"अहिंसा": अवतरणों में अंतर
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आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है; इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचंद्र ने लिखा है : असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़नेवाले हैं, इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। असत्य आदि जो दोष बतलाए गए हैं वे केवल "शिष्याबोधाय" हैं। संक्षेप में रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से, प्राणवध न होने पर भी, वह होती है। जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है, फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है।
क्या मच्छर को मारना हिंसा हैँ पाप हैँ
क्या पागल कुत्ते को मारना हिंसा हैँ
क्या देवताओं द्वारा असुरो का वध करना हिंसा या पाप हैँ
क्या भूतोंप्रेतों से रक्षा के लिए भूतों का निग्रह या बंधन कीलन या उनको मंत्रो द्वारा मारना हिंसा हैँ
या फिर अहिंसा की जानकरी पूरी भ्रामक हैँ
जैन और बौद्ध धर्म हिंदू धर्म की शाखाएं टहनिया मात्र हैँ अहिंसा की जानकारी पूर्णतया अहिंसक होना असंभव हैँ फिर दैवी शक्तियों द्वारा असुरो को मारना क्या पाप हैँ क्या हत्यारे लुटेरों को क्षमा करना अहिंसा हैँ फिर क्योंकि जैन शिव गण और तीर्थंकरो के पार्षद शाशन देवी से रक्षा की प्रार्थना करते हैँ वास्तव मैं अहिंसा मूर्खता हैँ
== अहिंसा की भूमिकाएँ ==
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