"शिरोमणि अकाली दल": अवतरणों में अंतर

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मास्टर तारासिंह ने सन् 1921 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया, पर सन् 1928 की भारतीय सुधारों संबंधी नेह डिग्री कमेटी की रिपोर्ट का इस आधार पर विरोध किया कि उसमें पंजाब विधानसभा में सिक्खों को 30 प्रतिशत प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया था। तब अकाली दल ने कांग्रेस से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। 1930 में पूर्ण स्वराज्य का संग्राम प्रारंभ होने पर मास्टर तारासिंह तटस्थ रहे और इनके दल ने [[द्वितीय विश्वयुद्ध|द्वितीय महायुद्ध]] में अंग्रेजों की सहायता की। सन् 1946 के महानिर्वाचन में मास्टर तारासिंह द्वारा संगठित "पथिक" दल अखंड पंजाब की विधानसभा में सिक्खों को निर्धारित 33 स्थानों में से 20 स्थानों पर विजयी हुआ। मास्टर जी ने सिखिस्तान की स्थापना के अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए जिन्ना से समझौता किया। पंजाब में लीग का मंत्रिमंडल बनाने तथा पाकिस्तान के निर्माण का आधार ढूँढ़ने में उनकी सहायता की। लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी जिन्ना से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। भारत विभाजन की घोषणा के बाद अवसर से लाभ उठाने की मास्टर तारासिंह की योजना के अंतर्गत ही देश में दंगों की शुरुआत अमृतसर से हुई, पर मास्टर जी का यह प्रयास भी विफल रहा। मास्टर जी ने संविधानपरिषद् में सिक्खों के सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को कायम रखने, भाषासूची में गुरुमुखी लिपि में पंजाब को स्थान देने तथा सिक्खों को हरिजनों की भाँति विशेष सुविधाएँ देने पर बल दिया और सरदार पटेल से आश्वासन प्राप्त करने में सफल हुए। इस प्रकार संविधानपरिषद् द्वारा भी सिक्ख संप्रदाय के पृथक् अस्तित्व पर मुहर लगवा दी तथा सिक्खों को विशेष सुविधाओं की व्यवस्था कराकर निर्धन तथा दलित हिंदुओं के धर्मपरिवर्तन द्वारा सिक्ख संप्रदाय के त्वरित प्रसार का रास्ता खोल दिया। तारासिंह इसे सिक्ख राज्य की स्थापना का आधार मानते थे। सन् 1952 के महानिर्वाचन में कांग्रेस से चुनाव समझौते के समय वे कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा पृथक् पंजाबी भाषी प्रदेश के निर्माण तथा पंजाबी विश्वविद्यालय की स्थापना का निर्णय कराने में सफल हुए।
 
मास्टर तारासिंह ने विभिन्न आंदोलनों के सिलसिले में अनेक बार जेलयात्राएँ की, पर दिल्ली में आयोजित एक विशाल प्रदर्शन का नेतृत्व करने से पूर्व मुख्यमंत्री सरदार प्रतापसिंह कैरों द्वारा बंदी बनाया जाना उनके नेतृत्व के ह्रास का कारण बना। उन दिनों मास्टर तारासिंह के नेतृत्व में स्वतंत्र पंजाब का आंदोलन जोरों से चल रहा था। प्रांत में एक प्रकार की अराजकता मची हुई थी। कैरो ने अपने सुदृढ़ व्यक्तित्व और राजनीतिक दूरदर्शिता से आंदोलन का सामना किया और उनकी कूटनीति आंदोलन के मुख्य स्तंभ मास्टर तारा सिंह और संत फतह सिंह में फूट उत्पन्न करने में सफल हुई तथा आंदोलन छिन्न भिन्न हो गया। कैद हो चुके तारा सिंह ने अपने स्थान पर प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए अपने अन्यतम सहयोग संत फतेहसिंह को मनोनीत किया। संत ने बाद में मास्टर जी की अनुपस्थिति में ही पंजाबी प्रदेश के लिए आमरण्य अनशन प्रारंभ कर दिया, जिसे समाप्त करने के लिए मास्टर तारासिंह ने कारावास से मुक्ति के पश्चात् संत फतेहसिंह को विवश किया और प्रतिक्रिया स्वरूप सिक्ख समुदाय के कोपभाजन बने। अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उन्होंने स्वयं आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया, जिसे उन्होंने केंद्रीय सरकार के आश्वासन पर ही त्यागा। सरकार ने वार्तार्थ मास्टर जी के स्थान पर संत को आमंत्रित किया। घटनाक्रमों ने अब तक मास्टर जी के नेतृत्व को प्रभावहीन और संत को विख्यात बना दिया था। वे हर मोड़ पर उलझते गए और संत जी की लोकप्रियता उसी अनुपात में बढ़ती गई। सरदार प्रतापसिंह के राजनीतिक कौशल ने सिक्ख राजनीतिक शक्ति के अक्षय स्रोत शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी से भी मास्टर को निष्कासित करने में संत को सफल बनाया। मास्टर जी संत जी से पराजित हुए। उनके 45 वर्ष पुराने नेतृत्व का अंत हो गया; यह उनकी राजनीतिक मृत्यु थी। सन् 1962 में उनके दल को विधानसभा में मात्र तीन स्थान प्राप्त हुए। यद्यपि 1966 में हुए पंजाब विभाजन की पूर्वपीठिका तैयार करने का संपूर्ण श्रेय मास्टर तारासिंह को ही है। (Sultan family 😌 )
 
1966 में, वर्तमान पंजाब का गठन किया गया था। तब अकाली दल नए पंजाब में सत्ता में आया था, लेकिन वहां की शुरुआती सरकारें पार्टी के भीतर आंतरिक संघर्ष और सत्ता संघर्ष के कारण लंबे समय तक सत्ता में नहीं रहीं। बाद में, पार्टी को मजबूत किया गया और पार्टी की सरकारें अपना  कार्यकाल पूरा कर पाईं।