"फ़िराक़ गोरखपुरी": अवतरणों में अंतर
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|title=रघुपति सहाय फ़िराक़’ गोरखपुरी|accessmonthday=[[४ दिसंबर]]|accessyear=[[२००९]]|format=|publisher=संस्थान का आधिकारिक जालस्थल|language=}}</ref> १९७० में उनकी उर्दू काव्यकृति ‘गुले नग़्मा’ पर [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] मिला।<ref>{{cite web |url=http://www.milansagar.com/kobi-firaqgorakhpuri.html|title=फ़िराक़ गोरखपुरी|accessmonthday=[[४ दिसंबर]]|accessyear=[[२००९]]|format=|publisher=मिलन सागर|language=}}</ref> फिराक जी [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]] के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे। उन्हें गुले-नग्मा के लिए [[साहित्य अकादमी पुरस्कार]]<ref>[http://www.iconofindia.com/sahitya-akademi/awa10322.htm#urdu अवार्ड्स - १९५५-२००७] साहित्य अकादमी - आधिकारिक सूची</ref>, [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड<ref name="कामिल"/> से सम्मानित किया गया। बाद में १९७० में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था।<ref>[http://www.iconofindia.com/sahitya-akademi/fello.htm#awa02 फ़ैलोज़] [[साहित्य अकादमी]] सदस्य, आधिकारिक सूची</ref> फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूहे-कायनात, नग्म-ए-साज, गजालिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछांइयां और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की भी रचना फिराक साहब ने की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियां भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुई हैं।<ref name="कामिल"/>
[[चित्र:Firaqgorakhpuri.jpg|thumb|200px|left|फिराक गोरखपुरी पर जारी डाक-टिकट]]
फिराक ने अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश गजल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन में आरंभिक समय में [[६ दिसंबर]], [[१९२६]] को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बनाए गए। जनवरी से मई १९२२ तक आगरा जेल में रची गई कई गजलें जेल की शायरी की हैसियत रखती हैं।<ref name="कामिल"/> [[उर्दू]] [[शायर|शायरी]] का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है। फिराक ने परंपरागत भावबोध् और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। इंसान के हाथों इंसान पर जो गुजरती है उसकी तल्ख सच्चाई और आने वाले कलके प्रति एक उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। [[फारसी]], [[हिंदी]], [[ब्रजभाषा]] और [[हिंदू संस्कृति]] की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में हिन्दुस्तान की मूल पहचान रच-बस गई है। फिराक गोरखपुरी को [[ साहित्य एवं शिक्षा ]] के क्षेत्र में सन [[१९६८]] में [[भारत सरकार]] ने [[पद्म भूषण]] से सम्मानित किया था।
==संदर्भ==
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