"वैशेषिक दर्शन": अवतरणों में अंतर

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'''वैशेषिक''' [[भारतीय]] दर्शनों में से एक [[दर्शनशास्त्र|दर्शन]] है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि [[कणाद]] हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी)। यह दर्शन [[न्याय दर्शन]] से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में ([[वैशेषिकसूत्र]] में) लिखा। यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। इसके इस दर्शनसूत्रों का प्रमुखआरम्भ उद्देश्य"अथातो धर्मजिज्ञासा" से होता है। इसके बाद दूसरा सूत्र है- "यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः" अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि होती है, वह [[निःश्रेयसधर्म]] कीहै। प्राप्तिइसके लिये समस्त अर्थतत्त्व को छः ' पदार्थों ' (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय) में विभाजित कर उन्हीं का मुख्य रूप से उपपादन करता है। वैशेषिक दर्शन और [[पाणिनीय व्याकरण]] को सभी शास्त्रों का उपकारक माना गया है —
: ''काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्
 
वैशेषिक का अर्थ है – "विशेषं पदार्थमधिकृत्य कृतं शास्त्रं वैशेषिकम्" अर्थात् 'विशेष' नामक पदार्थ को मूल मानकर प्रवृत्त होने के कारण इस शास्त्र का नाम वैशेषिक है।
वैशेषिक दर्शन ६ पदार्थ मानता है- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय । द्रव्यों की संख्या ९ मानता है – पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। २४ गुण स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिणाम, पार्थक्य, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुःख, दुःख, इच्छा, द्वेष, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, स्नेह, गुरुत्व और द्रव्यत्व हैं। कर्मों के ५ प्रकार माने गये हैं- उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन। सामान्य के दो प्रकार इस दर्शन में माना गया है- सत्ता सामान्य और विशिष्ट सामान्य। इसमें [[प्रत्यक्ष प्रमाण|प्रत्यक्ष]] और [[अनुमान]] दो ही प्रमाण माने गये हैं।
 
इस दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त निम्न हैं –<ref>आचार्य उदयवीर शास्त्री, 'वैशेषिकदर्शनम् ' में</ref>
: '''[[परमाणु]]''' – जगत का मूल उपादान कारण परमाणु माना हैहै। औरदो परमाणुओं से 'द्वयणुक' एवं कतिपय द्वयणुक के संयोग से अनेक'त्रसरेणु' वस्तुएँउत्पन्न बनतीहोता हैं।है।
: '''[[अनेकात्मवाद]]''' – यह दर्शन जीवात्माओं को अनेक मानता है तथा कर्मफल भोग के लिए अलग-अलग शरीर मानता है।
: '''[[असत्कार्यवाद]]''' – इस दर्शन का सिद्धान्त है कि कारण से कार्य होता है। कारण नित्य हैं, और कार्य अनित्य।
: '''[[मोक्ष]]वाद''' – जीव का परम् लक्ष्य मोक्ष (आवागमन के चक्र से मुक्त होना) मानता है। मिथ्या-ज्ञान को जीव के दुःख का कारण माना गया है।
 
इस दर्शन में [[भूकम्प]] आना, [[वर्षा]] होना, [[चुम्बक]] में गति, [[गुरुत्वाकर्षण]] विज्ञान, [[ध्वनि]] तरंगे आदि के विषय में विवेचना प्रस्तुत की गई है।
 
[[वैशेषिकसूत्र]] में दस अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में दो-दो आह्निक और ३७० सूत्र हैं। पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। [[मीमांसासूत्र|मीमांसासूत्रों]] की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:विशेषः" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:संदिग्धस्तूपचारः" (2 बार)।
 
== नामकरण ==