"भारतीय साहित्य": अवतरणों में अंतर
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भारत की प्रत्येक भाषा के साहित्य का अपना स्वतन्त्र और प्रखर वैशिष्ट्य है जो अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है। पंजाबी और सिंधी, इधर हिन्दी और उर्दू की प्रदेश-सीमाएं कितनी मिली हुई हैं, किंतु उनके अपने-अपने साहित्य का वैशिष्ट्य कितना प्रखर है। इसी प्रकार गुजराती और मराठी का जन-जीवन परस्पर ओतप्रोत है, किन्तु क्या उनके बीच में किसी प्रकार की भ्रांति संभव है? दक्षिण की भाषाओं का उद्गम एक है : सभी द्रविड़ परिवार की विभूतियां हैं, परन्तु क्या कन्नड़ और मलयालम या तमिल और तेलुगु के स्वारूप्य के विषय में शंका हो सकती है? यही बात बांग्ला, असमिया और उड़िया के विषय में सत्य है। बंगाल के गहरे प्रभाव को पचाकर असमिया और उड़िया अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाये हुए हैं।
इन सभी साहित्यों में अपनी-अपनी विशिष्ट विभूतियां हैं। तमिल का [[संगम साहित्य|संगम-साहित्य]], तेलगु के द्वि-अर्थी काव्य और उदाहरण तथा [[अवधान]]-साहित्य, मलयालम के [[सन्देश काव्य|संदेश-काव्य]] एवं कीर-गीत ([[किलिप्पाट्टु]]) तथा [[मणिप्रवालम|मणिप्रवालम्]] शैली, मराठी के [[पोवाड़ा|वोवाडे]], गुजराती के [[आख्यान (गुजराती)|आख्यान]] और फागु, बँगला का [[मंगलकाव्य|मंगल काव्य]], असमिया के [[बरगीत]] और [[बुरंजी|बुरंजी साहित्य]], पंजाबी के [[रम्याख्यान]] तथा वीरगति, उर्दू की गजल और हिन्दी का रीतिकाव्य तथा [[छायावाद]] आदि अपने-अपने भाषा–साहित्य के वैशिष्ट्य के उज्ज्वल प्रमाण हैं।
फिर भी कदाचित् यह पार्थक्य आत्मा का नहीं है। जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचार-धाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है, इसी प्रकार इसी कारण से अनेक भाषाओं और अभिवयंजना-पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अनुसंधान भी सहज-संभव है। भारतीय साहित्य का प्राचुर्य और वैविध्य तो अपूर्व है ही, उसकी यह मौलिकता एकता और भी रमणीय है।
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