"विद्युत उत्पादन": अवतरणों में अंतर

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आर्मेचर चालकों में चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष, आपेक्षिक गति के कारण जनित होनेवाली वोल्टता, वस्तुत: प्रत्यावर्ती प्ररूप की होती है। किसी भी क्षण पर इसका परिमाण चुंबकीय क्षेत्र के चालकों की सापेक्ष स्थिति पर निर्भर करता है। दिष्ट धारा जनित्र के आर्मेचर में भी इसी प्रकार की वोल्टता प्रेरित होती है, पर एक दिक्परिवर्तक (commutator) द्वारा उसे बाहरी परिपथ में अदिष्ट धारा के रूप में प्राप्त किया जाता है। दिक् परिवर्तक आर्मेचर के साथ उसी ईषा (shaft), पर आरोपित होता है और आर्मेचर चालक निश्चित व्यवस्था के अनुसार उसके ताम्र खंडों (copper segments) से योजित होते हैं। धारा के दिक्परिवर्तक से बाहरी परिपथ में ले जाने के लिए बुरुशों (brushes) का प्रावधान होता है, जो साधारणतया कार्बन के होते हैं और बुरुश धारक (brush holder) में लगे होते हैं।
 
==विद्युत उत्पादन की विविध विधियाँ==
[[चित्र:Dreischluchtendamm hauptwall 2006.jpg|right|thumb|300px|जलविद्युत के उत्पादन के लिये बांध बनाकर पानी को उँचाई पर रोककर रखा जाता है और नियंत्रित रूप में जल-टरबाइन से होकर प्रवाहित किया जाता है।
जहाँ तक यांत्रिक शक्ति का प्रश्न है, वह चाहे तो किसी टरबाइन से अथवा इंजन से प्राप्त की जा सकती है, या नदी के बहते हुए पानी से, जिसमें असीम शक्ति का भंडार निहित है। प्रयत्न तो किया जा रहा है कि समुद्र के ज्वार भाटे में निहित ऊर्जा को तथा ज्वालामुखी पर्वतों में छिपी हुई असमी शक्ति के भंडारों को भी काम में लाया जाए। परमाण्वीय शक्ति का उपयोग तो विद्युत् उत्पादन के लिए शीघ्रता से बढ़ रहा है और बहुत से बड़े बड़े परमाण्वीय बिजलीघर बनाए गए हैं, परंतु अभी तक, मुख्यत:, तीन प्रकार के बिजली घर ही सामान्य हैं : पन, भाप एवं डीज़ल इंजन चालित।
 
==विद्युत उत्पादन की विविध विधियाँ==
'''पनबिजलीघर''' ऐसे स्थानों में बनाए जाते हैं जहाँ किसी नदी में सुगमतापूर्वक बाँध बाँधकर पर्याप्त जल एकत्रित किया जा सके और उसे आवश्यकतानुसार ऊँचाई से नलों द्वारा गिराकर जल टरबाइन चलाए जा सकें । ये [[टरबाइन]], विद्युत जनित्रों के प्रधान चालक होते हैं। पर्वतो से बहनेवाली नदियों में असीम जलशक्ति निहित होती है। ऐसे बिजलीघर बनाने के लिए पहले सारे क्षेत्र का सर्वेक्षण किया जाता है और सबसे उपयुक्त ऐसा स्थान खोजा जाता है जहाँ न्यूनतम परिश्रम और लागत से यथासंभव बड़ा बाँध बनाया जा सके। ऐसे बिजलीघरों की लागत बहुत अधिक होती है, पर उनका प्रचालन व्यय (operating cost) बहुत कम होता है। ऐसे बिजलीघरों की स्थापना, मुख्यत:, उपयुक्त स्थान पर निर्भर करती है। यह हो सकता है कि ये बिजलीघर उद्योग स्थल से बहुत दूर हों। ऐसी दशा में बहुत लंबी संचरण लाइनें भी बनानी पड़ सकती हैं। अतएव ऐसे बिजलीघरों के निर्माण का अर्थऔचित्य सिद्ध करने के लिए संचरण दूरी तथा उसकी सज्जा का विचार रखना भी आवश्यक है।
 
'''भाप चालित बिजलीघरों''' में भाप से चलनेवाले टरबाइन होते हैं। भाप इंजनों का उपयोग तो अब व्यावहारिक रूप में पुरानी बात हो गई है। भाप टरबाइन, साधारणतया, उच्च वेग पर चालन करते हैं और संतत प्रचालन के लिए बनाए जाते हैं। अधिकांश टरबाइनों में उच्च दबाव पर भाप प्रयुक्त की जाती है, जिसके लिए उच्च दबाव के वाष्पित्र (boilers) की आवश्यकता होती है। 600 पाउंड प्रति वर्ग इंच का दबाव अब सामान्य हो गया है और आधुनिक टरबाइन तो इससे भी अधिक दबाव पर प्रचालन करने के लिए बनाए जा रहे हैं। टरबाइन भी अब इस क्षेत्र में सफलतापूर्वक प्रयुक्त होने लगे हैं। टरबाइन की रचना में नित्य नए शोध हो रहे हैं जिससे भाप चालित बिजलीघरों की दक्षता और भी अधिक बढ़ाई जा सके।
[[चित्र:Susquehanna steam electric station.jpg|नाभिकीय उर्जा से चलने वाला वाष्पविद्युतगृह]]
 
आजकल '''परमाण्वीय बिजलीघरों''' की स्थापना में अधिक ध्यान दिया जा रहा है। परमाण्वीय बिजलीघर बहुत से देशों में बनाए गए हैं और उनकी बड़ी बड़ी योजनाएँ बनाई जा रही हैं। ब्रिटेन, अमरीका तथा रूस में पिछले 10 वर्षों में बहुत बड़े बड़े परमाण्वीय बिजलीघर बनाए गए हैं और बहुत से बनाए जा रहे हैं। इनका मुख्य लाभ यह है कि ये भार केंद्रो के सन्निकट बनाए जा सकते हैं, जिससे लंबी संचरण लाइनों की आवश्यकता नहीं रहती। इसके अतिरिक्त, ईंधन की मात्रा अत्यंत कम होने के कारण, परिवहन व्यय तथा उसकी समस्या नहीं रहती। परंतु इनका प्रतिष्ठापन व्यय सापेक्षतया अधिक होता है और फिर इनकी प्रचालन प्रणाली अभी तक शोध का विषय है। प्रणालियों में नित्य नए अनुसंधान के कारण इनकी स्थापना का निश्चय बहुत ही विवादास्पद है। जो प्रणाली आज से पाँच साल पहले अपनाई जाती थी, वह अब गई बीती बात हो चुकी है। दूसरे, इन्हें केवल बड़े रूप में बनाना ही आर्थिक तथा प्राविधिक रूप से उचित हो सकता है। उत्पादित की गई सारी शक्ति का उपयोग उसी स्थल पर हो जाना साधारणतया संभव नहीं होता। यह अवश्य महत्वपूर्ण है कि शक्ति के दूसरे स्रोत निरंतर समाप्त होते जा रहे हैं, अथवा कहा जा सकता है कि उनमें से अधिकांश अंतत: समाप्त होने को हैं। अनुमान के अनुसार यदि संसार में कोयले की खपत इसी प्रकार होती रही, तो वर्तमान कोयले की खानें संसार को अधिकतम 200 वर्ष तक कोयला देती रह सकती हैं। इसी प्रकार तेल की उत्पत्ति के विषय में भी कहा जा सकता है। जलविद्युत् भंडार अवय ही समाप्त होनेवाला नहीं है, परंतु ये भंडार सामान्यत: उपयोग स्थलों से बहुत दूर हैं। उदाहरणत:, ब्रह्मपुत्र नदी के जल में, भारत की सीमा में प्रवेश करने के स्थल पर, लगभग 35 लाख किवा. शक्ति की क्षमता है। पर प्रथम तो वहाँ बिजलीघर की स्थापना करना इतना सुगम नहीं, और दूसरे यह स्थान उपयोग स्थलों से लगभग 500 मील दूर है। भारत में लगभग 40व्109 टन कोयला होने का अनुमान है और जलविद्युत् शक्ति, जिसका उपलब्ध होना संभव है, लगभग 40व्106 किवा. है। ये आँकड़े काफी आशापद प्रतीत होते हैं, परंतु यदि हमारा स्तर भी अमरीका तथा दूसरे गतिशील देशों के समान हो और प्रति मनुष्य उतन ही विद्युत् की खपत हो, तो इतनी शक्ति भी हमारे लिए बहुत अपर्याप्त होगी। ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि परमाण्वीय शक्ति का उपयोग किया जाए।
 
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[[ar:توليد الكهرباء]]
[[de:Stromerzeugung]]
[[hi:Electricity generation]]
[[es:Generación de energía eléctrica]]
[[fa:تولید انرژی الکتریکی]]