"सांख्यकारिका": अवतरणों में अंतर

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==प्रमुख विवेचनीय विषय==
सर्वप्रथम ईश्वरकृष्ण ने मंगल के साथ-साथ शास्त्रारम्भ के प्रयोजन की सूचना दी है। मङ्गलाचरण में वे कहते हैं-
:'' उस कपिल को नमस्कार है जिनने अविद्या-समुद्र में डूबते हुए संसार के लिये, दया करके सांख्यस्वरूप ऐसी नाव बनायी, जिससे आसानी से इस (अविद्यारूप समुद्र) को पार किया जा सके॥<ref>[https://www.google.co.in/books/edition/Sankhyakarika_Srimadiswarkrishnavirchit/j2zE-4cRDNoC?hl=en&gbpv=1 सांख्यकारिका, पृष्ट-२]</ref>

इसके आगे वे कहते हैं कि आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों दुःखों का एकान्त परिहार प्राणिमात्र का इष्ट है। दुःखों का यह परिहार दृश्टदृष्ट (लौकिक) एवं आनुश्रविक (वैदिक) उपायों से सम्भव नहीं है, कारण कि दृष्ट कारणों से सर्वथा कार्य होते नहीं तथा आनुश्रविक (वैदिक यज्ञादि) उपायों से होने योग्य दुःख निवृत्ति एकान्त हो ही नहीं सकती। दुःख की एकान्त निवृत्ति तो केवल ‘व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञान’ से हो सकती है, वही इस शास्त्र में प्रतिपादित है।
 
सांख्य-दर्शन में यह समस्त विश्व २५ तत्व का खेल माना गया है। इन पच्चीस तत्त्वों का वर्णन इस प्रकार है -
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विपर्यय बन्धन का कारण है। ज्ञान से अपवर्ग की प्राप्ति होती है।
 
प्रत्ययसर्ग मूल रूप से 4 प्रकार का हैं- विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि, सिद्धि। प्रत्ययसर्ग के कुल 50 भेद हैं (विपर्यय - 5 , अशक्ति - 28 , तुष्टि - 9 , सिद्धि - 8 )।
 
==सन्दर्भ==