"काम": अवतरणों में अंतर

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कामवासना के बारे में काम की बातें। कामदेव शिवभक्त थे। महादेव ने ही सृष्टि संचालन के लिए कामवासना का आविष्कार किया था।
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Amrutam अमृतम पत्रिका, से साभार।
 
काम यानि सेक्स के बारे में मर्दों के मन में क्या सोच है?...
 
कामवासना को दुनिया में गन्दा क्यों समझा जाता है?..
 
क्या काम भी पूजा है?
 
काम के देवता काम देव हैं, तो काम की देवी किसे कहते हैं?..
 
कामदेव का वध किसने किया था?..
 
कामदेव कौन थे?..
 
कामदेव किसके परम् भक्त थे।
 
काम बारे में 101 बातें जानकार हतप्रद हो जाएंगे।
कामदेव की पत्नी का नाम रति है। इन्हें ही काम की देवी का सम्मान प्राप्त है।
केदार ने किया चमत्कार…..जब भगवान शिव ने केदारनाथ ज्योतिर्लिंग पर कामदेव को भस्म किया, तो देवी रति ने महादेव से वचन लिया कि हम भी अपने पति के साथ रहें, यो शिवजी ने एक कुंड का निर्माण कर दोनों को एक ही स्थान पर रहने का वरदासन दिया।
केदारनाथ से पूर्व कुछ ही दूरी पर यह रति कुंड असज भी मौजूद है। इस कुंड के समीप ॐ नमःशिवाय मन्त्र 3 बार बोलने से जल में तेजी से बुलबुले उठते हैं और जिन लोगों का विवाह नहीं हो रहा हो, तो वहां 2 दीपक जलाकर प्रार्थना करने से 11 माह में निश्चित विवाह हो जाता है। यह आजमाया हुआ सत्य है।
ऐसे ही मन्दिर से 200 मीटर पहले उल्टे हाथ की तरफ एक उदक कुंड है। इस कुंड में बाबा केदार के रुद्राभिषेक का जल एकत्रित होता है।
जब भी केदारनाथ जाएं, तो इस उदक कुंड का पवित्र जल अपने घर में भरकर जरूर लाएं और अपने मकान में रोज इस जल का छिड़काव करें, तो घर की सभी आपदाएं, वास्तुदोष, पितृदोष, कालसर्प दोष, ग्रह दोष, मानसिक विकार, रोग, बीमारी का क्षय होने लगता है।
धन की चाहत हो, तो केदारनाथ से करीब एक किलोमीटर उपर बर्फीली पहाड़ियों पर चढ़कर ब्रह्मकमल जाकर यहां ब्रह्म कमल पुष्प के दर्शन कर रतिकुण्ड पर अर्पित करें, तो काम और काम धंधे की समस्या से छुटकारा मिलता है।
इस रतिकुण्ड के समक्ष कम से 12 बार या 108 बार इस मंत्र का जप कर चमत्कारी परिणाम प्राप्त करें
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
 
अब काम की चर्चा करना भी जरूरी है, ताकि नई पीढ़ी के दिमाग से कम को लेकर गन्दगी का पटाक्षेप हो सके।
काम अनेक अर्थों को समेट हुआ है। सहवास, सम्भोग, रतिक्रिया, कामवासना, सेक्स आदि बहुत से नामों से दुनिया काम को जानती है।
काम (सेक्स) की तृप्ति के बाद ही ही कोई राम-श्याम का नाम लेता है।
श्रीमद भागवत के श्लोकानुसार
 
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
 
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ॥
 
अर्थात मैं बलवानों का कामना और आसक्ति से रहित बल हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम हूँ।
 
एक महिला होने के नाते काम को ईश्वर प्रदत्त वरदान मानती हूं।
किसान भी धरती में बीज बोता है यह काम की प्रक्रिया का ही एक अंग है।
वर्तमान में मीडिया ने काम को अत्यंत घिनोना, गन्दा रुपित कर दिया। काम भी कर्म की तरह ही एक पूजा है।
काम से सृष्टि का संतुलन बना हुआ है। कुछ लोगों को लगेगा कि में एक स्त्री होने के कारण काम पर कैसे लिख सकती हूं।
इस लेख में काम की उन जिज्ञासा का पटाक्षेप करूँगी, जिससे पाठक अनभिज्ञ हैं।
काम को जाने बिना जीवन में कोई काम नहीं बनता। काम बहुत बड़ा आराम है।
काम की वजह से ही पुरुष साम-दाम, दण्ड-भेद की नीति अपना परिवार को पालता-पोसता है।
काम के लालच में ही मर्द घर से निकलकर दाम कमाकर लाता है।
काम के कारण सुबह-शाम का महत्व है।
काम से ही थकान मिटकर, मन शांत होता है। तन को राहत काम के बाद ही मिलती है।
सब दुकान काम के चलते ही चल रही हैं।
काम ही है जिस कारण पत्नी पति के कान पकड़कर रखती है।
काम भटकाव से बचाता है।
स्त्रियों के सौंदर्य की वजह काम है। महिलाओं के मन की मलिनता काम (सेक्स)से ही मिटती है।
क्या नहीं है काम….काम परमात्मा का स्वभाव है। भगवान हृदय में बसते हैं तो काम मन में। भगवान तटस्थ है लेकिन कामदेव मथता है-मन्मथ है।
काम के हटते ही जीवन का क्षय अर्थात अंत है। काम की स्थिति, विस्तार, संकोच, प्रयोग ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की शक्ति है। संतान उत्पत्ति काम से ही संभव है।
नारी में काम यानि विवाह बाद होशियारी आती है।
काम की वजह से एक साधारण स्त्री बहुत अच्छी मिस्त्री बनकर घर को स्वर्ग बना देती है।
औरत में खूबसूरती, सुंदरता, तीखे नयन, उठे उरोज, मतवाली चाल, लचक सब काम की ही देन है।
काम का नाम आते ही सबका दिमाग कर्म या सेक्स पीआर जाता है। काम के बारे में गलत धारणाओं से मुक्त करेगा यह लेख....
कामदेव कोई सामान्य देवता नहीं, बल्कि असामान्य देवता है। जहां भगवान् हृदय में रहते हैं, वहां कामदेव मन में रहता है।
काम धर्म भी है और अधर्म भी। अगर काम नहीं होता, तो संसार में कोई भी किसी चीज का इंतजाम नहीं करता। काम के कारण ही आदमी इंतजाम की आग में झुलझ जाता है।
कहा जाता है कि कामदेव के पानी में बड़ा आकर्षण है।काम को चार पुरुषार्थों में सम्मान प्राप्त है।
काम अर्थात सेक्स, सम्भोग स्वस्थ्य जीवन के लिए जरूरी है। जब तक काम का तमाम नहीं होता, तब तक तन _ मन काम नहीं करता।
दुनिया के सारे ताम झाम काम के लिए ही किए जाते हैं। बिना काम के आगे वंश का नाम नहीं चलता।
राजसिक काम विषय, वासना और इंद्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा से किया जाने वाला काम है।
काम का बुरा अंजाम...इस प्रकार का काम भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है, किंतु परिणाम दुखकारी होता है।
तामसिक काम में मनुष्य मोहपाश में बंधा होता है, वह न तो वर्तमान का और न ही भविष्य का कोई विचार करता है।
आलस्य, निद्रा और प्रमाद इस काम के जनक कहे गए हैं। इस तरह का काम न तो भोगते समय सुख देता है और न ही इसका परिणाम सुखकारी होता है।
इन तीनों कामों में सात्विक काम श्रेष्ठ है, जो भोगते समय विषकारी प्रतीत हो सकता है, लेकिन परिणाम सदैव आनंददायी और मुक्तिकारक होता है।
अन्य काम बंधन बनते हैं। धर्मशास्त्र कहते हैं कि यौन संबंधी इच्छाओं की तृप्ति जीवन का एक सहज, स्वाभाविक या मूल प्रवृत्यात्मक अंग है। इसकी संतुष्टि के लिए विवाह का विधान है।
गीता में इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है।
गीता के दूसरे अध्याय के 62वें और 63वें श्लोक में कहा गया है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की इन विषयों के साथ आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से काम पैदा होता है और काम की तृप्ति न होने से क्रोध पैदा होता है।
क्रोध से मोह पैदा होता है, मोह से स्मृति-भंग, अविवेक पैदा होता है।
अविवेक से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नष्ट हो जाने से मनुष्य नष्ट हो जाता है अर्थात् काम यानि सेक्स की सोच में डूबा पुरुष पुरुषार्थ के योग्य नहीं रहता।
वेदांत में स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण इन तीन देहों की मान्यता है। इनके अतिरिक्त प्रत्येक हृदय में ईश्वर का निवास है। मनुष्य की प्रत्येक इंद्रिय के अलग-अलग देवता हैं।
हमारे हरेक अंग के देवता निर्धारित हैं....ईश्वरोउपनिषद, पुराण परंपरा के हिसाब से
आंख के देवता सूर्य हैं, मन के चंद्रमा, कान के दिशा, त्वचा के वायु, जिह्वा के वरुण, नासिका के अश्विनीकुमार, वाणी के अग्नि, पैर के यज्ञ-विष्णु, हाथ के इंद्र, गुदा के मित्र, यम और उपस्थ यानि गुदा के प्रजापति।
उपनिषदों के अनुसार ये देवता इंद्रिय-झरोखों पर बैठे रहते हैं, और विषयों अर्थात कामवासना की वायु आती देखकर उन झरोखों के कपाट खोल देते हैं।
मानव देह में सबसे महत्त्वपूर्ण है— अनिर्वच काम का निवास। काम को अग्रजन्मा कहा गया है। वह सभी. देवों-देहों से पहले उत्पन्न है।
संपूर्ण उत्पत्ति का मूल काम ही है। काम परमात्मा का स्वभाव, किंतु परमात्मेतर का बीज, तेज, रस, प्रभा, पौरुष, संकल्प, संचालक, संवर्धक और संस्थापक है।
कहते हैं कि काम नहीं तो कुछ नहीं। काम के हटते ही जीवन अन्त है, क्षय है।
संपूर्ण जीव-जीवन, प्राणी-प्राण, प्रकृति, काम के खंभे पर आश्रित हैं। फिर भी ऊपर के देवों में कामदेव का न होना आश्चर्य नहीं है।
कामदेव कोई सामान्य देवता नहीं, बल्कि असामान्य देवता है। जहां भगवान् हृदय में रहते हैं, वहां कामदेव मन में रहता है।
मन में रहनेवाला कामदेव मन को मथता रहता है । इसलिए वह मन्मथ है। सक्रिय रहना सक्रिय करना मन्मथ की विशेषता है।
अक्रिय या निष्क्रिय व आलसी किसी को सक्रिय और उत्साही नहीं बना सकता है।
हृदय में रहनेवाले भगवान् तटस्थ हैं। भगवान की माया सबको यंत्रवत घुमाती है, तो कामदेव सबको मथता है।
जलज प्रतीक है.... मथना और घुमाना ये दो अलग अलग हैं। मथने से मही या मट्ठा बनताहै। संपूर्ण सृष्टि मन्मथ की मंथन-क्रिया की मही है।
दही, उदधि की मही। काम शब्द का मूल कम् अर्थात जल है। कामदेव में जल है। नारायण भी जल है।
नर-नारी के जल से ही तो सृष्टि हैं। सृष्टि के करण, कारण हैं । लय, प्रलय का अर्थ है-जल होना।
अन्त काल के समय प्रलय में केवल जल ही शेष रहता है। नारायण में जल, काम में जल। अतः जलज संपूर्ण सभ्यता, संस्कृति और सौंदर्य का प्रतीक है।
हाथ, पैर, मुख, आंखें सब कमल से उपमित हैं। इतने अंगों का उपमान बनने का भाग्य और किस पुष्प को है ?
कामदेव के बाणों में कमल दो बार आता है। अरविंद और नील-उत्पल संभव है दोनों में प्रकार भेद हों।
भगवान् और लक्ष्मी के हाथ में भी कमल है । सरस्वती तो कमलासना हैं ही । ब्रह्मा की उत्पत्ति ही कमल से है। महालक्ष्मी भी कमला हैं।
प्रत्येक सुंदर स्त्री के हाथ में कमल है। लीला कमल। कालिदास कब चूकनेवाले थे । उनकी अलकापुरी की सभी स्त्रियां हाथ में लीला कमल और बालों में ताजे कुंद पुष्प रखती हैं।
कामदेव मीन केतन हैं अर्थात्, उसके झंडे में मछली का चिह्न है। काम सबको पानीवाला बनाये रहता है। सभी काम जल में हैं । पानी गया कि मछली गयी।पानी बिना सब सून!!!!
कामदेव का पानी ही जीवन है... काम ने अपना पानी हटा लिया। अपने को हटा लिया। सब शून्य। सब व्यर्थ। अब जीवन होकर भी जीवन नहीं है। पत्थर भी तो पानी है।
पानी यानि वीर्य से ही वीरता है... जड़-जमा पानी, काम-हीन जड़-जीवन होता है। पानी वाला काम प्रत्येक देह को तरोताजा, स्फूर्त और सक्रिय बनाए रखता है। काम-हीन मतलब सहवास या सेक्स रहित जीवन मात्र बर्फ खंड है।
आकर्षण वीर्य भरे पानी का...
कामदेव के पानी में बड़ा आकर्षण है। पानी-पानी से मिलना चाहता है। मिलकर द्रव होकर समुद्र बनना चाहता है।
बालक का यौवन पीआर पग रखते ही मुख पर गुलाबी प्रसन्नता, युवा त्वचा की मृदुता, आंखों का प्रकाश एवं इंद्रियों का खिंचाव सब में कामदेव की प्रेरणा है।
कामदेव ही मनुष्य के अंगों को प्रकाशित रखता है। उसके हटते ही प्रकाश बुझ जाता है।
ट्यूब-लाइट मुरदा बन जाती है। कामदेव दुहरा कार्य करता है। काम या सेक्स अधिक हो जाए तो शरीर जलने लगता है। घट जाए तो शरीर ठंडा हो जाता है। ठीक बिजली की भांति — अधिक वोल्टेज में फ्यूज, लो बोल्टेज में जलेगा ही नहीं।
जब हो जाता है- काम का तमाम....
किसी वृद्ध को देखिए.... वीर्य सूखने के बाद काम ने मरने के लिए इन्हें छोड़ दिया है। अतः ये बुझ गये हैं।
मुरदे को देखिए। मार (काम) के अभाव में मर गये हैं।
वृदध में आकर्षण नहीं, विकर्षण है। उत्साह नहीं आलस्य है। जोड़-जोड़ में पीड़ा है। काम के अभाव की पीड़ा है। काम SEX मनुष्य की चौथी देह है।
देव की विरहिणी नायिका में काम बहुत बढ़ गया। फलतः स्थूल शरीर के पांचों महाभूत चले गये। तीव्र काम ने सबको नष्ट कर दिया।
केवल आकाश में काम का वश नहीं है..
पानी तत्व आंसुओं में बह गया। तेज (अग्नि) गुण और पृथ्वी तत्व शरीर को दुर्बल बना गये।
श्वासों द्वारा वायु तत्व लुप्त हो गया। केवल आकाश रह गया है। इस आकाश पर संभवतः काम का वश नहीं है। क्योंकि काम आकाश नहीं, धरती का देवता है। । उसे धरती धारण करती है। धरती उसके द्वारा धृत है। उसकी धारिणी है।
भारत के धर्मशास्त्र कभी-कभी अपनी बात काफी गूढ़ता से कहते हैं। नाग का एक नाम भोग है। नाग, शेषनाग भोग हैं। पाताल में रहते हैं। संपूर्ण पृथ्वी को सिर पर उठाये हैं। संपूर्ण पृथ्वी भोग, नाग, काम पर टिकी है
पाताल को भोगपुरी कहते हैं। काम, भोग या नाग, शेषनाग राम, कृष्ण के छोटे बड़े भाई हैं।
विष्णु शेष नाग की शैय्या पर सोते हैं।
शिव की अदभुत लीला...शिव महानाग वासुकी को गले में लपेटे हैं। काम को जलानेवाला भी काम को गले से लगाये हैं। जला काम और भी दृढ़ता से गला पकड़ लेता है। काम से छुटकारा नहीं। चौथी देह है न काम...
अविनाशी है काम....तीसरी देह, कारण देह पुनर्जन्म, स्वभाव, आचरण, भाग्य, भाव-सी है। स्थूल, सूक्ष्म शरीर बदलते हैं।
जैसे, पुराने वस्त्र छोड़े जाते हैं। नव वस्त्र धारण किये जाते हैं। स्थूल देह वस्त्र है। आवरण है। नया पुराना होता रहता है। किंतु, कारण शरीर एक है। एक रहता है।
अनेक साधनाओं द्वारा उसे मिटाकर पुनर्जन्म, आवागमन मिटाने का प्रावधान है। किंतु, चौथी देह – काम- देह कब नष्ट होती है ? कभी नहीं । वह तीसरे शरीर के समान संस्कार बन जाती है।
तीसरी देह का संस्कार काम-संस्कार है। कामाशय है। काम ही आत्मा है।
आत्मा - के समान काम भी अविनाशी है। किंतु यह आत्मा के समान निष्क्रिय नहीं है। जीव का जीवन है काम! शरीर के बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्धत्व में इसी कामदेव, चौथी देह की भूमिका है।
भगवश्रीन कृष्ण ने अपने को धर्म अविरोधी काम कहा है। श्रीकृष्ण स्वयं में काम हैं। उनके पुत्र प्रद्युम्न काम देव का अवतार हैं।
प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध काम हैं। कृष्ण के भाई बलराम काम हैं। गोपियों में भी काम। काम ही काम को आकर्षित करता है। काम ही अपनी क्रीड़ा, खेल के लिए जीव को स्त्री-पुरुष मे विभक्त करता है।
श्रीकृष्ण के बारे में कहा गया है। ब्रज-सुंदरियां, गोपियां श्रीकृष्ण का ही प्रतिबिंब हैं।
जैसे, बालक अपने प्रतिबिंब से खेलता है। वैसे ही श्रीकृष्ण ने ब्रज-सुंदरियों के साथ क्रीड़ा की। प्रत्येक स्त्री पुरुष का दूसरा रूप है। दोनों में काम है।
कामाकर्षण ही उन्हें आकर्षित करता है ! जोड़ता है। सृष्टि की प्रेरणा देता है। काम के बिना सब बेकाम हैं।
देवताओं का ज्ञान...पार्वती को समझाया गया कि शिव को त्यागो, छोड़ो। शिव ने काम को जला दिया है। पार्वती हंसी!...अरे भाई, शिव ने काम को आज नहीं, बहुत पहले जला दिया था।
प्रत्येक योगी, अघोरी या अवधूत योगाग्नि में काम जलाता है। किंतु, सोना जलाना सोने को नष्ट नहीं शुद्ध करना है। जला हुआ काम ही शक्ति_महाशक्ति बन जाता है। दिन-रात प्रवहमान काम पुंसत्वहीन है।
मां पार्वती तपस्या में लग गयीं। शिव के जले काम को अपने तपस्वी काम का अमृत छिड़ककर जीवित कर दिया।
भ्रम मिटाएं। काम नहीं, कामवाना हटाएं... काम कभी नष्ट नहीं होता है। संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता है। कुछ भी नया नहीं होता है। रूप परिवर्तन ही नया, पुराना है।
मां पार्वती की तपस्या पूर्ण हो गयी है। शिव स्वयं उपस्थित हैं।
विश्वविजयी देवसेनापति कार्तिकेय की उत्पत्ति हुई। श्रेष्ठ संतान के लिए श्रेष्ठ (जले) काम की आवश्यकता है।
काम के भभूत से मान पार्वती संतुष्ट हो गयीं। षड्वदन गजानन उत्पन्न हो गये।
काम के बाद मोक्ष....भारत में पुरुषार्थ का बड़ा महत्त्व है। काम भी पुरुषार्थ है। यह पुरुषार्थ धर्म और अर्थ की पीठ पर खड़ा है।
काम के बाद कुछ नहीं और अर्थ का उद्देश्य काम है। किंतु, काम उद्देश्य ? मोक्ष अर्थात्, काम सृष्टि और से मुक्ति दोनों का देवता है।
काम से ऋण मुक्ति....पितृ ऋण अनिवार्य है। इसे चुकाना होगा । काम का उपयोग केवल ऋण चुकाने के लिए होना चाहिए। शिव ने काम को जलाकर अतन बना दिया। भाई काम, तुम सभी तनों में रहो।
अब तुम हर शरीर में सोओ। बालक अधिक सोता है। युवा उससे कम सोता है। उसे काम के लिए जगना पड़ता है। किंतु, वृद्ध को नींद मुश्किल से आती है क्योंकि, देह को कामदेव ने त्याग दिया है।
कामदेव अनंग है। अनंग का अर्थ अंग-रहित होना ही नहीं है। अनंग, जो किसी एक अंग में केवल अंगों में ही नहीं रहता है।
अंगों के बाहर बसंत की हवा में, कोकिल की ध्वनि में, फूलों के रूप, रस, गंध में, सावन के अंधेरे में, कार्तिक की ऊर्जा, अनेक रूप, रंग की औषधियों तथा वस्त्र, बिस्तरों में भी रहता है।
कहीं आधा, कहीं और कम, कहीं भरपूर रहता है। ईश्वर की युगल-मूर्तियों मे भी आधा-आधा काम रहता है।
जीवों के देवता और ईश्वर में काम है। काम ही जीव को जड़ से अलग करता है।
काम की स्थिति, विस्तार, संकोच, प्रयोग ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की शक्ति है। क्योंकि, यह चौथा शक्ति है, चौथी देह है। जीवों के द्वारा- यह चौथी देह छूट नहीं सकती।
काम को जागृत केसे रखें....काम की ताकत कामवासना, सेक्स की शक्ति बनी रहने से ही पुरुष काम का रहता है। सन्तुष्टि दायक रतिक्रिया करने के बाद तथा गाढ़े वीर्य दान से ही नारी की नजर में मर्द के प्रति सम्मान बढ़ता है।
आयुर्वेद में कुछ खास दवाएं काम को जागृत करती हैं, जिन्हें बाजीकरण योग कहा जाता है।
 
अगर किसी को कामवासना वृद्धि हेतु उत्कृष्ट ओषधि की कामना हो, तो कमेंट्स बॉक्स पर पूछ लेवें। आपको नेक ओर सही सलाह देने का प्रयास करूँगी।
आयुर्वेद की इन दवाओं व योगों के उपयोग से आप निराश नहीं होंगे।
स्मरण रखें काम वृद्धि हेतु शुद्ध आयुर्वेदिक ओषधियाँ 3 से 6 महीने या हमेशास सेवन करना हितकारी रहता है और मर्द भी लम्बी आयु तक काम का बना रह सकता है।
 
[[File:Simone_Martini_003.jpg|thumb|St. [[Augustine]] explored and used the term "concupiscence" to refer to sinful lust.]]
{{Thomism}}
'''Concupiscence''' (from [[Late Latin]] noun ''concupiscentia'', from the Latin verb ''[[wikt:concupiscent|concupiscence]]'', from ''con-'', "with", here an intensifier, + ''cupi(d)-'', "desiring" + ''-escere'', a verb-forming suffix denoting beginning of a process or state) is an ardent, usually sensual, longing.<ref>{{cite web|url=http://dictionary.reference.com/search?q=Concupiscence&x=0&y=0|title=Concupiscence – Define Concupiscence at Dictionary.com|work=Dictionary.com|access-date=27 October 2014}}</ref> In [[Christianity]], particularly in Roman Catholic and Lutheran theology, concupiscence is the tendency of humans to sin.<ref name="Malloy2005">{{cite book |last1=Malloy |first1=Christopher J. |title=Engrafted Into Christ: A Critique of the Joint Declaration |date=2005 |publisher=Peter Lang |isbn=978-0-8204-7408-3 |page=279 |language=English |quote=The Annex offers the following description of the Catholic notion of voluntary sin: "Sin has a personal character and as such leads to separation from God. It is the selfish desire of the old person and the lack of trust and love toward God." The Annex also offers the following as a Lutheran position: ''Concupiscence'' is understood as the self-seeking desire of the human being, which in light of the law, spiritually understood, is regarded as sin." A comparison of the two descriptions, one of sin and one of concupiscence, shows little if any difference. The Catholic definition of voluntary sin includes the following elements: selfish desire and lack of love. Those of the Lutheran conception of concupiscence are selfish desire, lack of love, and repeated idolatry—a sin which, as stated in the JD, requires daily ''forgiveness'' (JD, 29). The Catholic definition of sin appears quite similar to the Lutheran definition of concupiscence.}}</ref><ref name="Coleman2007">{{cite book |last1=Coleman |first1=D. |title=Drama and the Sacraments in Sixteenth-Century England: Indelible Characters |date=11 October 2007 |publisher=Springer |isbn=978-0-230-58964-3 |page=84 |language=English |quote=Trent defines concupiscence as follows: Concupiscence or a tendency to sin remains [after baptism, but] the catholic church has never understood it to be called sin in the sense of being truly and properly such in those who have been regenerated, but in the sense that it is a result of sin and inclines to sin (667*).}}</ref>
 
There are nine occurrences of ''concupiscence'' in the [[Douay-Rheims Bible]]<ref>[[Book of Wisdom|Wisdom]] 4:12, [[Epistle to the Romans|Romans]] 7:7, Romans 7:8, [[Epistle to the Colossians|Colossians]] 3:5, [[Epistle of James]] 1:14, James 1:15, [[Second Epistle of Peter|2 Peter]] 1:4, and 1 John 2:17.
</ref> and three occurrences in the ''[[Authorized King James Version|King James Bible]]''.<ref>[[Epistle to the Romans|Romans]] 7:8, [[Epistle to the Colossians|Colossians]] 3:5 and [[First Epistle to the Thessalonians|I Thessalonians]] 4:5.
</ref> It is also one of the English translations of the [[Koine Greek]] {{lang|grc-Latn|epithumia}} (ἐπιθυμία),<ref>"{{lang|grc-Latn|epithumia}}" is also translated as wish or desire (or in a biblical context, longing, lust, passion, covetousness, or impulse). See [[wikt:επιθυμία]].</ref> which occurs 38 times in the [[New Testament]].<ref>Mark 4:19, Luke 22:15, John 8:44, Romans 1:24, Romans 6:12, Romans 7:7,8, Romans 13:14, Galatians 5:16,24, Ephesians 2:3, Ephesians 4:22, Philippians 1:23, Colossians 3:5, 1Thessalonians 2:17, 1Thessalonians 4:5, 1Timothy 6:9, 2Timothy 2:22, 2Timothy 3:6, 2Timothy 4:3, Titus 2:12, Titus 3:3, James 1:14,15, 1Peter 1:14, 1Peter 2:11, 1Peter 4:2,3, 2Peter 1:4, 2Peter 2:10,18, 2Peter 3:3, 1John 2:16(twice),17, Jude 1:16,18, and Revelation 18:14.</ref>
 
Involuntary [[sexual arousal]] is explored in the [[Confessions (Augustine)|''Confessions'']] of [[Augustine of Hippo|Augustine]], wherein he used the term "concupiscence" to refer to [[Christian views on sin|sinful]] [[lust]].<ref name="NewYorker">{{cite magazine |url=http://www.newyorker.com/magazine/2017/06/19/how-st-augustine-invented-sex |title=How St. Augustine Invented Sex |first=Stephen |last=Greenblatt |magazine=[[The New Yorker]] |date=June 19, 2017}}</ref>
 
कामवासना भी एक उपासना, साधना है। काम पूर्ति से दिमाग की गन्दगी निकलकर जिन्दगी सुधर जाती है।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/काम" से प्राप्त