"मानव शरीर": अवतरणों में अंतर

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amrutam अमृतम पत्रिका, Gwalior MP
कृष्ण- -मिलनकी विरहजन्य पीडा से अधीर होकर मीरा के मानसिक रोग का चिकित्सक भी तो साँवरिया ही था 'मीरा की मन पीर मिटे जब वैद संवरिया होय।
सूर की इस चेतावनी की अनदेखी कहीं सिर धुननेको विवश न कर दे?
कहा भयो अबके मन सोचे पहिले नाहि कमायो।
 
सूरदास हरिनाम-भजन बिनु सिर धुनि-धुनि पछतायो।
 
गुरु नानकदेव प्रभु-नाम-श्रवण से कष्ट दूर होनेकी घोषणा करते हैं-
सुणिऐ ईसरु बरमा इन्दु । सुणिऐ मुखि सालाहण मन्दु। सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद । सुणिऐ सासत सिम्रिति वेद। नानक भगता सदा विगासु । सुणिऐ दूख पाप का नासु॥ (श्रीजपुजी साहब ९)
 
अर्थात-अगर व्यक्ति नियमित भगवत्-नाम-स्मरण कर रहा है और देहावसान के अन्तिम क्षणों में भगवत्- चिन्तनमें असमर्थ हो जाता है, तब भी भगवान् की असीम अपरिमेय अनुकम्पा देखिये
स्थिरे मनसि सुखस्थे शरीरे सति यो नरः।
 
धातुसाम्ये स्थिते स्मर्ता विश्वरूपं च मां भजन्॥
 
ततस्तं प्रियमाणं तु काष्ठपाषाणसंनिभम्।
 
अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्॥
 
(वराहपुराणका खिलांश)
 
भगवती वसुन्धरा के पूछने पर भगवान् वराह कहते हैं-'जो मेरा भक्त स्वस्थावस्था में निरन्तर मेरा स्मरण करता रहता है, उसे मरते समय जब चेतना नहीं रहती और वह सूखे काष्ठ-पाषाण की भाँति पड़ा रहकर मेरा चिन्तन करने में असमर्थ हो जाता है तो मैं उसका स्मरण करता हूँ और उसे परमगति–मुक्तिकी ओर ले जाता हूँ।'
मानसिक और शारीरिक रोगों से ग्रस्त हो जाने पर नैराश्यपूर्ण भावनाका परित्याग कर आज ही से उस 'आयुष्यमारोग्यकरं कल्पकोट्यघनाशनम्' वैद्यकी शरण ग्रहण कर संसाररूप रोग के लिये सिद्ध औषध का सेवन कीजिये और इहलोक में स्वस्थ रहकर परलोकके लिये पाथेय भी साथ ले जाइये। ये पाथेय हैं दो अक्षर 'हरि'
 
प्राणप्रयाणपाथेयं संसारव्याधिभेषजम्। दुःखक्लेशपरित्राणं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
 
हमारा शरीर ही शिवालय है। मनुष्य ही महामाया का रूप है। इसी काया से आप मोह-माया में पड़ते हो और इसी से महाकाल के दर्शन कर अनेक काल के जन्म-मरण से मुक्त हो सकते हो-
जाने क्या है पुराने आयुर्वेदाचार्यों के विचार…वेदमन्त्र है-
सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम्। सप्ताप: स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ!! (यजु० ३४/५५)
 
भावार्थ है कि 'सातों ऋषि अहर्निश इस शरीर रूपी पवित्र आश्रम का संरक्षण कर रहे हैं।
यह शरीर सप्त सरिताओं, नदियों का पवित्र तीर्थस्थल है, जो जाग्रतावस्था में बाहर जाता है और सुप्तावस्था में वापस आता है। यह शरीर पवित्र यज्ञशाला है, जिसके लिये महादेव दिन-रात सन्नद्ध यानि प्रयासरत हैं।
साथ ही यह शरीर शिवालय व देवालय है, यहाँ सूर्य चक्षुओं यानि आंखों में ज्योति बनकर, वायु छाती में प्राण बनकर, अग्नि मानव मुख में वाणीरूप बनकर तथा उदर में जठराग्नि बनकर एवं तैंतीस देवता अंशरूप में आकर निवास करते हैं।
पञ्चभूतों से एक पुरुषाकृति का निर्माण कर ईश्वर ने उसे क्षुधा-पिपासा से अभिभूत कर दिया, तब इन्द्रियाभिमानी देवताओं ने परमेश्वर भोलेनाथ से कहा कि हमारे योग्य स्थान बतायें, जिसमें बैठकर हम अपने भोज्य-पदार्थ अन्नका भक्षण कर सकें।
 
देवताओं के इस आग्रह पर जल से गौ और अश्व के आकारयुक्त एक पिण्ड बाहर आया। पर देवताओं ने यह कहकर ठुकरा दिया कि यह हमारे आश्रय के अनुरूप नहीं है। अन्त में जब मानव-शरीर आया, तब सभी देव प्रसन्न हो गये। परमेश्वर ने कहा- '
ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति' अपने योग्य आश्रय स्थानों में तुम लोग प्रवेश करो। इस पर
अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा को प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्रं प्राविशन्'। (ऐतरेयोपनिषद् १/२/४ )
अर्थात-अग्नि वाणी होकर मुख में, वायु प्राण होकर नासिका छिद्रमें, सूर्य प्रकाश बनकर नेत्रों में, दिशाएँ श्रोत्रेन्द्रिय बनकर कानों में, औषधियाँ और वनस्पति लोम होकर त्वचा में, चन्द्रमा मन होकर हृदय में, मृत्यु अपान होकर नाभि में और जल देवता वीर्य होकर शिश्नेन्द्रियमें प्रविष्ट हुए।
उपनिषद् का उक्त कथानक मानव-शरीर को देवालय होने की पुष्टि करता है।
सम्भवतः इस कथानक को भौतिकवादी ऐहिक कौशल में कुशल दम्भी-मस्तिष्क एकमात्र कपोल कल्पना ही समझें, पर यह अति परिष्कृत वैज्ञानिक दृष्टिकोण है।
विषयान्तर न हो इसीलिये मात्र एक उदाहरण 'चन्द्रमा मन होकर हृदय में प्रविष्ट हुए हैं' इसी को संक्षेप में विवृत किया जा रहा है-
चन्द्रमाका गर्भ की वृद्धि पर विशेष परिणाम होता है। वैदिक मन्त्रों में भी इसका संकेत मिलता । है।
चन्द्रमा में मातृवृत्ति है। फिर कलावान् तो वे हैं ही, इसलिये सूर्य की ज्ञानमय प्रखर किरणों को पचाकर और उन्हें भावनामय सौम्य रूप देकर माता के हृदय में रहने वाले - कोमल गर्भ तक उस जीवनामृत को पहुँचाने का प्रेम और कुशल कार्य निरन्तर करते रहते हैं। इतना ही नहीं ओषधियों का जो अमृतत्व है, वह सोम से ही प्राप्त होता है। चन्द्रमा को ओषधियों के अधिपति कहे गये हैं।
 
सामान्य रूप से यह मानव-शरीर दो भागों में विभक्त आभ्यन्तर और बाह्य।
'नर तन सम नहिं कवनिउ देही'।
कहे जाने वाले देव-दुर्लभ शरीर की उपेक्षा नि:संदेह अविवेकपूर्ण है, रोगोंका उपचार स्वस्थ जीवन हेतु अनिवार्य है, परंतु केवल बाह्य शरीर के रक्षार्थ किया गया उद्योग एकाङ्गी होगा।
सर्वाङ्गीण परिश्रम ही संस्कृत बुद्धिकी पहचान है। अतः मानसिक रोग का उपचार किये बिना शारीरिक रोग किसी भी कीमत पर दूर नहीं होंगे।
यह अतार्किक सिद्धान्त है कि जगत्-नियन्ता प्रत्येक ' सत्कर्म पर पुरस्कार और दुष्कर्म पर दण्ड देता है तथा मानसिक अशुभ कर्मका दण्ड शरीरको भोगना पड़ता है।
शतशः श्रुतियाँ इस सिद्धान्त को घोषित कर रही हैं कि सृष्टिका मूलतत्त्व रसरूपता 'रसो वै सः' या आनन्द रूपता है।
शास्त्रोंमें आनन्द के दो स्वरूप वर्णित हैं-१-शान्त्यानन्द और २-समृद्ध्यानन्द।
प्रथम का सम्बन्ध अन्तर्मन से है और दूसरे का बाह्य शरीर से। मूल विषय मन का उपचार है।
संत तुकारामने कहा है- 'मन कर प्रसन्न सर्व सिद्धिचे कारण' मनको प्रसन्न रखो वही सब सिद्धियों का मूल है।
सुश्रुतसंहिता भी इस बातका प्रतिपादक है। -
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः। प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः इत्यभिधीयते॥ स्वस्थ (१५ । ४१) पक्षाणामाराग्य मूलमुत्तमम्
त्रिदोषों, त्रयोदश अग्नियों और धातु-प्रक्रिया की समता स्थान आत्मा, इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता स्वास्थ्य का द्योतक है।
मानसिक रोग जो विश्वका संक्रामक रोग बन गया है, सका उपचार ही शारीरिक स्वस्थताकी प्रमुख शर्त है।
मानसिक रोगकी सर्वश्रेष्ठ ओषधि है-भगवन्नाम-स्मरण।
 
श्वेताश्वतरोपनिषद् कहता हैयदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति॥ (६।२०)
अर्थात् यदि मानव (विज्ञान) व्यापक अमूर्त आकाशको चमड़ेकी भाँति लपेटने में भी समर्थ हो जाय (जो असम्भव है) तो भी परमात्मतत्त्वके ज्ञानके बिना उसके कष्टों का अन्त असम्भव है।
मानस-रोगों के वर्णन के पश्चात् गोस्वामीजी कहते हैं'-
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥'
 
अतः 'बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल। बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥ '(रा०च०मा० ७। १२१ (ख), १२२ (क))
शास्त्रीय भाषामें पञ्चभूतात्मक योग-गुणों का अनुभव (भगवन्नाम-जपद्वारा आत्मानुभूति) जिसे हो जाता है, उसे न रोग सताता है, न वृद्धावस्था और न असमय मृत्यु।
पृथ्व्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्।। (श्वेता उप० २।१२) 'गोविन्ददामोदरस्तोत्र' के रचयिता श्रीबिल्वमङ्गलाचार्यजीने त्रयताप-निवारण हेतु (दैहिक, दैविक, भौतिक) वेदवेत्ता -रूपी चिकित्सक की ओर विद्वानोंद्वारा निर्दिष्ट इसी नाम- ध्यान आकृष्ट किया है।
 
आत्यन्तिकव्याधिहरं जनानां
 
चिकित्सकं वेदविदो वदन्ति।
 
संसारतापत्रयनाशबीजं गोविन्द दामोदर हे कृष्ण! हिलते हुए पत्ते की नोक पर अटकी हुई है!
बूंद के समान क्षणभंगुर यह शरीर इसी समय आपके है चरणरूपी पिंजरों में राजहंस की तरह प्रविष्ट हो जाय; क्योंकि मरते समय वात, पित्त और कफद्वारा कण्ठावरोध हो जाने से नाम-स्मरण भी असम्भव हो जायगा!
कृष्ण त्वदीयपदपंकजपञ्जरान्ते अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते॥(प्रपन्नगीता ५३)
 
 
 
 
 
== शरीर के अंग ==
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