{IAST|niradhikāra kṛt}} affixes
|-
| 7.34-85
| 3.3.18-128
| The affix GhaÑ
|-
| 7.91-107
| 1.2.1-26
| {{IAST|Ṅit-Kit}}
|-
| 8.1-69
| 1.3.12-93
| Ātmanepada (middle voice) affixes
|-
| 8.70-84
| 1.4.24-54
| The use of cases under the adhikāra ‘kārake’
|-
| 8.85-93
| 1.4.83-98
| karmapravacanīya prepositions
|-
| 8.94-130
| 2.3.1-73
| vibhakti, case inflection
|-
| 9.8-11
| 7.2.1-7
| The suffix sIC and {{IAST|vṛddhi}} of the parasmaipada aorist
|-
| 9.12-22
| 7.2.8-30
| The prohibition of {{IAST|iṬ}}
|-
| 9.23-57
| 7.2.35-78
| The use if {{IAST|iṬ}}
|-
| 9.58-66
| 8.3.34-48
| विसर्ग सन्धि
|-
| 9.67-91
| 8.3.55-118
| Retroflexion of s
|-
| 9.92-109
| 8.4.1-39
| Retroflexion of n
|-
| colspan="3" align="center"|
 
==== प्रसन्न काण्ड : अलङ्कार, गुण, रस, प्राकृत ====
 
|-
| 10.1-22
| n/a
| शब्दालङ्कार
|-
| 10.23-75
| n/a
| अर्थालङ्कार
|-
| 11
| n/a
| माधुर्य गुण
|-
| 12
| n/a
| भाविकट्व रस
|-
| 13
| n/a
| भाषासम, प्राकृत और संस्कृत का साथ-साथ उपयोग
|-
| colspan="3" align="center"|
 
==== तिङन्त काण्ड ====
 
|-
| 14
| n/a
| The perfect tense
|-
| 15
| n/a
| The aorist tense
|-
| 16
| n/a
| The simple future
|-
| 17
| n/a
| The imperfect tense
|-
| 18
| n/a
| The present tense
|-
| 19
| n/a
| The optative mood
|-
| 20
| n/a
| The imperative mood
|-
| 21
| n/a
| The conditional mood
|-
| 22
| n/a
| The periphrastic future
|}
 
== रचयिता एवं रचनाकाल ==