"वेदान्त दर्शन": अवतरणों में अंतर
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वेदान्त [[ज्ञान योग|ज्ञानयोग]] का एक स्रोत है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत [[उपनिषद्|उपनिषद]] है जो [[वेद]] ग्रंथो और [[वैदिक साहित्य]] का सार समझे जाते हैं। [[उपनिषद्]] वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको '''वेदान्त''' कहते हैं।
वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: [[अद्वैत वेदान्त]], [[विशिष्टाद्वैत|विशिष्ट अद्वैत]] और [[द्वैत]]। [[आदि शंकराचार्य]], [[रामानुज]] और
=='वेदान्त’ का अर्थ==
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==वेदान्त का साहित्य==
ऊपर कहा जा चुका है ‘वेदान्त’ शब्द मूलतः उपनिषदों के लिए प्रयुक्त होता था। अलग-अलग संहिताओं तथा उनकी शाखाओं से सम्बद्ध अनेक उपनिषद् हमें प्राप्त हैं। जिनमें प्रमुख तथा प्राचीन हैं - ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक। इन उपनिषदों के दार्शनिक सिद्धान्तों में काफी कुछ समानता है किन्तु अनेक स्थानों पर विरोध भी प्रतीत होता है। कालान्तर में यह आवश्यकता अनुभव की गई कि विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों में समन्वय स्थापित कर सर्वसम्मत उपदेशों का संकलन किया जाये। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बादरायण व्यास ने [[ब्रह्मसूत्र]] की रचना की जिसे वेदान्त सूत्र, शारीरकसूत्र, शारीरकमीमांसा या [[उत्तरमीमांसा]] भी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों के सिद्धान्तों को अत्यन्त संक्षेप में, [[सूत्र]] रूप में संकलित किया गया है।
अत्यधिक संक्षेप होने के कारण सूत्रों में अपने आप में अस्पष्टता है और उन्हें बिना [[भाष्य]] या टीका के समझना सम्भव नहीं है। इसीलिए अनेक भाष्यकारों ने अपने-अपने भाष्यों द्वारा इनके अभिप्राय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया किन्तु इस स्पष्टीकरण में उनका अपना-अपना दृष्टिकोण था और इसीलिये उनमें पर्याप्त मतभेद है। प्रत्येक ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि उसका भाष्य ही ब्रह्मसूत्रों के वास्तविक अर्थ का स्पष्टीकरण करता है। फलतः सभी भाष्यकार एक-एक वेदान्त सम्प्रदाय के प्रवर्तक बन गये। इनमें प्रमुख है [[आदि शंकराचार्य|शंकर]] का [[अद्वैत वेदान्त|अद्वैतवाद]], [[रामानुज]] का [[विशिष्टाद्वैत]]वाद, [[मध्वाचार्य|मध्व]] का [[द्वैतवाद]], [[निम्बार्काचार्य|निम्बार्क]] का [[द्वैताद्वैत]]वाद तथा [[वल्लभाचार्य|वल्लभ]] का [[शुद्धाद्वैत]]वाद। इन भाष्यों के अनन्तर इन भाष्यों पर टीकाएँ तथा टीकाओं पर टीकाओं का क्रम चला। अपने-अपने सम्प्रदाय के मत को पुष्ट करने के लिए अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना हुई, जिनसे वेदान्त का साहित्य अत्यन्त विशाल हो गया।
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== अद्वैत वेदान्त ==
'''[[गौड़पाद|गौडपाद]]''' (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती [[आदि शंकराचार्य]] (700 ई.) ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत् को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान् जगत तत्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा
परन्तु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत् का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत् का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्वमसि' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत् को आत्ममय तथा अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं। == विशिष्टाद्वैत वेदान्त ==
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स्वाभाविक भेदाभेद–
श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का निर्देश देती हैं।
यथा-
:‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)▼
:‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) ।▼
:‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३) ▼
:‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/१)▼
▲‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)
▲‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति,
:'सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा. ३/१४/१) मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/)▼
▲‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति
▲कामान् (कठ० ५/१३) अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’
▲(गीता १०/८) इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म और जगत के भेद का प्रतिपादन
▲‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/
▲१) आत्मा वा इदमेकमासीत्’ (तै०२/१) तत्त्वमसि’ (छा./१४/
▲३) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६) सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा.
▲३/१४/१) मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/)
इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।
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‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही घड़ा बन जाती है। उसके बिना घड़े की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप से रहते हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक् रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत्
दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है। वह दूध से दही जैसा नहीं है। दूध, दही बनकर अपने दुग्धत्व (दूधपने) को जिस प्रकार समाप्त कर देता है, वैसे ब्रह्म जगत् के रूप में परिणत होकर अपने स्वरूप को समाप्त नहीं करता, अपितु मकड़ी के जाले के समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है।
: ''यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
▲स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।।
‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्▼
इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं।
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==स्वामिनारायण वेदान्त (अक्षरपुरुषोत्तम दर्शन)==
== सन्दर्भ ग्रंथ ==
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* उपनिषद्गीता और ब्रह्मसूत्र पर सांप्रदायिक भाष्य;
* राधाकृष्णन् : इंडियन फिलासफी, भाग 1-2;
* दासगुप्त : हिस्टरी ऑव इंडियन फलासफी, भाग 1
== इन्हें भी देखें ==
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