"पंचमकार": अवतरणों में अंतर
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तंत्र शास्त्र के मद्य साधना, मांस साधना, मत्स्य साधना, मुद्रा साधना एवं मैथुन का शास्त्रोक्त अर्थ :
सोमधारा क्षरेद् या तु ब्रह्मरन्द्रान वरानने।
पीत्वा नन्दमयस्ता यः स एव मद्यसाधकः।
* [[मत्स्य]] (मछली)▼
हे पार्वती ! ब्रह्मरंध्र से जो अमृतधारा क्षरित हो रही है उसका पान करने से साधक आनंदमय हो जाता है। इसी का नाम मद्य साधना है।
2. मांस साधना :
गो शब्दे नोदिता जिह्वा तत्प्रवेसो हि तालुनि।
गोमांसभक्ष्णं तत्तु महापातकनाशनम्।।
गो शब्द से जिह्वा कही जाती है और तालु के समीप जो ऊर्ध्व में छिद्र है उसमे जिह्वा का जो प्रवेश है उसको गोमांस भक्षण कहते हैं। इस प्रकार की योग की क्रिया बड़े से बड़े पाप का भी नाशक है।
म शब्दात रसना ज्ञेयो तदस्नान रसन प्रिये।
सदा यो भक्ष्येत देवी स एव मांससाधक:।।
यहां म अक्षर को जिह्वा कहा है। बाकी वही भाव है जो गोमांस भक्षण का है।
गंगायमुनयोर्मध्ये मत्स्यौ द्वौ चरत: सदा।
तौ मत्स्यौ भक्ष्येत् यस्तु सा भवेत् मत्स्यसाधक:।।
गंगा और यमुना योग की इड़ा और पिंगला नाड़ियां हैं। इनमें स्वसन क्रिया चलती रहती है। इस श्वांस-प्रश्वांस की क्रिया को प्राणायाम के परायण होकर जो रुद्ध करके मन को निश्चल करते हैं उन्हें मत्स्य साधक कहते हैं।
4. मुद्रा (sealing) साधना:
सत्संगेन भवेत मुक्ति: असत्संगेषु बंधनम्।
असत्संग मुद्रणं यत्तु तन्मुद्रा परिकीर्तित:।।
सत् संग से मुक्ति तथा असत् संग से बंधन होता है। जो क्रिया द्वारा असत्संग को मुद्रित (seal) कर दे उसे मुद्रा कहते हैं।
5. मैथुन :
कुल-कुंडलनी शक्ति: देहीनां देहधारिणी।
तया शिवस्य संयोग: मिथुनं परिकीर्तितम्।।
देह स्थित कुंडलिनी शक्ति को जागृत करते हैं। जब इस (कुंडलिनी) शक्ति का शिव के साथ ठीक से योग होता है तो इसे मैथुन कहते हैं। यह परमानंद का उद्बोधन करता है। शास्त्र में इसे परम् तत्व भी कहा गया गया है -- मैथुनं परमं तत्वं ।
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