"शनि (ज्योतिष)": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति 1:
{{About|ज्योतिष प्रयोग में शनि एवं शनि देवता|अन्य प्रयोग हेतु| शनि}}
{{Infobox deity
{{Hdeity infobox|
| type = हिन्दू
| name = '''शनि'''
| other_names = शनीश्वर , सौराष्ट्री , सूर्यपुत्र , श्यामाम्बर , सुवर्णा नन्दन , काकध्वज आदि
| script_name = देवनागरी
| script = शनि
| image = Shani graha.JPG
| abode = [[शनि मण्डल]]
| affiliation = [[देवता|देव]], [[नवग्रह|ग्रह]],[[कृष्ण]]
| affiliation = ग्रह
| abode = शनि पहाड़ी
| mantra = ॐ शं शनैश्चराय नमः॥<br />
| deity_of = [[कर्म]] और परमात्मा प्रतिकार के देवता <br> '''[[शनि (ग्रह)|शनि]]'''
ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:॥<ref>[http://www.shanidham.in/page.php?pagecode=shani%20poojan श्री शनिदेव का शनि अमावस्या पर पूजन विधि]। शनिधाम। अभिगमन तिथि: ३० सितंबर २०१२</ref>
| day = शनिवार
| weapon =
| color = [[काला]]<ref>{{Cite web |url=http://www.astrosagar.com/article.asp?id=71 |title=संग्रहीत प्रति |access-date=25 दिसंबर 2021 |archive-date=21 अक्तूबर 2019 |archive-url=https://web.archive.org/web/20191021002911/http://www.astrosagar.com/article.asp?id=71 |url-status=dead }}</ref>
| consort = नीलादेवी अथवा धामिनी
| tree = पीपल/ खेजड़ी
| mount = सात सवारियां: [[हाथी]], [[घोड़ा]], [[हिरण]], [[गधा]], [[कुत्ता]], [[भैंसा]] , [[गिद्ध]] और [[कौआ]]<ref>[http://www.shanidham.in/page.php?l_id=50 शनिधाम]। भगवान शनि का उद्भव</ref>
| number = 8,17,26
| day = शनिवार
| mount = [[कौआ]] , [[गिद्ध]] , [[नर भैंस|भैंसा]] , [[कुत्ता]] , [[गधा]] , [[घोड़ा]] , [[सिंह (पशु)|शेर]] , [[हाथी]] और [[हिरण]]
| planet = [[शनि ग्रह]]
| father = [[सूर्य नारायण ]]
| mother = [[सुवर्णा]]
| consort = मान्दा और नीलिमा
| offspring = मांदी और नीलिमा
| gender = पुरुष
| weapon = राजदंड, [[त्रिशूल (हथियार)|त्रिशूल]], [[कुल्हाड़ी]] , [[गदा]] , [[धनुष]] और बाण
| mantra = {{IAST|"ओम काकध्वजाय<br> विदम्है <br>खड़ग हस्ताया<br> धीमही<br> तन्नो मंदाह प्रचोदयात"}}{{refn|group=note|अनुवाद: ओम, मुझे उसका ध्यान करने दें जिसके ध्वज में काग है,
ओह, जिसके हाथ में तलवार है, वो मुझे अधिक बुद्धि दे,
और शनीस्वर मेरे दिमाग को प्रकाशमान करें।}}<ref>http://www.hindupedia.com/en/G%C4%81yatri_Mantras_of_Several_Gods</ref> और <br>{{IAST|"ओम शाम शनीश्वराय नमः"}}<ref>{{cite web | url=https://allbhajanlyrics.com/shani-mantra-lyrics-video/ |title=Shani Mantra|trans-title=शनी मंत्र}}</ref>
| planet = [[शनि (ग्रह)|शनि]]
| member_of = [[नवग्रह]]
| siblings = [[तपती]], [[सावर्णि मनु]], [[यमराज]], [[यमी]], [[अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र)|अश्विनीकुमार]], [[वैवस्वत मनु|श्रद्धादेव मनु]] , [[भद्रा]] और [[रेवन्त]]
| greek_equivalent = [[क्रोनोस]], [[एड्रैस्टिया]]
| norse_equivalent = विसारी
| etruscan_equivalent = सत्रे| caption = एक चित्र जिसमें शनि गिद्ध पर सवार हैं
| texts =[[ब्रह्मवैवर्त पुराण]],[[हरिवंश पर्व|हरिवंश]]
}}
[[चित्र:Bennanje_Sri_Shaneeswara_23_feet_Statue_Udupi.JPG||thumb| बण्णंजी, [[उडुपी]] में शनि महाराज की २३ फ़ीट ऊंची प्रतिमा]]
[[चित्र:Shani Dev.jpg|thumb|left|एक मंदिर में शनिदेव, कोलकाता, पश्चिम बंगाल, भारत]]
'''शनि''' ({{IAST|Śani}}) अथवा '''शनैश्चर'''), [[हिन्दू धर्म]] में [[शनि (ग्रह)|शनि]] ग्रह के दिव्य व्यक्तित्व को सन्दर्भित करता है<ref>{{Cite web|title=Planet Saturn ( Shani ) in Astrology|url=https://www.rudraksha-center.com/pages/planet-saturn-shani|access-date=2021-12-25|website=www.rudraksha-center.com}}</ref> और [[भारतीय ज्योतिष]] में नौ स्वर्गीय वस्तुओं ([[नवग्रह]]) में से एक और भगवान [[सूर्य देवता|सूर्य]] के ज्येष्ठ पुत्र हैं।<ref name="Dalal2010p373">{{cite book |first = रोशन |last = दलाल |title = Hinduism: An Alphabetical Guide |trans-title=हिन्दू धर्म: एक वर्णक्रमानुसार मार्गदर्शक |url = https://books.google.com/books?id=DH0vmD8ghdMC&pg=PA373 |year = 2010 |publisher = पेंगुइन बूक्स इंडिया |isbn = 978-0-14-341421-6 |page = 373 }}</ref>
 
[[शनि]] [[ग्रह]] के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं।[[शनि|शनिदेव]] को सूर्य पुत्र एवं कर्मफल दाता माना जाता है। लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी.शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और इस लिये उसे [[मारक]], अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य [[ज्योतिषी]] भी उसे दुख देने वाला मानते हैं। लेकिन [[शनि]] उतना अशुभ और [[मारक]] नही है, जितना उसे माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है।[[मोक्ष]] को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि [[शनि]] प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर [[प्राणी]] के साथ उचित न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्ही को दण्डिंत (प्रताडित) करते हैं। [[अनुराधा नक्षत्र]] के स्वामी शनि हैं।
== शनिदेव का जन्म ==
<blockquote>वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।
[[कश्यप]] ऋषि की कई पत्नियाँ थी जिनमें उन्हें [[अदिति]] से सर्वाधिक प्रेम था। [[अदिति]] के पुत्रों के रूप में [[आदित्य|आदित्यों]] का जन्म हुआ और आदित्यों में दूसरे स्थान पर [[विवस्वान्|विवस्वान]] हैं जिन्हें आज हम सूर्य नारायण कहतें हैं। भगवान [[सूर्य देवता|सूर्य]] ने देवशिल्पी [[विश्वकर्मा]] की दो पुत्रियों से विवाह किया उनके नाम थे [[सरण्यू]] (संज्ञा) और [[सुवर्णा]] (छाया)। एक बार सुवर्णा ने भगवान [[शिव]] की घोर तपस्या की और उस तप में उन्होंने अन्न और जल का त्याग कर दिया था जिससे उनके गर्भ में पल रहे बालक का रंग श्याम वर्ण का हो गया। शनि के जन्म में [[सूर्य देवता|सूर्य]] ने उन्हें अपना पुत्र भी स्वीकार नहीं किया था जिससे शनि ने भगवान शिव की तपस्या की और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान [[शिव]] ने उन्हें वर दिया कि मनुष्य तो दूर देवता भी उनके नाम से कापेंगे और उन्हें ही मनुष्यों के कर्मों का फल उन्हें प्रदान करना होगा।
अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥
</blockquote>
 
भावार्थ:-[[शनि]] ग्रह [[वैदूर्यरत्न]] अथवा [[बाणफ़ूल]] या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय [[प्रजा]] के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा [[ऋषि]], [[महात्मा]] कहते हैं।
== शनि को श्राप ==
ब्रह्मपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार शनिदेव बचपन से ही भगवान [[विष्णु]] के परम् भक्त थे। बड़े होने पर इनका विवाह [[दक्ष प्रजापति]] की पुत्री दामिनी (नीलिमा) से हुआ। एक बार सन्तान प्राप्ति की इच्छा से शनिदेव की पत्नी दामिनी शनिदेव के पास आई किन्तु शनिदेव उस समय भगवान विष्णु के ध्यान में लीन थे। उनकी पत्नी ने कई प्रयासों से उनका ध्यान तोड़ने का प्रयत्न किया किन्तु सभी प्रयत्न विफल हो गए। क्रोध में उन्होंने शनिदेव को श्राप दिया कि आज से वे जहाँ भी देंखें वहां विनाश हो जाएगा। इसलिए शनिदेव में अपना सिर और नजरें सदा के लिए झुका ली ताकि उनकी दृष्टी से किसी का अहित न हो।
 
== शनि देव का जन्म <ref>[http://www.chhathpuja.co/my-festivals/viewbulletin/1827-Shani+dev+history?groupid=252 शनि]</ref>==
== शनि की सवारी ==
धर्मग्रंथो के अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा की छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ, जब शनि देव छाया के गर्भ में थे तब छाया भगवान शंकर की भक्ति में इतनी ध्यान मग्न थी की उसने अपने खाने पिने तक शुध नहीं थी जिसका प्रभाव उसके पुत्र पर पड़ा और उसका वर्ण श्याम हो गया !शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं हैं ! तभी से शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखते थे ! शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की भाँति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनि देव को वरदान मांगने को कहा, तब शनि देव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही हैं, मेरे पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित किया गया हैं ! अतः माता की इच्छा हैं कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने ! तब भगवान शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा ! मानव तो क्या देवता भी तुम्हरे नाम से भयभीत रहेंगे !
आम तौर पर शनि की दो सवारियां मानी जाती हैं -: पशुओं में भैंसा और पक्षियों में काक लेकिन ज्योतिषियों के अनुसार शनि की कुल ९ सवारियों का उल्लेख पुराणों में है। वे हैं -:
 
== पौराणिक संदर्भ ==
* [[नर भैंस|भैंसा]]
[[शनि]] के सम्बन्ध मे हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं।[[माता]] के [[छल]] के कारण पिता ने उसे [[शाप]] दिया.पिता अर्थात [[सूर्य]] ने कहा,"आप क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाले [[मंदगामी]] ग्रह हो जाये".यह भी आख्यान मिलता है कि शनि के [[प्रकोप]] से ही अपने राज्य को घोर [[दुर्भिक्ष]] से बचाने के लिये [[राजा दशरथ]] उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका [[पुरुषार्थ]] देख कर [[शनि]] ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा.[[राजा दशरथ]] ने विधिवत [[स्तुति]] कर उसे प्रसन्न किया।[[पद्म पुराण]] में इस [[प्रसंग]] का सविस्तार वर्णन है।[[ब्रह्मवैवर्त पुराण]] में [[शनि]] ने जगत जननी [[पार्वती]] को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी का फ़ल भुगतान करता हूँ.एक बार जब विष्णुप्रिया [[लक्ष्मी]] ने [[शनि]] से पूंछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं, तो शनि महाराज ने उत्तर दिया,"मातेश्वरी, उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता [[परमात्मा]] ने मुझे तीनो लोकों का [[न्यायाधीश]] नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है".एक आख्यान और मिलता है, कि किस प्रकार से [[ऋषि अगस्त]] ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी, तो उन्होने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्होने [[दंड]] दिया, चाहे वह भगवान [[शिव]] की अर्धांगिनी [[सती]] रही हों, जिन्होने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की [[यज्ञ]] में [[हवन कुंड]] मे जल कर मरने के लिये [[शनि]] देव ने विवश कर दिया, अथवा [[राजा हरिश्चन्द्र]] रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पडा और,[[श्मशान]] की रखवाली तक करनी पडी, या [[राजा नल]] और [[दमयन्ती]] को ही ले लीजिये, जिनके तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हे दर दर का होकर भटकना पडा, और भूनी हुई मछलियां तक पानी मै तैर कर भाग गईं, फ़िर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा, वाचा, कर्मणा, पाप कर दिया जाता है वह चाहे जाने मे किया जाय या अन्जाने में, उसे भुगतना तो पडेगा ही.
* [[हाथी]]
* [[सिंह (पशु)|शेर]]
* [[कौआ]]
* [[गिद्ध]]
* [[घोड़ा]]
* [[कुत्ता]]
* [[हिरण]]
* [[गधा]]
 
[[मत्स्य पुराण]] में [[महात्मा]] [[शनि]] [[देव]] का शरीर [[इन्द्र कांति]] की [[नीलमणि]] जैसी है, वे [[गिद्ध]] पर सवार है, हाथ मे [[धनुष बाण]] है एक हाथ से [[वर मुद्रा]] भी है,[[शनि]] [[देव]] का [[विकराल]] रूप [[भयावह]] भी है।[[शनि]] पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं।
पश्चिम के साहित्य मे भी अनेक आख्यान मिलते हैं,[[शनि]] [[देव]] के अनेक [[मन्दिर]] हैं,[[भारत]] में भी [[शनि]] देव के अनेक मन्दिर हैं, जैसे [[शिंगणापुर]], [[वृंदावन]] के [[कोकिला वन]],[[ग्वालियर]] के [[शनिश्चराजी]],[[दिल्ली]] तथा अनेक शहरों मे महाराज [[शनि]] के [[मन्दिर]] हैं।
 
== खगोलीय विवरण ==
इन्हें भी देखे
नवग्रहों के [[कक्ष]] क्रम में [[शनि]] [[सूर्य]] से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड, इकसठ लाख मील दूर है।[[पृथ्वी]] से [[शनि]] की दूरी इकहत्तर करोड, इकत्तीस लाख, तियालीस हजार मील दूर है। शनि का व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है, यह छ: मील प्रति सेकेण्ड की गति से २१.५ वर्ष में अपनी [[कक्षा]] मे [[सूर्य]] की परिक्रमा पूरी करता है।[[शनि]] [[धरातल]] का [[तापमान]] २४० फ़ोरनहाइट है।[[शनि]] के चारो ओर सात [[वलय]] हैं,[[शनि]] के १५ [[चन्द्रमा]] है। जिनका प्रत्येक का व्यास [[पृथ्वी]] से काफ़ी अधिक है।
* [[वैदिक देवता]]
** [[नक्षत्र ]]
** [[अदिति]]
** [[सूर्य नमस्कार]]
 
== ज्योतिष में शनि ==
* [[हिन्दू देवी देवताओं की सूची]]
[[फ़लित ज्योतिष]] के शास्त्रो में [[शनि]] को अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है, जैसे मन्दगामी, सूर्य-पुत्र, शनिश्चर और छायापुत्र आदि.शनि के नक्षत्र हैं,[[पुष्य]],[[अनुराधा]], और [[उत्तराभाद्रपद]].यह दो राशियों [[मकर]], और [[कुम्भ]] का स्वामी है।[[तुला]] राशि में २० [[अंश]] पर [[शनि]] परमोच्च है और [[मेष]] राशि के २० अंश प परमनीच है।[[नीलम]] [[शनि]] का [[रत्न]] है।[[शनि]] की तीसरी, सातवीं, और दसवीं द्रिष्टि मानी जाती है।[[शनि]] [[सूर्य]],[[चन्द्र]],[[मंगल]] का शत्रु,[[बुध]],[[शुक्र]] को मित्र तथा [[गुरु]] को सम मानता है। शारीरिक रोगों में [[शनि]] को [[वायु विकार]],[[कंप]], हड्डियों और दंत रोगों का कारक माना जाता है।
 
=== द्वादस भावों मे शनि ===
==टिप्पणीयाँ==
[[जन्म कुंडली]] के बारह भावों मे जन्म के समय [[शनि]] अपनी गति और जातक को दिये जाने वाले फ़लों के प्रति भावानुसार जातक के जीवन के अन्दर क्या उतार और चढाव मिलेंगे, सबका वृतांत कह देता है।
{{reflist|group=note}}
=== प्रथम भाव मे शनि ===
[[शनि]] मन्द है और [[शनि]] ही ठंडक देने वाला है,[[सूर्य]] नाम उजाला तो [[शनि]] नाम अन्धेरा, पहले भाव मे अपना स्थान बनाने का कारण है कि [[शनि]] अपने [[गोचर]] की गति और अपनी [[दशा]] मे [[शोक]] पैदा करेगा,[[जीव]] के अन्दर [[शोक]] का [[दुख]] मिलते ही वह आगे पीछे सब कुछ भूल कर केवल अन्धेरे मे ही खोया रहता है।[[शनि]] [[जादू टोने]] का कारक तब बन जाता है, जब [[शनि]] पहले भाव मे अपनी गति देता है, पहला भाव ही [[औकात]] होती है, अन्धेरे मे जब औकात छुपने लगे, रोशनी से ही पहिचान होती है और जब [[औकात]] छुपी हुई हो तो शनि का स्याह अन्धेरा ही माना जा सकता है। अन्धेरे के कई रूप होते हैं, एक अन्धेरा वह होता है जिसके कारण कुछ भी दिखाई नही देता है, यह आंखों का अन्धेरा माना जाता है, एक अन्धेरा समझने का भी होता है, सामने कुछ होता है, और समझा कुछ जाता है, एक अन्धेरा बुराइयों का होता है, व्यक्ति या जीव की सभी अच्छाइयां बुराइयों के अन्दर छुपने का कारण भी शनि का दिया गया अन्धेरा ही माना जाता है, नाम का अन्धेरा भे होता है, किसी को पता ही नही होता है, कि कौन है और कहां से आया है, कौन [[माँ]] है और कौन [[बाप]] है, आदि के द्वारा किसी भी रूप मे छुपाव भी [[शनि]] के कारण ही माना जाता है, व्यक्ति चालाकी का [[पुतला]] बन जाता है प्रथम भाव के [[शनि]] के द्वारा.शनि अपने स्थान से प्रथम भाव के अन्दर स्थिति रख कर तीसरे भाव को देखता है, तीसरा भाव अपने से छोटे भाई बहिनो का भी होता है, अपनी अन्दरूनी [[ताकत]] का भी होता है, पराक्रम का भी होता है, जो कुछ भी हम दूसरों से कहते है, किसी भी साधन से, किसी भी तरह से शनि के कारण अपनी बात को संप्रेषित करने मे कठिनाई आती है, जो कहा जाता है वह सामने वाले को या तो समझ मे नही आता है, और आता भी है तो एक भयानक अन्धेरा होने के कारण वह कही गयी बात को न समझने के कारण कुछ का कुछ समझ लेता है, परिणाम के अन्दर फ़ल भी जो चाहिये वह नही मिलता है, अक्सर देखा जाता है कि जिसके प्रथम भाव मे [[शनि]] होता है, उसका [[जीवन साथी]] जोर जोर से बोलना चालू कर देता है, उसका कारण उसके द्वारा जोर जोर से बोलने की आदत नही, प्रथम भाव का [[शनि]] सुनने के अन्दर कमी कर देता है, और सामने वाले को जोर से बोलने पर ही या तो सुनायी देता है, या वह कुछ का कुछ समझ लेता है, इसी लिये जीवन साथी के साथ कुछ सुनने और कुछ समझने के कारण [[मानसिक]] ना समझी का परिणाम सम्बन्धों मे कडुवाहट घुल जाती है, और [[सम्बन्ध]] टूट जाते हैं। इसकी प्रथम भाव से दसवी नजर सीधी [[कर्म]] भाव पर पडती है, यही [[कर्म]] भाव ही [[पिता]] का भाव भी होता है।[[जातक]] को [[कर्म]] करने और [[कर्म]] को समझने मे काफ़ी कठिनाई का सामना करना पडता है, जब किसी प्रकार से [[कर्म]] को नही समझा जाता है तो जो भी किया जाता है वह [[कर्म]] न होकर एक [[भार]] स्वरूप ही समझा जाता है, यही बात [[पिता]] के प्रति मान ली जाती है,[[पिता]] के प्रति [[शनि]] अपनी सिफ़्त के अनुसार [[अंधेरा]] देता है, और उस अन्धेरे के कारण [[पिता]] ने [[पुत्र]] के प्रति क्या किया है, समझ नही होने के कारण [[पिता]] [[पुत्र]] में अनबन भी बनी रहती है,[[पुत्र]] का लगन या [[प्रथम भाव]] का [[शनि]] माता के चौथे भाव मे चला जाता है, और माता को जो काम नही करने चाहिये वे उसको करने पडते हैं, कठिन और एक [[सीमा]] मे रहकर माता के द्वारा काम करने के कारण उसका [[जीवन]] एक घेरे में बंधा सा रह जाता है, और वह अपनी शरीरी सिफ़्त को उस प्रकार से प्रयोग नही कर पाती है जिस प्रकार से एक साधारण आदमी अपनी [[जिन्दगी]] को जीना चाहता है।
 
=== दूसरे भाव में शनि ===
==सन्दर्भ==
[[दूसरा भाव]] [[भौतिक]] [[धन]] का [[भाव]] है,[[भौतिक]] [[धन]] से मतलब है,[[रुपया]],[[पैसा]],[[सोना]],[[चान्दी]],[[हीरा]],[[मोती]],[[जेवरात]] आदि, जब [[शनि]] [[देव]] दूसरे भाव मे होते है तो अपने ही परिवार वालो के प्रति अन्धेरा भी रखते है, अपने ही परिवार वालों से [[लडाई]] [[झगडा]] आदि करवा कर अपने को अपने ही परिवार से दूर कर देते हैं,[[धन]] के मामले मै पता नही चलता है कितना आया और कितना खर्च किया, कितना कहां से आया,[[दूसरा भाव]] ही बोलने का भाव है, जो भी बात की जाती है, उसका अन्दाज नही होता है कि क्या कहा गया है, गाली भी हो सकती है और ठंडी बात भी, ठंडी बात से मतलब है [[नकारात्मक]] बात, किसी भी बात को करने के लिये कहा जाय, उत्तर में न ही निकले.दूसरा [[शनि]] चौथे भाव को भी देखता है, चौथा भाव माता, मकान, और वाहन का भी होता है, अपने सुखों के प्रति भी चौथे भाव से पता किया जाता है, दूसरा [[शनि]] होने पर [[यात्रा]] वाले कार्य और घर मे सोने के अलावा और कुछ नही दिखाई देता है। दूसरा शनि सीधे रूप मे आठवें भाव को देखता है, आठवा भाव शमशानी ताकतों की तरफ़ रुझान बढा देता है, व्यक्ति [[भूत]],[[प्रेत]],[[जिन्न]] और पिशाची शक्तियों को अपनाने में अपना मन लगा देता है, शमशानी [[साधना]] के कारण उसका खान पान भी शमशानी हो जाता है,[[शराब]],[[कबाब]] और [[भूत]] के भोजन में उसकी रुचि बढ जाती है। दूसरा शनि ग्यारहवें भाव को भी देखता है, ग्यारहवां भाव [[अचल सम्पत्ति]] के प्रति अपनी [[आस्था]] को अन्धेरे मे रखता है, मित्रों और बडे भाई बहिनो के प्रति दिमाग में अन्धेरा रखता है। वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन व्यक्ति के [[दिमाग]] में कुछ और ही समझ मे आता है।
==बाहरी कड़ियाँ==
=== तीसरे भाव में शनि ===
{{Commons category}}
तीसरा भाव पराक्रम का है, व्यक्ति के साहस और हिम्मत का है, जहां भी व्यक्ति रहता है, उसके पडौसियों का है। इन सबके कारणों के अन्दर तीसरे भाव से [[शनि]] [[पंचम भाव]] को भी देखता है, जिनमे [[शिक्षा]],[[संतान]] और तुरत आने वाले धनो को भी जाना जाता है, मित्रों की [[सहभागिता]] और [[भाभी]] का भाव भी [[पांचवा]] भाव माना जाता है, पिता की [[मृत्यु]] का और [[दादा]] के बडे भाई का भाव भी पांचवा है। इसके अलावा नवें भाव को भी तीसरा [[शनि]] आहत करता है, जिसमे धर्म, सामाजिक व्यव्हारिकता, पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक चलन आदि का ज्ञान भी मिलता है, को तीसरा [[शनि]] [[आहत]] करता है। मकान और आराम करने वाले स्थानो के प्रति यह शनि अपनी अन्धेरे वाली नीति को प्रतिपादित करता है।[[ननिहाल]] [[खानदान]] को यह शनि प्रताडित करता है।
* [https://web.archive.org/web/20210425050135/https://lyricsbean.com/shani-chalisa-lyrics-pdf/ हिन्दी और अंग्रेज़ी में पीडीएफ़ फाइल के रूप में शनि चालिसा]
=== चौथे भाव मे शनि ===
चौथे भाव का मुख्य प्रभाव व्यक्ति के लिये काफ़ी कष्ट देने वाला होता है, माता, मन, मकान, और पानी वाले साधन, तथा शरीर का पानी इस शनि के प्रभाव से गंदला जाता है, आजीवन कष्टदेने वाला होने से पुराणो मे इस शनि वाले व्यक्ति का जीवन [[नर्क]] मय ही बताया जाता है। अगर यह शनि [[तुला]],[[मकर]],[[कुम्भ]] या [[मीन]] का होता है, तो इस के फ़ल में कष्टों मे कुछ कमी आ जाती है।
=== पंचम भाव का शनि ===
इस भाव मे शनि के होने के कारण व्यक्ति को [[मन्त्र वेत्ता]] बना देता है, वह कितने ही गूढ मन्त्रों के द्वारा लोगो का भला करने वाला तो बन जाता है, लेकिन अपने लिये [[जीवन साथी]] के प्रति,[[जायदाद]] के प्रति, और [[नगद धन]] के साथ [[जमा पूंजी]] के लिये दुख ही उठाया करता है।[[संतान]] मे [[शनि]] की सिफ़्त स्त्री होने और ठंडी होने के कारण से संतति मे विलंब होता है,[[कन्या]] [[संतान]] की अधिकता होती है, जीवन साथी के साथ मन मुटाव होने से वह अधिक तर अपने जीवन के प्रति उदासीन ही रहता है।
=== षष्ठ भाव में शनि ===
इस भाव मे शनि कितने ही [[दैहिक]] [[दैविक]] और [[भौतिक]] रोगों का दाता बन जाता है, लेकिन इस भाव का [[शनि]] पारिवारिक शत्रुता को समाप्त कर देता है,[[मामा]] [[खानदान]] को समाप्त करने वाला होता है,[[चाचा]] खान्दान से कभी बनती नही है। व्यक्ति अगर किसी प्रकार से [[नौकरी]] वाले कामों को करता रहता है तो सफ़ल होता रहता है, अगर किसी प्रकार से वह मालिकी वाले कामो को करता है तो वह असफ़ल हो जाता है। अपनी तीसरी नजर से आठवें भाव को देखने के कारण से व्यक्ति [[दूर द्रिष्टि]] से किसी भी काम या समस्या को नही समझ पाता है, कार्यों से किसी न किसी प्रकार से अपने प्रति [[जोखिम]] को नही समझ पाने से जो भी कमाता है, या जो भी किया जाता है, उसके प्रति अन्धेरा ही रहता है, और अक्स्मात समस्या आने से परेशान होकर जो भी पास मे होता है गंवा देता है। बारहवे भाव मे अन्धेरा होने के कारण से बाहरी आफ़तों के प्रति भी अन्जान रहता है, जो भी कारण बाहरी बनते हैं उनके द्वारा या तो ठगा जाता है या बाहरी लोगों की [[शनि]] वाली चालाकियों के कारण अपने को आहत ही पाता है। खुद के छोटे भाई बहिन क्या कर रहे हैं और उनकी कार्य प्रणाली खुद के प्रति क्या है उसके प्रति अन्जान रहता है। अक्सर इस भाव का [[शनि]] कही आने जाने पर रास्तों मे [[भटकाव]] भी देता है, और अक्सर ऐसे लोग जानी हुई जगह पर भी भूल जाते है।
=== सप्तम भाव मे शनि ===
[[सातवां]] भाव [[पत्नी]] और [[मन्त्रणा]] करने वाले लोगो से अपना सम्बन्ध रखता है।[[जीवन साथी]] के प्रति अन्धेरा और [[दिमाग]] मे [[नकारात्मक]] विचारो के लगातार बने रहने से व्यक्ति अपने को हमेशा हर बात में [[छुद्र]] ही समझता रहता है,[[जीवन साथी]] थोडे से समय के बाद ही [[नकारा]] समझ कर अपना [[पल्ला]] [[जातक]] से झाड कर दूर होने लगता है, अगर जातक किसी प्रकार से अपने प्रति [[सकारात्मक]] विचार नही बना पाये तो अधिकतर मामलो मे गृह्स्थियों को बरबाद ही होता देखा गया है, और दो शादियों के परिणाम [[सप्तम शनि]] के कारण ही मिलते देखे गये हैं,[[सप्तम शनि]] पुरानी रिवाजों के प्रति और अपने पूर्वजों के प्रति उदासीन ही रहता है, उसे केवल अपने ही प्रति सोचते रहने के कारण और मै कुछ नही कर सकता हूँ, यह विचार बना रहने के कारण वह अपनी पुरानी मर्यादाओं को अक्सर भूल ही जाता है, पिता और पुत्र मे कार्य और अकार्य की स्थिति बनी रहने के कारण अनबन ही बनी रहती है। व्यक्ति अपने रहने वाले स्थान पर अपने कारण बनाकर अशांति उत्पन्न करता रहता है, अपनी माता या माता जैसी महिला के मन मे विरोध भी पैदा करता रहता है, उसे लगता है कि जो भे उसके प्रति किया जा रहा है, वह गलत ही किया जा रहा है और इसी कारण से वह अपने ही लोगों से विरोध पैदा करने मे नही हिचकता है। शरीर के पानी पर इस शनि का प्रभाव पडने से दिमागी विचार गंदे हो जाते हैं, व्यक्ति अपने शरीर में पेट और जनन अंगो मे [[सूजन]] और महिला जातकों की [[बच्चादानी]] आदि की बीमारियां इसी [[शनि]] के कारण से मिलती है।
=== अष्टम भाव में शनि ===
इस भाव का शनि खाने पीने और [[मौज मस्ती]] करने के चक्कर में जेब हमेशा खाली रखता है। किस काम को कब करना है इसका [[अन्दाज]] नही होने के कारण से व्यक्ति के अन्दर [[आवारागीरी]] का उदय होता देखा गया है
उच्च का शनि अत्तीन्द्रीय ज्ञान की क्षमता भी देता हैं गुप्त ज्ञान भी शनि का कारक हैं
 
=== नवम भाव का शनि ===
{{भारतीय ज्योतिष}}
[[नवां भाव]] [[भाग्य]] का माना गया है, इस भाव में [[शनि]] होने के कारण से कठिन और दुख दायी यात्रायें करने को मिलती हैं, लगातार घूम कर सेल्स आदि के कामो मे काफ़ी परेशानी करनी पडती है, अगर यह भाव सही होता है, तो व्यक्ति [[मजाकिया]] होता है, और हर बात को चुटकुलों के द्वारा कहा करता है, मगर जब इस भाव मे [[शनि]] होता है तो व्यक्ति सीरियस हो जाता है, और [[एकान्त]] में अपने को रखने अपनी भलाई सोचता है, नवें भाव बाले शनि के के कारण व्यक्ति अपनी पहिचान [[एकान्त वासा झगडा न झासा]] वाली कहावत से पूर्ण रखता है। खेती वाले कामो, घर बनाने वाले कामों [[जायदाद]] से जुडे कामों की तरफ़ अपना मन लगाता है। अगर कोई अच्छा [[ग्रह]] इस [[शनि]] पर अपनी नजर रखता है तो व्यक्ति [[जज]] वाले कामो की तरफ़ और [[कोर्ट]] [[कचहरी]] वाले कामों की तरफ़ अपना रुझान रखता है। जानवरों की डाक्टरी और जानवरों को सिखाने वाले काम भी करता है, अधिकतर नवें शनि वाले लोगों को [[जानवर]] पालना बहुत अच्छा लगता है। किताबों को छापकर बेचने वाले भी नवें शनि से कही न कही जुडे होते हैं।
{{हिन्दू देवी देवता एवं लेख}}
=== दसम भाव का शनि ===
[[श्रेणी:हिन्दू देवता]]
दसवां शनि कठिन कामो की तरफ़ मन ले जाता है, जो भी [[मेहनत]] वाले काम,[[लकडी]],[[पत्थर]], लोहे आदि के होते हैंवे सब दसवे शनि के क्षेत्र मे आते हैं, व्यक्ति अपने जीवन मे काम के प्रति एक [[क्षेत्र]] बना लेता है और उस क्षेत्र से निकलना नही चाहता है।[[राहु]] का असर होने से या किसी भी प्रकार से [[मंगल]] का प्रभाव बन जाने से इस प्रकार का व्यक्ति [[यातायात]] का सिपाही बन जाता है, उसे जिन्दगी के कितने ही काम और कितने ही लोगों को बारी बारी से पास करना पडता है, दसवें शनि वाले की नजर बहुत ही तेज होती है वह किसी भी रखी चीज को नही भूलता है, मेहनत की कमाकर खाना जानता है, अपने रहने के लिये जब भी मकान आदि बनाता है तो केवल स्ट्रक्चर ही बनाकर खडा कर पाता है, उसके रहने के लिये कभी भी बढिया [[आलीशान]] मकान नही बन पाता है।[[गुरु]] सही तरीके से काम कर रहा हो तो व्यक्ति एक्ज्यूटिव इन्जीनियर की पोस्ट पर काम करने वाला बनजाता है।
=== ग्यारहवां शनि ===
शनि दवाइयों का कारक भी है, और इस घर मे जातक को साइंटिस्ट भी बना देता है, अगर जरा सी भी बुध साथ देता हो तो व्यक्ति गणित के फ़ार्मूले और नई खोज करने मे माहिर हो जाता है। चैरिटी वाले काम करने मे मन लगता है, मकान के स्ट्रक्चर खडा करने और वापस बिगाड कर बनाने मे माहिर होता है, व्यक्ति के पास जीवन मे दो मकान तो होते ही है। दोस्तों से हमेशा चालकियां ही मिलती है, बडा भाई या बहिन के प्रति व्यक्ति का रुझान कम ही होता है। कारण वह न तोकुछ शो करता है और न ही किसी प्रकार की मदद करने मे अपनी योग्यता दिखाता है, अधिकतर लोगो के इस प्रकार के भाई या बहिन अपने को जातक से दूर ही रखने म अपनी भलाई समझते हैं।
=== बारहवां शनि ===
नवां घर भाग्य या धर्म का होता है तो बारहवा घर [[धर्म]] का घर होता है, व्यक्ति को बारहवा शनि पैदा करने के बाद अपने जन्म स्थान से दूर ही कर देता है, वह दूरी शनि के अंशों पर निर्भर करती है, व्यक्ति के दिमाग मे काफ़ी वजन हर समय महसूस होता है वह अपने को संसार के लिये वजन मानकर ही चलता है, उसकी रुझान हमेशा के लिये धन के प्रति होती है और जातक धन के लिये हमेशा ही भटकता रहता है, कर्जा दुश्मनी बीमारियो से उसे नफ़रत तो होती है मगर उसके जीवन साथी के द्वारा इस प्रकार के कार्य कर दिये जाते हैं जिनसे जातक को इन सब बातों के अन्दर जाना ही पडता है।
=== शनि की पहिचान ===
जातक को अपने जन्म दिनांक को देखना चाहिये, यदि शनि चौथे, छठे, आठवें, बारहवें भाव मे किसी भी राशि में विशेषकर नीच राशि में बैठा हो, तो निश्चित ही आर्थिक, मानसिक, भौतिक पीडायें अपनी महादशा, अन्तर्दशा, में देगा, इसमे कोई सन्देह नही है, समय से पहले यानि महादशा, अन्तर्दशा, आरम्भ होने से पहले शनि के बीज मंत्र का अवश्य जाप कर लेना चाहिये.ताकि शनि प्रताडित न कर सके, और शनि की महादशा और अन्तर्दशा का समय सुख से बीते.याद रखें अस्त शनि भयंकर पीडादायक माना जाता है, चाहे वह किसी भी भाव में क्यों न हो.?
 
== अंकशास्त्र में शनि ==
ज्योतिष विद्याओं मे अंक विद्या भी एक महत्व पूर्ण विद्या है, जिसके द्वारा हम थोडे समय में ही प्रश्न कर्ता का स्पष्ट उत्तर दे सकते हैं, अंक विद्या में ८ का अंक शनि को प्राप्त हुआ है। शनि परमतपस्वी और न्याय का कारक माना जाता है, इसकी विशेषता पुराणों में प्रतिपादित है। आपका जिस तारीख को जन्म हुआ है, गणना करिये, और योग अगर ८ आये, तो आपका अंकाधिपति शनिश्चर ही होगा.जैसे-८,१७,२६ तारीख आदि.यथा-१७=१+७=८,२६=२+६=८.
=== अंक आठ की ज्योतिषीय परिभाषा ===
अंक आठ वाले जातक धीरे धीरे उन्नति करते हैं, और उनको सफ़लता देर से ही मिल पाती है। परिश्रम बहुत करना पडता है, लेकिन जितना किया जाता है उतना मिल नही पाता है, जातक वकील और न्यायाधीश तक बन जाते हैं, और लोहा, पत्थर आदि के व्यवसाय के द्वारा जीविका भी चलाते हैं। दिमाग हमेशा अशान्त सा ही रहता है, और वह परिवार से भी अलग ही हो जाता है, साथ ही दाम्पत्य जीवन में भी कटुता आती है। अत: आठ अंक वाले व्यक्तियों को प्रथम शनि के विधिवत बीज मंत्र का जाप करना चाहिये.तदोपरान्त साढे पांच रत्ती का नीलम धारण करना चाहिये.ऐसा करने से जातक हर क्षेत्र में उन्नति करता हुआ, अपना लक्ष्य शीघ्र प्राप्त कर लेगा.और जीवन में तप भी कर सकेगा, जिसके फ़लस्वरूप जातक का इहलोक और परलोक सार्थक होंगे.
शनि प्रधान जातक तपस्वी और परोपकारी होता है, वह न्यायवान, विचारवान, तथा विद्वान भी होता है, बुद्धि कुशाग्र होती है, शान्त स्वभाव होता है, और वह कठिन से कठिन परिस्थति में अपने को जिन्दा रख सकता है। जातक को लोहा से जुडे वयवसायों मे लाभ अधिक होता है। शनि प्रधान जातकों की अन्तर्भावना को कोई जल्दी पहिचान नही पाता है। जातक के अन्दर मानव परीक्षक के गुण विद्यमान होते हैं। शनि की सिफ़्त चालाकी, आलसी, धीरे धीरे काम करने वाला, शरीर में ठंडक अधिक होने से रोगी, आलसी होने के कारण बात बात मे तर्क करने वाला, और अपने को दंड से बचाने के लिये मधुर भाषी होता है। दाम्पत्यजीवन सामान्य होता है। अधिक परिश्रम करने के बाद भी धन और धान्य कम ही होता है। जातक न तो समय से सोते हैं और न ही समय से जागते हैं। हमेशा उनके दिमाग में चिन्ता घुसी रहती है। वे लोहा, स्टील, मशीनरी, ठेका, बीमा, पुराने वस्तुओं का व्यापार, या राज कार्यों के अन्दर अपनी कार्य करके अपनी जीविका चलाते हैं। शनि प्रधान जातक में कुछ कमिया होती हैं, जैसे वे नये कपडे पहिनेंगे तो जूते उनके पुराने होंगे, हर बात में शंका करने लगेंगे, अपनी आदत के अनुसार हठ बहुत करेंगे, अधिकतर जातकों के विचार पुराने होते हैं। उनके सामने जो भी परेशानी होती है सबके सामने उसे उजागर करने में उनको कोई शर्म नही आती है। शनि प्रधान जातक अक्सर अपने भाई और बान्धवों से अपने विचार विपरीत रखते हैं, धन का हमेशा उनके पास अभाव ही रहता है, रोग उनके शरीर में मानो हमेशा ही पनपते रहते हैं, आलसी होने के कारण भाग्य की गाडी आती है और चली जाती है उनको पहिचान ही नही होती है, जो भी धन पिता के द्वारा दिया जाता है वह अधिकतर मामलों में अपव्यय ही कर दिया जाता है। अपने मित्रों से विरोध रहता है। और अपनी माता के सुख से भी जातक अधिकतर वंचित ही रहता है।
== शनि के प्रति अन्य जानकारियां ==
शनि को सन्तुलन और न्याय का ग्रह माना गया है। जो लोग अनुचित बातों के द्वारा अपनी चलाने की कोशिश करते हैं, जो बात समाज के हित में नही होती है और उसको मान्यता देने की कोशिश करते है, अहम के कारण अपनी ही बात को सबसे आगे रखते हैं, अनुचित विषमता, अथवा अस्वभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि उनको ही पीडित करता है। शनि हमसे कुपित न हो, उससे पहले ही हमे समझ लेना चाहिये, कि हम कहीं अन्याय तो नही कर रहे हैं, या अनावश्यक विषमता का साथ तो नही दे रहे हैं। यह तपकारक ग्रह है, अर्थात तप करने से शरीर परिपक्व होता है, शनि का रंग गहरा नीला होता है, शनि ग्रह से निरंतर गहरे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर गिरती रहती हैं। शरी में इस ग्रह का स्थान उदर और जंघाओं में है। सूर्य पुत्र शनि दुख दायक, शूद्र वर्ण, तामस प्रकृति, वात प्रकृति प्रधान तथा भाग्य हीन नीरस वस्तुओं पर अधिकार रखता है।
शनि सीमा ग्रह कहलाता है, क्योंकि जहां पर सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा शुरु हो जाती है। जगत में सच्चे और झूठे का भेद समझना, शनि का विशेष गुण है। यह ग्रह कष्टकारक तथा दुर्दैव लाने वाला है। विपत्ति, कष्ट, निर्धनता, देने के साथ साथ बहुत बडा गुरु तथा शिक्षक भी है, जब तक शनि की सीमा से प्राणी बाहर नही होता है, संसार में उन्नति सम्भव नही है। शनि जब तक जातक को पीडित करता है, तो चारों तरफ़ तबाही मचा देता है। जातक को कोई भी रास्ता चलने के लिये नही मिलता है। करोडपति को भी खाकपति बना देना इसकी सिफ़्त है।
अच्छे और शुभ कर्मों बाले जातकों का उच्च होकर उनके भाग्य को बढाता है, जो भी धन या संपत्ति जातक कमाता है, उसे सदुपयोग मे लगाता है। गृहस्थ जीवन को सुचारु रूप से चलायेगा.साथ ही धर्म पर चलने की प्रेरणा देकर तपस्या और समाधि आदि की तरफ़ अग्रसर करता है। अगर कर्म निन्दनीय और क्रूर है, तो नीच का होकर भाग्य कितना ही जोडदार क्यों न हो हरण कर लेगा, महा कंगाली सामने लाकर खडी कर देगा, कंगाली देकर भी मरने भी नही देगा, शनि के विरोध मे जाते ही जातक का विवेक समाप्त हो जाता है। निर्णय लेने की शक्ति कम हो जाती है, प्रयास करने पर भी सभी कार्यों मे असफ़लता ही हाथ लगती है। स्वभाव मे चिडचिडापन आजाता है, नौकरी करने वालों का अधिकारियों और साथियों से झगडे, व्यापारियों को लम्बी आर्थिक हानि होने लगती है। विद्यार्थियों का पढने मे मन नही लगता है, बार बार अनुत्तीर्ण होने लगते हैं। जातक चाहने पर भी शुभ काम नही कर पाता है। दिमागी उन्माद के कारण उन कामों को कर बैठता है जिनसे करने के बाद केवल पछतावा ही हाथ लगता है। शरीर में वात रोग हो जाने के कारण शरीर फ़ूल जाता है, और हाथ पैर काम नही करते हैं, गुदा में मल के जमने से और जो खाया जाता है उसके सही रूप से नही पचने के कारण कडा मल बन जाने से गुदा मार्ग में मुलायम भाग में जख्म हो जाते हैं, और भगन्दर जैसे रोग पैदा हो जाते हैं। एकान्त वास रहने के कारण से सीलन और नमी के कारण गठिया जैसे रोग हो जाते हैं, हाथ पैर के जोडों मे वात की ठण्डक भर जाने से गांठों के रोग पैदा हो जाते हैं, शरीर के जोडों में सूजन आने से दर्द के मारे जातक को पग पग पर कठिनाई होती है। दिमागी सोचों के कारण लगातार नशों के खिंचाव के कारण स्नायु में दुर्बलता आजाती है। अधिक सोचने के कारण और घर परिवार के अन्दर क्लेश होने से विभिन्न प्रकार से नशे और मादक पदार्थ लेने की आदत पड जाती है, अधिकतर बीडी सिगरेट और तम्बाकू के सेवन से क्षय रोग हो जाता है, अधिकतर अधिक तामसी पदार्थ लेने से कैंसर जैसे रोग भी हो जाते हैं। पेट के अन्दर मल जमा रहने के कारण आंतों के अन्दर मल चिपक जाता है, और आंतो मे छाले होने से अल्सर जैसे रोग हो जाते हैं। शनि ऐसे रोगों को देकर जो दुष्ट कर्म जातक के द्वारा किये गये होते हैं, उन कर्मों का भुगतान करता है। जैसा जातक ने कर्म किया है उसका पूरा पूरा भुगतान करना ही शनिदेव का कार्य है।
शनि की मणि नीलम है। प्राणी मात्र के शरीर में लोहे की मात्रा सब धातुओं से अधिक होती है, शरीर में लोहे की मात्रा कम होते ही उसका चलना फ़िरना दूभर हो जाता है। और शरीर में कितने ही रोग पैदा हो जाते हैं। इसलिये ही इसके लौह कम होने से पैदा हुए रोगों की औषधि खाने से भी फ़ायदा नही हो तो जातक को समझ लेना चाहिये कि शनि खराब चल रहा है। शनि मकर तथा कुम्भ राशि का स्वामी है। इसका उच्च तुला राशि में और नीच मेष राशि में अनुभव किया जाता है। इसकी धातु लोहा, अनाज चना, और दालों में उडद की दाल मानी जाती है।
=== भारत में तीन चमत्कारिक शनि सिद्ध पीठ ===
शनि के चमत्कारिक सिद्ध पीठों में तीन पीठ ही मुख्य माने जाते हैं, इन सिद्ध पीठों मे जाने और अपने किये गये पापॊं की क्षमा मागने से जो भी पाप होते हैं उनके अन्दर कमी आकर जातक को फ़ौरन लाभ मिलता है। जो लोग इन चमत्कारिक पीठों को कोरी कल्पना मानते हैं, उअन्के प्रति केवल इतना ही कहा जा सकता है, कि उनके पुराने पुण्य कर्मों के अनुसार जब तक उनका जीवन सुचारु रूप से चल रहा तभी तक ठीक कहा जा सकता है, भविष्य मे जब कठिनाई सामने आयेगी, तो वे भी इन सिद्ध पीठों के लिये ढूंढते फ़िरेंगे, और उनको भी याद आयेगा कि कभी किसी के प्रति मखौल किया था। अगर इन सिद्ध पीठों के प्रति मान्यता नही होती तो आज से साढे तीन हजार साल पहले से कितने ही उन लोगों की तरह बुद्धिमान लोगों ने जन्म लिया होगा, और अपनी अपनी करते करते मर गये होंगे.लेकिन वे पीठ आज भी ज्यों के त्यों है और लोगों की मान्यता आज भी वैसी की वैसी ही है।
 
=== महाराष्ट्र का शिंगणापुर गांव का सिद्ध पीठ ===
{{main|शनि मंदिर, शिंग्लापुर}}
 
 
शिंगणापुर गांव मे शनिदेव का अद्भुत चमत्कार है। इस गांव में आज तक किसी ने अपने घर में ताला नही लगाया, इसी बात से अन्दाज लगाया जा सकता है कि कितनी महानता इस सिद्ध पीठ में है। आज तक के इतिहास में किसी चोर ने आकर इस गांव में चोरी नही की, अगर किसी ने प्रयास भी किया है तो वह फ़ौरन ही पीडित हो गया। दर्शन, पूजा, तेल स्नान, शनिदेव को करवाने से तुरन्त शनि पीड़ाओं में कमी आजाती है, लेकिन वह ही यहां पहुंचता है, जिसके ऊपर शनिदेव की कृपा हो गयी होती है।
 
=== मध्यप्रदेश के ग्वालियर के पास शनिश्चरा मन्दिर ===
महावीर हनुमानजी के द्वारा लंका से फ़ेंका हुआ अलौकिक शनिदेव का पिण्ड है, शनिशचरी अमावश्या को यहां मेला लगता है। और जातक शनि देव पर तेल चढाकर उनसे गले मिलते हैं। साथ ही पहने हुये कपडे जूते आदि वहीं पर छोड कर समस्त दरिद्रता को त्याग कर और क्लेशों को छोड कर अपने अपने घरों को चले जाते हैं। इस पीठ की पूजा करने पर भी तुरन्त फ़ल मिलता है।
 
=== उत्तर प्रदेश के कोशी के पास कौकिला वन में सिद्ध शनि देव का मन्दिर ===
लोगों की हंसी करने की आदत है। रामायण के पुष्पक विमान की बात सुन कर लोग जो नही समझते थे, वे हंसी किया करते थे, जब तक स्वयं रामेश्वरम के दर्शन नही करें, तब तक पत्थर भी पानी में तैर सकते हैं, विश्वास ही नही होता, लेकिन जब रामकुन्ड के पास जाकर उस पत्थर के दर्शन किये और साक्षात रूप से पानी में तैरता हुआ पाया तो सिवाय नमस्कार करने के और कुछ समझ में नही आया। जब भगवान श्री कृष्ण का बंशी बजाता हुआ एक पैर से खडा हुआ रूप देखा तो समझ में आया कि विद्वानों ने शनि देव के बीज मंत्र में जो (शं) बीज का अच्छर चुना है, वह अगर रेखांकित रूप से सजा दिया जाये तो वह और कोई नही स्वयं शनिदेव के रूप मे भगवान श्री कृष्ण ही माने जायेंगे.यह सिद्ध पीठ कोसी से छ: किलोमीटर दूर और नन्द गांव से सटा हुआ कोकिला वन है, इस वन में द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण जो सोलह कला सम्पूर्ण ईश्वर हैं, ने शनि को कहावतों और पुराणों की कथाओं के अनुसार दर्शन दिया, और आशीर्वाद भी दिया कि यह वन उनका है, और जो इस वन की परिक्रमा करेगा, और शनिदेव की पूजा अर्चना करेगा, वह मेरी कृपा की तरह से ही शनिदेव की कृपा प्राप्त कर सकेगा.और जो भी जातक इस शनि सिद्ध पीठ के प्रति दर्शन, पूजा पाठ का अन्तर्मुखी होकर सद्भावना से विश्वास करेगा, वह भी शनि के किसी भी उपद्रव से ग्रस्त नही होगा.यहां पर शनिवार को मेला लगता है। जातक अपने अपने श्रद्धानुसार कोई दंडवत परिक्रमा करता है, या कोई पैदल परिक्रमा करता है, जो लोग शनि देव का राजा दशरथ कृत स्तोत्र का पाठ करते हुए, या शनि के बीज मंत्र का जाप करते हुये परिक्रमा करते हैं, उनको अच्छे फ़लों की शीघ्र प्राप्ति हो जाती है।
 
== शनि की साढ़े साती ==
ज्योतिष के अनुसार शनि की साढेसाती की मान्यतायें तीन प्रकार से होती हैं, पहली लगन से दूसरी चन्द्र लगन या राशि से और तीसरी सूर्य लगन से, उत्तर भारत में चन्द्र लगन से शनि की साढे साती की गणना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है। इस मान्यता के अनुसार जब शनिदेव चन्द्र राशि पर गोचर से अपना भ्रमण करते हैं तो साढेसाती मानी जाती है, इसका प्रभाव राशि में आने के तीस माह पहले से और तीस माह बाद तक अनुभव होता है। साढेसाती के दौरान शनि जातक के पिअले किये गये कर्मों का हिसाब उसी प्रकार से लेता है, जैसे एक घर के नौकर को पूरी जिम्मेदारी देने के बाद मालिक कुछ समय बाद हिसाब मांगता है, और हिसाब में भूल होने पर या गल्ती करने पर जिस प्रकार से सजा नौकर को दी जाती है उसी प्रकार से सजा शनि देव भी हर प्राणी को देते हैं। और यही नही जिन लोगों ने अच्छे कर्म किये होते हैं तो उनको साढेशाती पुरस्कार भी प्रदान करती है, जैसे नगर या ग्राम का या शहर का मुखिया बना दिया जाना आदि.शनि की साढेसाती के आख्यान अनेक लोगों के प्राप्त होते हैं, जैसे राजा विक्रमादित्य, राजा नल, राजा हरिश्चन्द्र, शनि की साढेसाती संत महात्माओं को भी प्रताडित करती है, जो जोग के साथ भोग को अपनाने लगते हैं। हर मनुष्य को तीस साल मे एक बार साढेसाती अवश्य आती है, यदि यह साढे साती धनु, मीन, मकर, कुम्भ राशि मे होती है, तो कम पीडाजनक होती है, यदि यह साढेसाती चौथे, छठे, आठवें, और बारहवें भाव में होगी, तो जातक को अवश्य दुखी करेगी, और तीनो सुख शारीरिक, मानसिक, और आर्थिक को हरण करेगी.इन साढेसातियों में कभी भूलकर भी "नीलम" नही धारण करना चाहिये, यदि किया गया तो वजाय लाभ के हानि होने की पूरी सम्भावना होती है। कोई नया काम, नया उद्योग, भूल कर भी साढेसाती में नही करना चाहिये, किसी भी काम को करने से पहले किसी जानकार ज्योतिषी से जानकारी अवश्य कर लेनी चाहिये.यहां तक कि वाहन को भी भूलकर इस समय में नही खरीदना चाहिये, अन्यथा वह वाहन सुख का वाहन न होकर दुखों का वाहन हो जायेगा.हमने अपने पिछले पच्चीस साल के अनुभव मे देखा है कि साढेसाती में कितने ही उद्योगपतियों का बुरा हाल हो गया, और जो करोडपति थे, वे रोडपति होकर एक गमछे में घूमने लगे.इस प्रकार से यह भी नौभव किया कि शनि जब भी चार, छ:, आठ, बारह मे विचरण करेगा, तो उसका मूल धन तो नष्त होगा ही, कितना ही जतन क्यों न किया जाये.और शनि के इस समय का विचार पहले से कर लिया गया है तो धन की रक्षा हो जाती है। यदि सावधानी नही बरती गई तो मात्र पछतावा ही रह जाता है। अत: प्रत्येक मनुष्य को इस समय का शनि आरम्भ होने के पहले ही जप तप और जो विधान हम आगे बातायेंगे उनको कर लेना चाहिये.
शनि देव के प्रकोप से बचने के लिए रावण ने उन्हें अपनी कैद में पैरों से बांध कर सर नीचे की तरफ किये हुए रखा था ताकि शनि की वक्र दृष्टि रावण पे न पड़े। आज भी कई हिन्दू जाने अनजाने रावण की भांति प्रतीकात्मक तौर पे शनि प्रतिरूप को दुकानों या वाहनों में पैरों से बांध कर उल्टा लटकाते हैं। हालांकि पौराणिक सुझाव श्री हनुमान की भक्ति करने का है, क्योकि शनि देव ने हनुमान जी को वरदान दिया था कि हनुमान भक्तों पर शनि की वक्र दृष्टि नहीं पड़ेगी।
 
== शनि परमकल्याण की तरफ़ भेजता है ==
शनिदेव परमकल्याण कर्ता न्यायाधीश और जीव का परमहितैषी ग्रह माने जाते हैं। ईश्वर पारायण प्राणी जो जन्म जन्मान्तर तपस्या करते हैं, तपस्या सफ़ल होने के समय अविद्या, माया से सम्मोहित होकर पतित हो जाते हैं, अर्थात तप पूर्ण नही कर पाते हैं, उन तपस्विओं की तपस्या को सफ़ल करने के लिये शनिदेव परम कृपालु होकर भावी जन्मों में पुन: तप करने की प्रेरणा देता है। द्रेष्काण कुन्डली मे जब शनि को चन्द्रमा देखता है, या चन्द्रमा शनि के द्वारा देखा जाता है, तो उच्च कोटि का संत बना देता है। और ऐसा व्यक्ति पारिवारिक मोह से विरक्त होकर कर महान संत बना कर बैराग्य देता है। शनि पूर्व जन्म के तप को पूर्ण करने के लिये प्राणी की समस्त मनोवृत्तियों को परमात्मा में लगाने के लिये मनुष्य को अन्त रहित भाव देकर उच्च स्तरीय महात्मा बना देता है। ताकि वर्तमान जन्म में उसकी तपस्या सफ़ल हो जावे, और वह परमानन्द का आनन्द लेकर प्रभु दर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर सके.यह चन्द्रमा और शनि की उपासना से सुलभ हो पाता है। शनि तप करने की प्रेरणा देता है। और शनि उसके मन को परमात्मा में स्थित करता है। कारण शनि ही नवग्रहों में जातक के ज्ञान चक्षु खोलता है।
* ज्ञान चक्षुर्नमस्तेअस्तु कश्यपात्मज सूनवे.तुष्टो ददासि बैराज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात.
* तप से संभव को भी असंभव किया जा सकता है। ज्ञान, धन, कीर्ति, नेत्रबल, मनोबल, स्वर्ग मुक्ति, सुख शान्ति, यह सब कुच तप की अग्नि में पकाने के बाद ही सुलभ हो पाता है। जब तक अग्नि जलती है, तब तक उसमें उष्मा अर्थात गर्मी बनी रहती है। मनुष्य मात्र को जीवन के अंत तक अपनी शक्ति को स्थिर रखना चाहिये.जीवन में शिथिलता आना असफ़लता है। सफ़लता हेतु गतिशीलता आवश्यक है, अत: जीवन में तप करते रहना चाहिये.मनुष्य जीवन में सुख शान्ति और समृद्धि की वृद्धि तथा जीवन के अन्दर आये क्लेश, दुख, भय, कलह, द्वेष, आदि से त्राण पाने के लिये दान, मंत्रों का जाप, तप, उपासना आदि बहुत ही आवश्यक है। इस कारण जातक चाहे वह सिद्ध क्यों न हो ग्रह चाल को देख कर दान, जप, आदि द्वारा ग्रहों का अनुग्रह प्राप्त कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करे.अर्थात ग्रहों का शोध अवश्य करे.
* जिस पर ग्रह परमकृपालु होता है, उसको भी इसी तरह से तपाता है। पदम पुराण में राजा दसरथ ने कहा है, शनि ने तप करने के लिये जातक को जंगल में पहुंचा दिया.यदि वह तप में ही रत रहता है, माया के लपेट में नहीं आता है, तप छोड कर अन्य कार्य नही करता है, तो उसके तप को शनि पूर्ण कर देता है, और इसी जन्म में ही परमात्मा के दर्शन भी करा देता है। यदि तप न करके और कुछ ही करने लगे यथा आये थे हरि भजन कों, ओटन लगे कपास, माया के वशीभूत होकर कुच और ही करने लगे, तो शनिदेव उन पर कुपित हो जाते हैं।
* विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत.इस त्रिगुण्मयी माया को जीतने हेतु तथा कंचन एव्म कामिनी के परित्याग हेतु आत्माओं को बारह चौदह घंटे नित्य प्रति उपासना, आराधना और प्रभु चिन्तन करना चाहिये.अपने ही अन्त:करण से पूम्छना चाहिये, कि जिसके लिये हमने संसार का त्याग किया, संकल्प करके चले, कि हम तुम्हें ध्यायेंगे, फ़िर भजन क्यों नही हो रहा है। यदि चित्त को एकाग्र करके शान्ति पूर्वक अपने मन से ही प्रश्न करेंगे, तो निश्चित ही उत्तर मिलेगा, मन को एकाग्र कर भजन पूजन में मन लगाने से एवं जप द्वारा इच्छित फ़ल प्राप्त करने का उपाय है। जातक को नवग्रहों के नौ करोड मंत्रों का सर्व प्रथम जाप कर ले या करवा ले.
 
== काशी में शनिदेव ने तपस्या करने के बाद ग्रहत्व प्राप्त किया था ==
स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में वृतांत आता है, कि छाया सुत श्री शनिदेव ने अपने पिता भगवान सूर्य देव से प्रश्न किया कि हे पिता! मैं ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ, जिसे आज तक किसी ने प्राप्त नही किया, हे पिता ! आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो, मुझे आपसे अधिक सात गुना शक्ति प्राप्त हो, मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये, चाहे वह देव, असुर, दानव, या सिद्ध साधक ही क्यों न हो.आपके लोक से मेरा लोक सात गुना ऊंचा रहे.दूसरा वरदान मैं यह प्राप्त करना चाहता हूँ, कि मुझे मेरे आराध्य देव भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन हों, तथा मै भक्ति ज्ञान और विज्ञान से पूर्ण हो सकूं.शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य प्रसन्न तथा गदगद हुए, और कह, बेटा ! मै भी यही चाहता हूँ, के तू मेरे से सात गुना अधिक शक्ति वाला हो.मै भी तेरे प्रभाव को सहन नही कर सकूं, इसके लिये तुझे तप करना होगा, तप करने के लिये तू काशी चला जा, वहां जाकर भगवान शंकर का घनघोर तप कर, और शिवलिंग की स्थापना कर, तथा भगवान शंकर से मनवांछित फ़लों की प्राप्ति कर ले.शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया, और तप करने के बाद भगवान शंकर के वर्तमान में भी स्थित शिवलिंग की स्थापना की, जो आज भी काशी-विश्वनाथ के नाम से जाना जाता है, और कर्म के कारक शनि ने अपने मनोवांछित फ़लों की प्राप्ति भगवान शंकर से की, और ग्रहों में सर्वोपरि पद प्राप्त किया।
 
== शनि मंत्र<ref> {{cite web|url=https://m-hindi.webdunia.com/astrology-tantra-mantra-yantra/shani-mantra-117052200069_1.html|title=शनि मंत्र||work=m-hindi.webdunia.com|accessdate=3 May 2019}} </ref> ==
शनि ग्रह की पीडा से निवारण के लिये पाठ, पूजा, स्तोत्र, मंत्र और गायत्री आदि को लिख रहा हूँ, जो काफ़ी लाभकारी सिद्ध होंगे.नित्य १०८ पाथ करने से चमत्कारी लाभ प्राप्त होगा।
* विनियोग:-शन्नो देवीति मंत्रस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:, आपो देवता, शनि प्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।
* नीचे लिखे गये कोष्ठकों के अन्गों को उंगलियों से छुयें:-
* अथ देहान्गन्यास:-शन्नो शिरसि (सिर), देवी: ललाटे (माथा).अभिषटय मुखे (मुख), आपो कण्ठे (कण्ठ), भवन्तु हृदये (हृदय), पीतये नाभौ (नाभि), शं कट्याम (कमर), यो: ऊर्वो: (छाती), अभि जान्वो: (घुटने), स्त्रवन्तु गुल्फ़यो: (गुल्फ़), न: पादयो: (पैर)।
* अथ करन्यास:-शन्नो देवी: अंगुष्ठाभ्याम नम:।अभिष्टये तर्ज्जनीभ्याम नम:। आपो भवन्तु मध्यमाभ्याम नम:.पीतये अनामिकाभ्याम नम:। शंय्योरभि कनिष्ठिकाभ्याम नम:। स्त्रवन्तु न: करतलकरपृष्ठाभ्याम नम:।
* अथ ह्रदयादिन्यास:-शन्नो देवी ह्रदयाय नम:।अभिष्टये शिरसे स्वाहा.आपो भवन्तु शिखायै वषट।पीतये कवचाय हुँ(दोनो कन्धे)।शंय्योरभि नेत्रत्राय वौषट। स्त्रवन्तु न: अस्त्राय फ़ट।
* ध्यानम:-नीलाम्बर: शूलधर: किरीटी गृद्ध्स्थितस्त्रासकरो धनुश्मान.चतुर्भुज: सूर्यसुत: प्रशान्त: सदाअस्तु मह्यं वरदोअल्पगामी॥
* शनि गायत्री:- ॐ कृष्णांगाय विद्य्महे रविपुत्राय धीमहि तन्न: सौरि: प्रचोदयात.
* वेद मंत्र:- ॐ प्राँ प्रीँ प्रौँ स: भूर्भुव: स्व: औम शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिस्त्रवन्तु न:। औम स्व: भुव: भू: प्रौं प्रीं प्रां औम शनिश्चराय नम:।
* जप मंत्र :- ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम:। नित्य २३००० जाप प्रतिदिन।
* नीलाञ्जन समाभासम् रविपुत्रम् यमाग्रजम्। छायार्मातण्ड सम्भूतम् तंत्र नमामि शनैश्चरम्
 
== शनि बीज मन्त्र और अष्टोत्तरशतनामावली <ref> {{cite web|url=http://web.bookstruck.in/book/chapter/55262|title=शनि अष्टोत्तरशतनामावली|work=web.bookstruck.in|accessdate=3 May 2019}} </ref>==
 
शनि बीज मन्त्र –
:ॐ प्राँ प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः ॥
 
शनि अष्टोत्तरशतनामावली
 
ॐ शनैश्चराय नमः ॥
ॐ शान्ताय नमः ॥
ॐ सर्वाभीष्टप्रदायिने नमः ॥
ॐ शरण्याय नमः ॥
ॐ वरेण्याय नमः ॥
ॐ सर्वेशाय नमः ॥
ॐ सौम्याय नमः ॥
ॐ सुरवन्द्याय नमः ॥
ॐ सुरलोकविहारिणे नमः ॥
ॐ सुखासनोपविष्टाय नमः ॥
ॐ सुन्दराय नमः ॥
ॐ घनाय नमः ॥
ॐ घनरूपाय नमः ॥
ॐ घनाभरणधारिणे नमः ॥
ॐ घनसारविलेपाय नमः ॥
ॐ खद्योताय नमः ॥
ॐ मन्दाय नमः ॥
ॐ मन्दचेष्टाय नमः ॥
ॐ महनीयगुणात्मने नमः ॥
ॐ मर्त्यपावनपदाय नमः ॥
ॐ महेशाय नमः ॥
ॐ छायापुत्राय नमः ॥
ॐ शर्वाय नमः ॥
ॐ शततूणीरधारिणे नमः ॥
ॐ चरस्थिरस्वभा वाय नमः ॥
ॐ अचंचलाय नमः ॥
ॐ नीलवर्णाय नमः ॥
ॐ नित्याय नमः ॥
ॐ नीलांजननिभाय नमः ॥
ॐ नीलाम्बरविभूशणाय नमः ॥
ॐ निश्चलाय नमः ॥
ॐ वेद्याय नमः ॥
ॐ विधिरूपाय नमः ॥
ॐ विरोधाधारभूमये नमः ॥
ॐ भेदास्पदस्वभावाय नमः ॥
ॐ वज्रदेहाय नमः ॥
ॐ वैराग्यदाय नमः ॥
ॐ वीराय नमः ॥
ॐ वीतरोगभयाय नमः ॥
ॐ विपत्परम्परेशाय नमः ॥
ॐ विश्ववन्द्याय नमः ॥
ॐ गृध्नवाहाय नमः ॥
ॐ गूढाय नमः ॥
ॐ कूर्मांगाय नमः ॥
ॐ कुरूपिणे नमः ॥
ॐ कुत्सिताय नमः ॥
ॐ गुणाढ्याय नमः ॥
ॐ गोचराय नमः ॥
ॐ अविद्यामूलनाशाय नमः ॥
ॐ विद्याविद्यास्वरूपिणे नमः ॥
ॐ आयुष्यकारणाय नमः ॥
ॐ आपदुद्धर्त्रे नमः ॥
ॐ विष्णुभक्ताय नमः ॥
ॐ वशिने नमः ॥
ॐ विविधागमवेदिने नमः ॥
ॐ विधिस्तुत्याय नमः ॥
ॐ वन्द्याय नमः ॥
ॐ विरूपाक्षाय नमः ॥
ॐ वरिष्ठाय नमः ॥
ॐ गरिष्ठाय नमः ॥
ॐ वज्रांकुशधराय नमः ॥
ॐ वरदाभयहस्ताय नमः ॥
ॐ वामनाय नमः ॥
ॐ ज्येष्ठापत्नीसमेताय नमः ॥
ॐ श्रेष्ठाय नमः ॥
ॐ मितभाषिणे नमः ॥
ॐ कष्टौघनाशकर्त्रे नमः ॥
ॐ पुष्टिदाय नमः ॥
ॐ स्तुत्याय नमः ॥
ॐ स्तोत्रगम्याय नमः ॥
ॐ भक्तिवश्याय नमः ॥
ॐ भानवे नमः ॥
ॐ भानुपुत्राय नमः ॥
ॐ भव्याय नमः ॥
ॐ पावनाय नमः ॥
ॐ धनुर्मण्डलसंस्थाय नमः ॥
ॐ धनदाय नमः ॥
ॐ धनुष्मते नमः ॥
ॐ तनुप्रकाशदेहाय नमः ॥
ॐ तामसाय नमः ॥
ॐ अशेषजनवन्द्याय नमः ॥
ॐ विशेशफलदायिने नमः ॥
ॐ वशीकृतजनेशाय नमः ॥
ॐ पशूनां पतये नमः ॥
ॐ खेचराय नमः ॥
ॐ खगेशाय नमः ॥
ॐ घननीलाम्बराय नमः ॥
ॐ काठिन्यमानसाय नमः ॥
ॐ आर्यगणस्तुत्याय नमः ॥
ॐ नीलच्छत्राय नमः ॥
ॐ नित्याय नमः ॥
ॐ निर्गुणाय नमः ॥
ॐ गुणात्मने नमः ॥
ॐ निरामयाय नमः ॥
ॐ निन्द्याय नमः ॥
ॐ वन्दनीयाय नमः ॥
ॐ धीराय नमः ॥
ॐ दिव्यदेहाय नमः ॥
ॐ दीनार्तिहरणाय नमः ॥
ॐ दैन्यनाशकराय नमः ॥
ॐ आर्यजनगण्याय नमः ॥
ॐ क्रूराय नमः ॥
ॐ क्रूरचेष्टाय नमः ॥
ॐ कामक्रोधकराय नमः ॥
ॐ कलत्रपुत्रशत्रुत्वकारणाय नमः ॥
ॐ परिपोषितभक्ताय नमः ॥
ॐ परभीतिहराय नमः ॥
ॐ भक्तसंघमनोऽभीष्टफलदाय नमः ॥
<poem>
इसका नित्य १०८ पाठ करने से शनि सम्बन्धी सभी पीडायें समाप्त हो जाती हैं। तथा पाठ कर्ता धन धान्य समृद्धि वैभव से पूर्ण हो जाता है। और उसके सभी बिगडे कार्य बनने लगते है। यह सौ प्रतिशत अनुभूत है।
</poem>
 
== शनि स्तोत्रम् <ref> {{cite web|url=https://sanskritdocuments.org/doc_z_misc_navagraha/shani.html?lang=sa|title=शनि स्तोत्रम्||work=sanskritdocuments.org|accessdate=3 May 2019}} </ref>==
 
:कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रुः कृष्णः शनिः पिंगलमन्दसौरिः।
:नित्यं स्मृतो यो हरते य पीड़ा तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:सुराऽसुरा किंपुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्व-विद्याधर-पन्नगाश्च।
:पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:नरा नरेंद्राः पशवो मृगेन्द्राः वन्याश्च ये कीटपतंङ्गभृंङ्गाः।
:पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानिवेशाः पुरपत्तनानि।
:पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:तिलैर्यवैर्माणगुडान्नदानैर्लोहेन नीलाम्बरदानतो वा।
:प्रीणाति मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:प्रयागकूले यमुनातटे च सरस्वतीपुण्डजले गुहायाम्।
:यो योगिनां ध्यानगताऽपि सूक्ष्मस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:अन्यप्रदेशात् स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नरः सुखी स्यातः।
:गृहाद्गगतो यो न पुनः प्रयाति तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:स्रष्टा स्वयंभूर्भुवनत्रयस्य त्राता हरीशो हरते पिनाकी।
:एकस्रिधा ऋग्युजः साममूर्तिस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय।।
:शन्यष्टकं यः प्रयतः प्रभाते नित्यं सुपुत्रैः पशुबान्धवैश्च।
:पठेत्तु सौख्यं भुवि भोगयुक्तः प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते।।
:कोणस्थः पिंङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रोद्रोऽन्तको यमः।
:सोरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्लादेन संस्तुतः।।
:एतानि दश नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
:शनैश्चरकृता पीड़ा न कदाचिद् भविष्यति।।
 
;।। इति श्रीदशरथकृत शनैश्चरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।
 
== शनि चालीसा <ref> {{cite web|url=https://dharmyatra.org/shani-chalisa.php|title=शनि चालीसा|work=dharmyatra.org|accessdate=3 May 2019}} </ref> ==
 
:जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।
:दीनन के दुःख दूर करि, कीजै नाथ निहाल।।
:जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।
:करहूँ कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज।।
<poem>
:जयति जयति शनिदेव दयाला, करत सदा भक्तन प्रतिपाला,
:चारि भुजा, तनु श्याम विराजै, माथे रतन मुकुट छवि छाजै।
:परम विशाल मनोहर भाला, टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला,
:कुण्डल श्रवन चमाचम चमके, हिये माल मुक्तन मणि दमकै।।
</poem>
<poem>
:कर में गदा त्रिशूल कुठारा, पल बिच करैं अरिहिं संहारा,
:पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन, यम, कोणस्थ, रौद्र, दुःख भंजन।
:सौरी, मन्द शनि दश नामा, भानु पुत्र पूजहिं सब कामा,
:जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वै जाहीं, रंकहुं राव करैं क्षण माहीं।।
</poem>
<poem>
:पर्वतहूँ तृण होइ निहारत, तृणहूँ को पर्वत करि डारत,
:राज मिलत वन रामहिं दीन्हयो, कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो।
:वनहूँ में मृग कपट दिखाई, मातु जानकी गई चुराई,
:लखनहिं शक्ति विकल करिडारा, मचिगा दल में हाहाकारा।।
</poem>
<poem>
:रावण की गति-मति बौराई, रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई,
:दियो कीट करि कंचन लंका, बजि बजरंग बीर की डंका।
:नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा, चित्र मयूर निगलि गै हारा,
:हार नौलखा लाग्यो चोरी, हाथ पैर डरवायो तोरी।।
</poem>
<poem>
:भारी दशा निकृष्ट दिखायो, तेलहिं घर कोल्हू चलवायो,
:विनय राग दीपक महँ कीन्हों, तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों।
:हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी, आपहूँ भरे डोम घर पानी,
:तैसे नल पर दशा सिरानी, भूंजी-मीन कूद गई पानी।।
</poem>
<poem>
:श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई, पारवती को सती कराई,
:तनिक विकलोकत ही करि रीसा, नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा।
:पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी, बची द्रोपदी होति उघारी,
:कौरव के भी गति मति मारयो, युद्ध महाभारत करि डारयो।।
</poem>
<poem>
:रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला, लेकर कूदि परयो पाताला,
:शेष देव-लखि विनती लाई, रवि को मुख ते दियो छुड़ाई।
:वाहन प्रभु के सात सुजाना, हय, दिग्गज, गर्दभ, मृग, स्वाना,
:जम्बुक सिंह आदि नख धारी, सो फल ज्योतिष कहत पुकारी।।
</poem>
<poem>
:गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं, हय ते सुख सम्पत्ति उपजावै,
:गर्दभ हानि करै बहु काजा, सिंह सिद्ध करै राज समाजा।
:जम्बुक बुद्धि नष्ट करि डारै, मृग दे कष्ट प्राण संहारै,
:जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी, चोरी आदि होय डर भारी।।
</poem>
<poem>
:तैसहिं चारि चरण यह नामा, स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा,
:लौह चरण पर जब प्रभु आवैं, धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं।
:समता ताम्र, रजत शुभकारी, स्वर्ण सर्वसुख मंगल भारी,
:जो यह शनि चरित्र नित गावै, कबहूँ न दशा निकृष्ट सतावै।।
</poem>
<poem>
:अद्भुत नाथ दिखावैं लीला, करैं शत्रु के नशि बलि ढीला,
:जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई, विधिवत शनि ग्रह शांति कराई।
:पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत, दीप दान दै बहु सुख पावत,
:कहत 'राम सुन्दर' प्रभु दासा, शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा।।
</poem>
<poem>
:पाठ शनिश्चर देव को, की हों विमल तैयार।
:करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार।।
</poem>
;।। इति राम सुन्दर कृत श्री शनि चालीस सम्पूर्णम् ।।
 
== शनि वज्रपिञ्जर-कवचम् <ref> {{cite web|url=http://jyotish-tantra.blogspot.com/2017/12/shani-vajra-panjar-kavach.html?m=1|title=शनि वज्रपिञ्जर-कवचम्|work=jyotish-tantra.blogspot.com|accessdate=3 May 2019}} </ref> ==
 
:नीलाम्बरो नीलवपुः कीरीटी गृधस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान्।
:चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्न: सदा ममता स्याद् वरदः प्रशान्तः।।१ ।।
::::::::'''ब्रह्मा उवाच'''
:श्रृणुध्वमृषयः सर्वे शनिपीड़ाहरं महत्। कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमुत्तमम्।।२।।
:कवचं देवतावासं वज्रपञ्जरसंज्ञकम्। शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम्।।३ ।।
:ॐ श्रीशनैश्चरः पातु भालं मे सूर्यनन्दनः। नेत्रे छायात्मजः पातु पातु कर्णौ यमानुजः।। ४ ।।
:नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे भास्करः सदा। स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठं भुजौ पातु महाभुजः।।५।।
:स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु शुभप्रदः। वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्तथा।।६ ।।
:नाभिं गृहपतिः पातु मन्दः पातु कटिं तथा। ऊरू ममाऽन्तकः पातु यमो जानायुगं तथा।।७ ।।
:पदौ मन्दगतिः पातु सर्वांङ्ग पातु पिप्पलः। अंङ्गोपांङ्गानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्नयन्दनः।।८ ।।
:इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्यसुतस्य यः। न तस्य जायते पीड़ा प्रीतो भवति सूर्यजः।। ९ ।।
:व्यय-जन्म-द्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोऽपि वा। कलत्रस्थो गतो वाऽपि सुप्रीतस्तु सदा शनिः।।१०।।
:अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे। कवचं पठते नित्यं न पीड़ा जायते क्वचित्।।११।।
:इत्येतत् कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा। द्वादशा-ऽष्टम-जन्मस्थ-दोषान्नशायते सदा। जन्मलग्नस्थितान दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभुः।।१२।।
;।। इति [[ब्रह्माण्डपुराण|श्रीब्रह्माण्डपुराणे]] ब्रह्म-नारदसंवादे शनिवज्रपिञ्जर-कवचं सम्पूर्णम् ।।
 
== शनि संबंधी रोग <ref> {{cite web|url=https://mnaidunia.jagran.com/lite/spiritual/kehte-hain-these-diseases-can-be-attributed-to-shani-1170978|title=शनि संबंधी रोग|work=mnaidunia.jagran.com|accessdate=3 May 2019}} </ref> ==
 
* उन्माद नाम का रोग शनि की देन है, जब दिमाग में सोचने विचारने की शक्ति नष्ट हो जाती है, जो व्यक्ति करता जा रहा होता है, उसे ही करता चला जाता है, उसे यह पता नहीं है कि वह जो कर रहा है, उससे उसके साथ परिवार वालों के प्रति बुरा हो रहा है, या भला हो रहा है, संसार के लोगों के प्रति उसके क्या कर्तव्य हैं, उसे पता नही होता, सभी को एक लकड़ी से हांकने वाली बात उसके जीवन में मिलती है, वह क्या खा रहा है, उसका उसे पता नही है कि खाने के बाद क्या होगा, जानवरों को मारना, मानव वध करने में नही हिचकना, शराब और मांस का लगातार प्रयोग करना, जहां भी रहना आतंक मचाये रहना, जो भी सगे सम्बन्धी हैं, उनको चिन्ता देते रहना आदि उन्माद नाम के रोग के लक्षण है।
* वात रोग का अर्थ है वायु वाले रोग, जो लोग बिना कुछ अच्छा खाये पिये फ़ूलते चले जाते है, शरीर में वायु कुपित हो जाती है, उठना बैठना दूभर हो जाता है, शनि यह रोग देकर जातक को एक जगह पटक देता है, यह रोग लगातार सट्टा, जुआ, लाटरी, घोड़ादौड़ और अन्य तुरंत पैसा बनाने वाले कामों को करने वाले लोगों मे अधिक देखा जाता है। किसी भी इस तरह के काम करते वक्त व्यक्ति लम्बी सांस खींचता है, उस लम्बी सांस के अन्दर जो हारने या जीतने की चाहत रखने पर ठंडी वायु होती है वह शरीर के अन्दर ही रुक जाती है, और अंगों के अन्दर भरती रहती है। अनितिक काम करने वालों और अनाचार काम करने वालों के प्रति भी इस तरह के लक्षण देखे गये है।
* भगन्दर रोग गुदे में घाव या न जाने वाले फ़ोडे के रूप में होता है। अधिक चिन्ता करने से यह रोग अधिक मात्रा में होता देखा गया है। चिन्ता करने से जो भी खाया जाता है, वह आंतों में जमा होता रहता है, पचता नही है, और चिन्ता करने से उवासी लगातार छोडने से शरीर में पानी की मात्रा कम हो जाती है, मल गांठों के रूप मे आमाशय से बाहर कडा होकर गुदा मार्ग से जब बाहर निकलता है तो लौह पिण्ड की भांति गुदा के छेद की मुलायम दीवाल को फ़ाडता हुआ निकलता है, लगातार मल का इसी तरह से निकलने पर पहले से पैदा हुए घाव ठीक नही हो पाते हैं, और इतना अधिक संक्रमण हो जाता है, कि किसी प्रकार की एन्टीबायटिक काम नही कर पाती है।
* गठिया रोग शनि की ही देन है। शीलन भरे स्थानों का निवास, चोरी और डकैती आदि करने वाले लोग अधिकतर इसी तरह का स्थान चुनते है, चिन्ताओं के कारण एकान्त बन्द जगह पर पडे रहना, अनैतिक रूप से संभोग करना, कृत्रिम रूप से हवा में अपने वीर्य को स्खलित करना, हस्त मैथुन, गुदा मैथुन, कृत्रिम साधनो से उंगली और लकडी, प्लास्टिक, आदि से यौनि को लगातार खुजलाते रहना, शरीर में जितने भी जोड हैं, रज या वीर्य स्खलित होने के समय वे भयंकर रूप से उत्तेजित हो जाते हैं। और हवा को अपने अन्दर सोख कर जोडों के अन्दर मैद नामक तत्व को खत्म कर देते हैं, हड्डी के अन्दर जो सबल तत्व होता है, जिसे शरीर का तेज भी कहते हैं, धीरे धीरे खत्म हो जाता है, और जातक के जोडों के अन्दर सूजन पैदा होने के बाद जातक को उठने बैठने और रोज के कामों को करने में भयंकर परेशानी उठानी पडती है, इस रोग को देकर शनि जातक को अपने द्वारा किये गये अधिक वासना के दुष्परिणामों की सजा को भुगतवाता है।
* स्नायु रोग के कारण शरीर की नशें पूरी तरह से अपना काम नही कर पाती हैं, गले के पीछे से दाहिनी तरफ़ से दिमाग को लगातार धोने के लिये शरीर पानी भेजता है, और बायीं तरफ़ से वह गन्दा पानी शरीर के अन्दर साफ़ होने के लिये जाता है, इस दिमागी सफ़ाई वाले पानी के अन्दर अवरोध होने के कारण दिमाग की गन्दगी साफ़ नही हो पाती है, और व्यक्ति जैसा दिमागी पानी है, उसी तरह से अपने मन को सोचने मे लगा लेता है, इस कारण से जातक में दिमागी दुर्बलता आ जाती है, वह आंखों के अन्दर कमजोरी महसूस करता है, सिर की पीडा, किसी भी बात का विचार करते ही मूर्छा आजाना मिर्गी, हिस्टीरिया, उत्तेजना, भूत का खेलने लग जाना आदि इसी कारण से ही पैदा होता है। इस रोग का कारक भी शनि है, अगर लगातार शनि के बीज मंत्र का जाप जातक से करवाया जाय, और उडद जो शनि का अनाज है, की दाल का प्रयोग करवाया जाय, रोटी मे चने का प्रयोग किया जाय, लोहे के बर्तन में खाना खाया जाये, तो इस रोग से मुक्ति मिल जाती है।
* इन रोगों के अलावा पेट के रोग, जंघाओं के रोग, टीबी, कैंसर आदि रोग भी शनि की देन है।
* शनि की साडेसाती में शरीर से पसीने की बदबू आने लगती है। इस वजह से लोग दूर भागते है।
 
== शनि यंत्र विधान <ref> {{cite web|url=https://www.m-hindi.webdunia.com/astrology-tantra-mantra-yantra/shani-dev-puja-vidhi-115041600036_1.html|title=शनि यंत्र विधान|work=m-hindi.webdunia.com|accessdate=3 May 2019}} </ref> ==
[[image:Siddh-Shani-Yantra-1.jpg|right|thumb|300px|शनि यंत्र]]
शनि यंत्र को सिद्ध करके घर में स्थापित करने से हर प्रकार का शनि दोष दूर होने लगता है और साथ ही शनि देव की कृपा भी प्राप्त होने लगती है। कुम्भ और मकर राशी के स्वामी गृह शनि देव है और वे अपनी राशी में थोड़े कमजोर होते है इसलिए कुम्भ और मकर राशी के जातकों को सिद्ध शनि यंत्र घर में स्थापित कर उसकी पूजा अवश्य करनी चाहिए। जिस जातक की कुंडली में लग्न में शनि है उन्हें भी शनि यंत्र द्वारा शनि आराधना करनी चाहिए। जो जातक शनि की साढ़े साती और ढईया से परेशान है उन्हें भी सिद्ध शनि यंत्र द्वारा लाभ अवश्य प्राप्त होता है। इन सबके अतिरिक्त जीवन में जब हर तरफ से दुःख और पीड़ाएं आने लगें तो ऐसे में शनि आराधना करने से लाभ अवश्य मिलता है।
 
== शनि संबंधी वस्तुएँ ==
नीलम, नीलिमा, नीलमणि, जामुनिया, नीला कटेला, आदि शनि के रत्न और उपरत्न हैं। अच्छा रत्न शनिवार को पुष्य नक्षत्र में धारण करना चाहिये.इन रत्नों मे किसी भी रत्न को धारण करते ही चालीस प्रतिशत तक फ़ायदा मिल जाता है।
=== शनि की जुड़ी बूटियां ===
बिच्छू बूटी की जड़ या शमी जिसे छोंकरा भी कहते है की जड़ शनिवार को पुष्य नक्षत्र में काले धागे में पुरुष और स्त्री दोनो ही दाहिने हाथ की भुजा में बांधने से शनि के कुप्रभावों में कमी आना शुरु हो जाता है।<ref> {{cite web|url=https://shanideva.blogspot.com/2009/04/blog-post_4377.html?m=1|title=शनि के रत्न एवं उपरत्न|work=shanideva.blogspot.com|accessdate=4 मई 2019}} </ref>
 
=== शनि सम्बन्धी व्यापार और नौकरी ===
काले रंग की वस्तुयें, लोहा, ऊन, तेल, गैस, कोयला, कार्बन से बनी वस्तुयें, चमडा, मशीनों के पार्ट्स, पेट्रोल, पत्थर, तिल और रंग का व्यापार शनि से जुडे जातकों को फ़ायदा देने वाला होता है। चपरासी की नौकरी, ड्राइवर, समाज कल्याण की नौकरी नगर पालिका वाले काम, जज, वकील, राजदूत आदि वाले पद शनि की नौकरी मे आते हैं।
 
=== शनि सम्बन्धी दान पुण्य ===
पुष्य, अनुराधा, और उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों के समय में शनि पीडा के निमित्त स्वयं के वजन के बराबर के चने, काले कपडे, जामुन के फ़ल, काले उड़द, काली गाय, गोमेध, काले जूते, तिल, भैंस, लोहा, तेल, नीलम, कुलथी, काले फ़ूल, कस्तूरी सोना आदि दान की वस्तुओं शनि के निमित्त दान की जाती हैं।
 
=== शनि सम्बन्धी वस्तुओं की दानोपचार विधि ===
जो जातक शनि से सम्बन्धित दान करना चाहता हो वह उपरोक्त लिखे नक्षत्रों को भली भांति देख कर, और समझ कर अथवा किसी समझदार ज्योतिषी से पूंछ कर ही दान को करे.शनि वाले नक्शत्र के दिन किसी योग्य ब्राहमण को अपने घर पर बुलाये.चरण पखारकर आसन दे, और सुरुचि पूर्ण भोजन करावे, और भोजन के बाद जैसी भी श्रद्धा हो दक्षिणा दे.फ़िर ब्राहमण के दाहिने हाथ में मौली (कलावा) बांधे, तिलक लगावे.जिसे दान देना है, वह अपने हाथ में दान देने वाली वस्तुयें लेवे, जैसे अनाज का दान करना है, तो कुछ दाने उस अनाज के हाथ में लेकर कुछ चावल, फ़ूल, मुद्रा लेकर ब्राहमण से संकल्प पढावे, और कहे कि शनि ग्रह की पीडा के निवार्णार्थ ग्रह कृपा पूर्ण रूपेण प्राप्तयर्थम अहम तुला दानम ब्राहमण का नाम ले और गोत्र का नाम बुलवाये, अनाज या दान सामग्री के ऊपर अपना हाथ तीन बार घुमाकर अथवा अपने ऊपर तीन बार घुमाकर ब्राहमण का हाथ दान सामग्री के ऊपर रखवाकर ब्राहमण के हाथ में समस्त सामग्री छोड देनी चाहिये.इसके बाद ब्राहमण को दक्षिणा सादर विदा करे.जब ग्रह चारों तरफ़ से जातक को घेर ले, कोई उपाय न सूझे, कोई मदद करने के लिये सामने न आये, मंत्र जाप करने की इच्छायें भी समाप्त हो गयीं हों, तो उस समय दान करने से राहत मिलनी आरम्भ हो जाती है। सबसे बडा लाभ यह होता है, कि जातक के अन्दर भगवान भक्ति की भावना का उदय होना चालू हो जाता है और वह मंत्र आदि का जाप चालू कर देता है। जो भी ग्रह प्रतिकूल होते हैं वे अनुकूल होने लगते हैं। जातक की स्थिति में सुधार चालू हो जाता है। और फ़िर से नया जीवन जीने की चाहत पनपने लगती है। और जो शक्तियां चली गयीं होती हैं वे वापस आकर सहायता करने लगती है।
=== शनि ग्रह के द्वारा परेशान करने का कारण ===
दिमाग मे कई बार विचार आते हैं कि शनि के पास केवल परेशान करने के ही काम हैं, क्या शनि देव के और कोई काम नही हैं जो जातक को बिना किसी बात के चलती हुई जिन्दगी में परेशानी दे देते हैं, क्या शनि से केवल हमी से शत्रुता है, जो कितने ही उल्टे सीधे काम करते हैं, और दिन रात गलत काम में लगे रहते हैं, वे हमसे सुखी होते हैं, आखिर इन सबका कारण क्या है। इन सब भ्रान्तियों के उत्तर प्राप्त करने के प्रति जब समाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, और समाज से जुडे सभी प्रकार के ग्रन्थों को खोजा तो जो मिला वह आश्चर्यचकित कर देने वाला तथ्य था। आज के ही नही पुराने जमाने से ही देखा और सुना गया है जो भी इतिहास मिलता है उसके अनुसार जीव को संसार में अपने द्वारा ही मोक्ष के लिये भेजा जाता है। प्रकृति का काम संतुलन करना है, संतुलन में जब बाधा आती है, तो वही संतुलन ही परेशानी का कारण बन जाता है। लगातार आबादी के बढने से और जीविका के साधनों का अभाव पैदा होने से प्रत्येक मानव लगातार भागता जा रहा है, भागने के लिये पहले पैदल व्यवस्था थी, मगर जिस प्रकार से भागम भाग जीवन में प्रतिस्पर्धा बढी विज्ञान की उन्नति के कारण तेज दौडने वाले साधनों का विस्तार हुआ, जो दूरी पहले सालों में तय की जाती थी, वह अब मिनटों में तय होने लगी, यह सब केवल भौतिक सुखों के प्रति ही हो रहा है, जिसे देखो अपने भौतिक सुख के लिये भागता जा रहा है। किसी को किसी प्रकार से दूसरे की चिन्ता नही है, केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये किसी प्रकार से कोई यह नही देख रहा है कि उसके द्वारा किये जाने वाले किसी भी काम के द्वारा किसी का अहित भी हो सकता है, सस्दस्य परिवार के सदस्यॊं को नही देख रहे हैं, परिवार परिवारों को नही देख रहे हैं, गांव गांवो को नही देख रहे हैं, शहर शहरों को नही देख रहे हैं, प्रान्त प्रान्तों को नही देख रहे हैं, देश देशों को नही देख रहा है, अन्तराष्ट्रीय भागम्भाग के चलते केवल अपना ही स्वार्थ देखा और सुना जा रहा है। इस भागमभाग के चलते मानसिक शान्ति का पता नही है कि वह किस कौने मैं बैठ कर सिसकियां ले रही है, जब कि सबको पता है कि भौतिकता के लिये जिस भागमभाग में मनुष्य शामिल है वह केवल कष्टों को ही देने वाली है। जिस हवाई जहाज को खरीदने के लिये सारा जीवन लगा दिया, वही हवाई जहाज एक दिन पूरे परिवार को साथ लेकर आसमान से नीचे टपक पडेगा, और जिस परिवार को अपनी पीढियों दर पीढियों वंश चलाना था, वह क्षणिक भौतिकता के कारण समाप्त हो जायेगा.रहीमदास जी ने बहुत पहले ही लिख दिया था कि -गो धन, गज धन बाजि धन, और रतन धन खान, जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान.तो जिस संतोष की प्राप्ति हमे करनी है, वह हमसे कोसों दूर है। जिस अन्तरिक्ष की यात्रा के लिये आज करोंडो अरबों खर्च किये जा रहे हैं, उस अंतरिक्ष की यात्रा हमारे ऋषि मुनि समाधि अवस्था मे जाकर पूरी कर लिया करते थे, अभी ताजा उदाहरण है कि अमेरिका ने अपने मंगल अभियान के लिये जो यान भेजा था, उसने जो तस्वीरें मंगल ग्रह से धरती पर भेजीं, उनमे एक तस्वीर को देख कर अमेरिकी अंतरिक्ष विभाग नासा के वैज्ञानिक भी सकते में आ गये थे। वह तस्वीर हमारे भारत में पूजी जाने वाली मंगल मूर्ति हनुमानजी के चेहरे से मिलती थी, उस तस्वीर में साफ़ दिखाई दे रहा था कि उस चेहरे के आस पास लाल रंग की मिट्टी फ़ैली पडी है। जबकि हम लोग जब से याद सम्भाले हैं, तभी से कहते और सुनते आ रहे हैं, लाल देह लाली लसे और धरि लाल लंगूर, बज्र देह दानव दलन, जय जय कपि सूर.आप भी नासा की बेब साइट फ़ेस आफ़ द मार्स को देख कर विश्वास कर सकते हैं, या फ़ेस आफ़ मार्स को गूगल सर्च से खोज सकते हैं।
मै आपको बता रहा था कि शनि अपने को परेशानी क्यों देता है, शनि हमें तप करना सिखाता है, या तो अपने आप तप करना चालू कर दो या शनि जबरदस्ती तप करवा लेगा, जब पास में कुछ होगा ही नहीं, तो अपने आप भूखे रहना सीख जाओगे, जब दिमाग में लाखों चिन्तायें प्रवेश कर जायेंगी, तो अपने आप ही भूख प्यास का पता नही चलेगा.तप करने से ही ज्ञान, विज्ञान का बोध प्राप्त होता है। तप करने का मतलब कतई संन्यासी की तरह से समाधि लगाकर बैठने से नही है, तप का मतलब है जो भी है उसका मानसिक रूप से लगातार एक ही कारण को कर्ता मानकर मनन करना.और उसी कार्य पर अपना प्रयास जारी रखना.शनि ही जगत का जज है, वह किसी भी गल्ती की सजा अवश्य देता है, उसके पास कोई माफ़ी नाम की चीज नही है, जब पेड बबूल का बोया है तो बबूल के कांटे ही मिलेंगे आम नही मिलेंगे, धोखे से भी अगर चीटी पैर के नीचे दब कर मर गई है, तो चीटी की मौत की सजा तो जरूर मिलेगी, चाहे वह हो किसी भी रूप में.जातक जब जब क्रोध, लोभ, मोह, के वशीभूत होकर अपना प्राकृतिक संतुलन बिगाड लेता है, और जानते हुए भी कि अत्याचार, अनाचार, पापाचार, और व्यभिचार की सजा बहुत कष्टदायी है, फ़िर भी अनीति वाले काम करता है तो रिजल्ट तो उसे पहले से ही पता होते हैं, लेकिन संसार की नजर से तो बच भी जाता है, लेकिन उस संसार के न्यायाधीश शनि की नजर से तो बचना भगवान शंकर के बस की बात नहीं थी तो एक तुच्छ मनुष्य की क्या बिसात है। तो जो काम यह समझ कर किये जाते हैं कि मुझे कौन देख रहा है, और गलत काम करने के बाद वह कुछ समय के लिये खुशी होता है, अहंकार के वशीभूत होकर वह मान लेता है, मै ही सर्वस्व हूँ, और ईश्वर को नकारकर खुद को ही सर्व नियन्ता मन लेता है, उसकी यह न्याय का देवता शनि बहुत बुरी गति करता है। जो शास्त्रों की मान्यताओं को नकारता हुआ, मर्यादाओं का उलंघन करता हुआ, जो केवल अपनी ही चलाता है, तो उसे समझ लेना चाहिये, कि वह दंड का भागी अवश्य है। शनिदेव की द्रिष्टि बहुत ही सूक्षम है, कर्म के फ़ल का प्रदाता है, तथा परमात्मा की आज्ञा से जिसने जो काम किया है, उसका यथावत भुगतान करना ही उस देवता का काम है। जब तक किये गये अच्छे या बुरे कर्म का भुगतान नही हो जाता, शनि उसका पीछा नहीं छोडता है। भगवान शनि देव परमपिता आनन्द कन्द श्री कृष्ण चन्द के परम भक्त हैं, और श्री कृष्ण भगवान की आज्ञा से ही प्राणी मात्र केर कर्म का भुगतान निरंतर करते हैं। यथा-शनि राखै संसार में हर प्राणी की खैर। ना काहू से दोस्ती और ना काहू से बैर ॥
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://www.chhathpuja.co/my-festivals/viewbulletin/1827-%E0%A4%B6%E0%A4%A8%E0%A4%BF+%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%8D+%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF?groupid=252/ शनि देव् परिचय]
* [http://www.chhathpuja.co/my-festivals/viewbulletin/1826-Shani+dev+birth+story?groupid=252/ शनि देव् का जन्म ]
== स्रोत ==
{{टिप्पणीसूची}}
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[शनि]]
* [[शनिवार व्रत कथा]]
 
*[https://dharmyatra.org/shani-chalisa.php शनि चालीसा]
 
{{नवग्रह}}
{{हिन्दू देवी देवता}}
 
[[श्रेणी:ज्योतिष]]
[[श्रेणी:ग्रह]]
[[श्रेणी:नवग्रह]]
[[श्रेणी:शनि देव]]
[[श्रेणी:ऋग्वैदिक देवी-देवता]]