"कर्म योग": अवतरणों में अंतर

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== गीता का कर्मयोग ==
कर्मयोग का प्रतिपादन [[श्रीमद्भगवद्गीता|गीता]] में विशद् से हुआ है। [[भारतीय दर्शन]] में कर्म, बंधन का कारण माना गया है। किंतु कर्मयोग में कर्म के उस स्वरूप का निरूपण किया गया है जो बंधन का कारण नहीं होता। [[योग]] का अर्थ है समत्व की प्राप्ति (समत्वं योग उच्यते)। सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता में सम भाव रखना समत्व कहलाता है। योग का एक अन्य अर्थ भी है। वह है कर्मों का कुशलता से संपादन करना (योग: कर्मसु कौशलम्)। इसका अर्थ है, इस प्रकार कर्म करना कि वह बंधन न उत्पन्न कर सके। अब प्रश्न यह है कि कौन से कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं और कौन से नहीं? गीता के अनुसार जो कर्म निष्काम <ref>{{Cite web|url=https://www.myshekhar.com/2022/09/nishkam-karm-kya-h-importance-in-life-spirituality-alabouroflove.html|title=निष्काम कर्म का जीवन में उपयोगिता|last=|first=|date=|website=My Shekhar|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref> भाव से ईश्वर के लिए जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते। वे मोक्षरूप परमपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं। इस प्रकार कर्मफल तथा आसक्ति से रहित होकर ईश्वर के लिए कर्म करना वास्तविक रूप से कर्मयोग है और इसका अनुसरण करने से मनुष्य को अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।<ref>{{Cite web|url=https://www.jagran.com/uttarakhand/haridwar-shrimad-bhagwat-geeta-gives-karmayog-message-18780342.html|title=कर्मयोग का संदेश देती है श्रीमद् भागवत गीता|last=|first=|date=|website=जागरण|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref>
 
गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर, परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करनेवाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है। उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएँगे। इससे लोकस्थिति के लिए किए जानेवाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनुष्य को भी, जो प्रकृति के बंधन से मुक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फलप्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही, गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।