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[[छांदोग्य उपनिषद|छान्दोग्योपनिषद्]] में ऋषियों ने गाया है -
 
: ''ॐ इत्येतत्इत्येत् अक्षरः (अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।)
 
ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली। कोशीतकी ऋषि निस्संतान थे, संतान प्राप्तिके लिए उन्होंने सूर्यका ध्यान कर ॐ का जाप किया तो उन्हे पुत्र प्राप्ति हो गई।
 
'''गोपथ ब्राह्मण''' ग्रन्थ में उल्लेख है कि जो "कुश" के आसन पर पूर्वदक्षिण की ओर [[मुँह|मुख]] कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
 
: ''सिद्धयन्ति अस्य अर्थाः सर्वकर्माणि च
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[[तैत्तिरीयोपनिषद]] शिक्षावल्ली अष्टमोऽनुवाकः में '''ॐ''' के विषय में कहा गया हैः-
 
:''ओमितिओम ईति ब्रह्म । ओमितीदँसर्वम् । ओमित्येतदनुकृतिर्हस्मओमित्येदनुकृतिर्हस्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्तिश्रावयेत्श्रावयन्ति । ओमिति सामानिसमानि गायन्ति ।
 
:''ओँशोमिति शस्त्राणि शँसन्ति । ओमित्यध्वर्युःओमित्ध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणातिप्रतिगृणति । ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । ओमित्यग्निहोत्रमनुजानातिओमित्यग्होत्रमनुजानाति
 
:''ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाहप्रक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीतिब्रह्मोपप्नवानीति ब्रह्मैवोपाप्नोति ॥ १ ॥
 
अर्थातः- ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत् है। ॐ ही इसकी (जगत की) अनुकृति है। हे आचार्य! ॐ के विषय में और भी सुनाएँ। आचार्य सुनाते हैं। ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक सामगान करते हैं। ॐ-ॐ कहते हुए ही शस्त्र रूप मन्त्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मन्त्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ किया जाता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है। ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।
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अर्थातः- साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा आन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विद्वजन जानते हैं। तथा उस ओंंकाररूप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान् उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है।
 
:''प्रणवो धनुः शरो ह्यात्माआत्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।तल्क्ष्यमुच्यते।
 
:''अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयोशवत्तन्मयो भवेत॥ -- ( [[मुण्डकोपनिषद्]], मुनण्डक २, खण्ड २, श्लोक-४)
 
अर्थातः- प्रणव धनुषहै, (सोपाधिक) आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।। ४।।
 
: ''ओमित्येतदक्षरमिदंसर्वओमित्येदक्षरमिदंसर्व तस्योपव्याख्यानं भूत,
 
:''भवभ्दविष्यदितिभवभ्दविष्दिति सर्वमोंंकार एव।
 
:''यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव॥ १॥ -- ([[माण्डूक्योपनिषद]], गौ० का० श्लोक १)
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"ॐ" ब्रह्माण्ड का नाद है एवं मनुष्य के अन्तर में स्थित ईश्वर का प्रतीक।
 
परंतु प्रणव के जाप में यह सावधानी रखना चाहिए कि जिन साधकों का गुरूपरंपरागत विधिवत शास्त्रसम्मत यज्ञोपवीत संस्कार नही हुआ हो उनको , जैसे की किसी ब्राह्मण कुल में कई पीढ़ियों से उपनयन संस्कार नही होने से उनको भी प्रणव के उच्चारण का अधिकार नहीं रह जाता , तो फिर स्त्री ,शुद्र , अंत्यज और म्लेच्छ ( जो की सनातन धर्म में आस्था नही रखते) वर्णो को इसका अधिकार कैसे प्राप्त हो सकता है ?
साधक के लिए एक और बात यह भी है की वे मन कर्म वचन से पवित्र हो , छल कपट और ईर्ष्या नही करे।
 
==लिखित अभ्यावेदन==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/ॐ" से प्राप्त