"अश्वत्थामा": अवतरणों में अंतर

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महाभारत युद्ध के समय गुरु द्रोणाचार्य जी ने हस्तिनापुर (मेरठ) राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु का भी वध किया। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध में पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया। पांडवों की सेना की पराजय देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को कूटनीति अपनाने का विमर्श दिया। इस योजना के अंतर्गत यह सूचना प्रसारित कर दी गई कि "[[अश्वत्थामा (गज)|अश्वत्थामा]]" का वध हो गया है।
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता ज्ञात करनी चाही तो उन्होने उत्तर दिया-"अश्वत्थामा वध कर दिया गया, परन्तु गज"। परन्तु उन्होंने बड़े धीमे स्वर में "परन्तु गज" कहा, और मिथ्या वचन से भी बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की श्रीकृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं "परन्तु गज" को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य अंतिम शब्द सुन ही नही पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर अपने शस्त्र त्याग दिये और युद्धभूमि में नेत्र बन्द कर शोक संतप्त अवस्था में विराजित हो गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को नि:शस्त्र देखकर द्रोपदी के भ्राता द्युष्टद्युम्न ने खड्ग (तलवार) से उनका मस्तक (शीश) विच्छेद कर डाला। गुरु द्रोणाचार्य की निर्मम वध के पश्चात पांडवों की विजय होने लगी। इस प्रकार महाभारत युद्ध में अर्जुन के तुणीरों (तीरों) एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जंघा भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में खंडित कर दी। अपने राजा दुर्योधन की ऐसी अवस्था देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन जल बंधन की कला जानता था। सो जिस तालाबसरोवर के निकट गदायुध्द हो रहा था उसी तालाबसरोवर में प्रवेश कर गया और जल को बांधकर छुप गया। दुर्योधन के पराजित होते ही युद्ध में पाण्डवो की विजय सुनिश्चित हो गई, समस्त पाण्डव दल विजय की प्रसन्नता में मतवाले हो रहे थे।
 
अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता के निर्मम वध का प्रतिशोध लेने के लिए पांडवों पर नारायणास्त्र का प्रयोग किया जिसके समक्ष समस्त पाण्डव सेना ने शस्त्र समर्पित कर दिए। युद्ध पश्चात अश्वत्थामा ने द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया। अश्वत्थामा ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शेष वीर महारथियों का वध कर डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के निद्रामग्न पांचों पुत्रों के मस्तक भी विच्छेदित कर डाले। अश्वत्थामा के इस पतित कर्म की सभी ने निंदा की, यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अनुचित लगा।
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द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपने खड्ग से अश्वत्थामा के केश विच्छेदित कर डाले और उसकी मस्तक मणि का भी विच्छेदन कर डाला। मणि-विच्छेदन से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था, जब उसने निर्दोष निद्रामग्न बालकों का वध किया था। किन्तु केश मुंड जाने और मणि-विच्छेदन से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका मस्तक झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से निष्कासित कर दिया।
 
श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के पतित कर्मों के कारण ही अश्वत्थामा को अमर होने का श्राप दिया था।था कि, जिस प्रकार तूने पतित कर्म कर द्रोपदी की ममता को सदा के लिए शोक संतप्त दिया है उसी तरह तू भी इस मणि के विच्छेदित किए जाने से हुए घाव के साथ अनंतकाल पर्यंत जीवित रहेगा, तेरी मृत्यु नही होगी । तू शारीरिक और मानसिक आघातों की पीड़ा भोगता हुआ उस दुःख को अनुभव कर सकेगा जो तूने दूसरों को दिए हैं और कभी शांति को प्राप्त नहीं होगा, इसके पश्चात ही अश्वत्थामा को कोढ़ रोग हो गया था। आज भी वह मस्तक मणि-विच्छेदन से हुए रिसते धाव के साथ अशांत होकर यत्र-तत्र विचरण कर रहा है, ऐसा माना जाता है ।
 
[https://marindhi.blogspot.com/2019/11/blog-post_87.html महाभारत की कहाणी - पराक्रमी वीर योद्धा अश्वत्थामा की जीवनी]