"ज्ञानेश्वरी": अवतरणों में अंतर

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ज्ञानेश्वरी के अलंकारपक्ष का अवलोकन करने पर कवि के प्रतिभासंपन्न हृदय के दर्शन होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे [[उपमा]] और [[रूपक]] के माध्यम से ही बोल रहे हों। उनकी इस रचना में मालोपमा और सांगरूपक मुक्तहस्त से बिखेरे गए हैं। विशेषता यह है कि ये सारी उपमाएँ और रूपक गीताटीका से तादात्म्य पा गए हैं। मायानदी, गुरुपूजा, पुरुष, प्रकृति, चित्सूर्य आदि उनके [[मराठी साहित्य]] में ही नहीं अपितु विश्ववांमय में अलौकिक माने जा सकते हैं। ये ही वे रूपक हैं जिनमें काव्य और दर्शन की धाराएँ घुल मिल गई हैं।
{| class="wikitable"
|अध्याय
|
|श्लोक
|ओवी
|-
|अध्याय १
|अर्जुनविषादयोग
|४७
|२७५
|-
|अध्याय २
|सांख्ययोग
|७२
|३७५
|-
|अध्याय ३
|कर्मयोग
|४३
|२७६
|-
|अध्याय ४
|ज्ञांनासान्यासयोग
|४२
|२२५
|-
|अध्याय ५
|योगगर्भयोगा
|२९
|१८०
|-
|अध्याय ६
|आत्मसंयमयोगा
|४७
|४९७
|-
|अध्याय ७
|विज्ञानयोगा
|३०
|२९०
|-
|अध्याय ८
|ब्रह्माक्षरनिर्देशयोग
|२८
|२७१
|-
|अध्याय ९
|राजविद्याराजगुह्यायोग
|३४
|५३५
|-
|अध्याय १०
|विभूतियोगा
|४२
|३३५
|-
|अध्याय ११
|विश्वरूपदर्शनयोग
|५५
|७०८
|-
|अध्याय १२
|भक्तियोग
|२०
|२४७
|-
|अध्याय १३
|प्रकृतीपुरुषविवेकयोग
|३४
|११६९
|-
|अध्याय १४
|गुणातीतयोग
|२७
|४१५
|-
|अध्याय १५
|पुरुषोत्तमयोग
|२०
|५९८
|-
|अध्याय १६
|दैवसुरसंपद्विभागयोगा
|२४
|४७३
|-
|अध्याय १७
|श्रध्दादिंनिरुपणयोग
|२८
|४३३
|-
|अध्याय १८
|सर्वगीतार्थ्संग्रहयोग
|७८
|१८१०
|-
|
|एकूण
|७००
|९११२
|}
 
== अनुवाद ==