"अश्वत्थामा": अवतरणों में अंतर

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महाभारत युद्ध से पूर्व गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानो में भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्‌हुचे। वहाँ तमसा नदी के तट पर एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वयंभू शिवलिंग है। यहाँ गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिव की तपस्या की। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय पश्चात् माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।
महाभारत युद्ध के समय गुरु द्रोणाचार्य जी ने हस्तिनापुर (मेरठ) राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु का भी वध किया। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया। पांडवों की सेना की पराजय देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कूटनीति अपनाने का विमर्श दिया। इस योजना के अंतर्गत यह सूचना प्रसारित कर दी गई कि "[[अश्वत्थामा (गज)|अश्वत्थामा]]" का वध हो गया है।"
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने उत्तर दिया-"अश्वत्थामा वध कर दिया गया परन्तु गज", परन्तु उन्होंने बड़े धीमे स्वर में "परन्तु गज" कहा, और झूट बोलने से बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की श्रीकृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं "परन्तु गज" को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य अंतिम शब्द नहीं सुन ही नही पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युद्ध भूमि में नेत्र बन्द कर शोक अवस्था में विराजित हो गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता देखकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने खड्ग (तलवार) से उनका मस्तक (शीश) विच्छेद कर डाला। गुरु द्रोणाचार्य की निर्मम वध के पश्चात पांडवों की विजय होने लगी। इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तुणीरों (तीरों) एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी। अपने राजा दुर्योधन की ऐसी अवस्था देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन जल बंधन की कला जानता था। सो जिस तालाब के पास गदायुध्द चल रहा था उसी तालाब में प्रवेश कर गया और जल को बांधकर छुप गया। दुर्योधन के पराजित होते ही युद्ध में पाण्डवो की विजय सुनिश्चित हो गई, समस्त पाण्डव दल के लोग विजय की प्रसन्नता में मतवाले हो रहे थे।