"विनोबा भावे": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति 86:
: ‘जब कोई अद्वैतवादी द्वैतवादी से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर ले, तो समझो कि उसने पहले ही हार मान ली है।’ उस समय विनोबा के मन में अवश्य ही शंकराचार्य की छवि रही होगी. उनकी बात भी ठीक थी। जिस अद्वैतमत का प्रतिपादन बारह सौ वर्ष पहले शंकराचार्य मंडनमिश्र को पराजित करके कर चुके थे, उसकी प्रामाणिकता पर पुनः शास्त्रार्थ और वह भी बिना किसी ठोस आधार के. सिर्फ वितंडा के यह और क्या हो सकता है! वहां उपस्थित विद्वानों को विनोबा की बात सही लगी. कुछ साधु विनायक को अपने संघ में शामिल करने को तैयार हो गए। कुछ तो उन्हें अपना गुरु बनाने तक को तैयार थे। पर जो स्वयं भटक रहा हो, जो खुद गुरु की खोज में, नीड़ की तलाश में निकला हो, वह दूसरे को छाया क्या देगा! अपनी जिज्ञासा और असंतोष को लिए विनोबा वहां से आगे बढ़ गए। इस बात से अनजान कि काशी ही उन्हें आगे का रास्ता दिखाएगी और उन्हें उस रास्ते पर ले जाएगी, जिधर जाने के बारे उन्होंने अभी तक सोचा भी नहीं है। मगर जो उनकी वास्तविक मंजिल है।
 
== गांधी से मुलाकात '
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एक ओर विनोबा संन्यास की साध में, सत्यान्वेषण की ललक लिए काशी की गलियों में, घाटों पर भटक रहे थे। वहीं दूसरी ओर एक और जिज्ञासु भारत को जानने, उसके हृदयप्रदेश की धड़कनों को पहचानने, उससे आत्मीयता भरा रिश्ता कायम करने के लिए भारत-भ्रमण पर निकला हुआ हुआ था। वह कुछ ही महीने पहले दक्षिण अफ्रीका से बेशुमार ख्याति बटोरकर लौटा था। आगे उसकी योजना भारतीय राजनीति में दखल देने की थी। उस साधक का नाम था—मोहनदास करमचंद गांधी. अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर वह भारत की आत्मा को जानने के उद्देश्य से एक वर्ष के भारत-भ्रमण पर निकला हुआ था। आगे चलकर भारतीय राजनीति पर छा जाने, करोड़ों भारतीयों के दिल की धड़कन, भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का प्रमुख सूत्रधार, अहिंसक सेनानी बन जाने वाले गांधी उन दिनों अप्रसिद्ध ही थे। ‘महात्मा’ की उपाधि भी उनसे दूर थी। सिर्फ [[दक्षिण अफ्रीका]] में छेडे़ गए आंदोलन की पूंजी ही उनके साथ थी। उसी के कारण वे पूरे भारत में जाने जाते थे। उन दिनों उनका पड़ाव भी काशी ही था। मानो दो महान आत्माओं को मिलवाने के लिए समय अपना जादुई खेल रच रहा था।