"हकीम अबुल कासिम फिरदौसी तुसी": अवतरणों में अंतर

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'''हकीम अबुल कासिम फिरदौसी तुसी''' ([[फारसी]]-حکیم ابوالقاسم فردوسی توسی ) एक [[फारसी]] कवि थे। उन्होने [[शाहनामा]] की रचना की जो बाद में फारस ([[ईरान]]) की राष्ट्रीय महागाथा बन गई । इसमें उन्होने सातवीं सदी में फारस पर [[अरबी]] फतह के पहले के ईरान के बारे में लिखा है ।
 
==जीवन परिचय==
फ़िरदौसी का जन्म 920 ई. में [[खुरासान]] के तूस नामक कस्बे में हुआ। [[असदी]] नामक कवि ने उसे शिक्षा दी और [[कविता]] की ओर प्रेरित किया। उसने ईरान के पौराणिक राजाओं के संबंध में उसे एक ग्रंथ दिया जिसके आधार पर फ़िरदौसी ने शाहनामे की रचना की। इसमें 60,000 शेर हैं। वह 35 वर्ष तक इस महान् कार्य में व्यस्त रहा और 25 फरवरी, 1010 ई. को इसे पूरा किया। इस समय वह 85 वर्ष का हो चुका था। उसने यह काव्य सुल्तान महमूद ग़ज़नवी को समर्पित किया जिसने 999 ई. में खुरासान विजय कर लिया था। उसे केवल 20 हजार दिरहम प्रदान किए गए। फ़िरदौसी के तन बदन में आग लग गई। वह अपने देश से हिरात की ओर भागा किंतु भागने से पूर्व एक कविता शाहनामे में जोड़ गया, जिसमें सुल्तान महमूद की घोर निंदा की गई है।
 
शाहनामे में फ़िरदौसी ने ईरान के पौराणिक बादशाहों की, जिनके कारनामों से वह अत्यधिक प्रभावित था, बड़ी की प्रशंसा की है। उसकी कविता से प्राचीन ईरान के प्रति उसका प्रेम एवं अरबों के प्रति घृणा का पूरा आभास मिलता है। सभवत: कट्टर मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए उसने बाद में युसुफ़ जुलैखा नामक मसनवी लिखी जिसे बवहिद शासक बहाउद्दौला तथा उसके पुत्र सुल्तानुद्दौला को समर्पित किया। तदुपरांत वह अपनी मातृभूमि तूस लौट आया और वहीं उसकी मृत्यु हुई (1020-21 ई.)। उसकी क़ब्र ईरान के दर्शनीय स्थानों में है। कहा जाता है, जब उसका जनाज़ा पास के एक गाँव के फाटक से निकल रहा था, एक कारवाँ सुल्तान महमूद के भेजे हुए 60,000 दीनार लेकर पहुँचा जिनकी कवि को आशा थी। फ़िरदौसी की पुत्री ने समस्त धन, दान पुण्य में लगा दिया। शाहनामा की बड़ी ही सुंदर सचित्र हस्तलिपियाँ संसार के बड़े बड़े संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। 1811 ई. में कलकत्ते में 1878 ई. में पेरिस से और 1877-1885 ई. के बीच लाइडेन से इसके संस्करण प्रकाशित हुए। तदुपरांत भारत और ईरान से अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। संसार की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद छप चुके हैं।
 
कहा जाता है कि [[महमूद गज़नवी]] ने फिरदौसी को यह वचन दिया था कि वह 'शाहनामा' के हर शब्द के लिए एक [[दीनार]] देगा। वर्षों की मेहनत के बाद जब 'शाहनामा' तैयार हो गया और फिरदौसी उसे लेकर महमूद गज़नबी के दरबार में गया तो सम्राट ने उसे प्रत्येक शब्द के लिए एक दीनार नहीं बल्कि एक [[दिरहम]] का भुगतान करा दिया। कहा जाता है इस पर नाराज होकर फिरदौसी लौट गया और उसने एक दिरहम भी नहीं लिया। यह वायदा ख़िलाफ़ी कुछ ऐसी थी जैसे किसी कवि के प्रति शब्द एक रुपये देने का वचन देकर प्रति शब्द एक पैसा दिया जाये। फिरदौसी ने गुस्से में आकर महमूद गज़नबी के खिलाफ़ कुछ पंक्तियां लिखी। वे पंक्तियां इतनी प्रभावशाली थी कि पूरे साम्राज्य में फैल गयीं। कुछ साल बाद महमूद गज़नवी से उसके विश्वासपात्र मंत्रियों ने निवेदन किया कि फिरदौसी को उसी दर पर भुगतान कर दिया जाये जो तय की गयी थी। सम्राट के कारण पूछने पर प्रधानमंत्री ने कहा कि हम लोग साम्राज्य के जिस कोने में जाते हैं हमें वे पंक्तियां सुनने को मिलती हैं जो फिरदौसी ने आपके विरुद्ध लिखी हैं और हमारा सिर्फ शर्म से झुक जाता है। उसे निर्धारित दर पर पैसा दे दिया जायेगा तो हमें बड़ा नैतिक बल मिलेगा।' सम्राट ने आदेश दे दिया। दीनारों से भरी गाड़ी जब फिरदौसी के घर पहुंची तो घर के अंदर से फिरदौसी का जनाज़ा निकल रहा था। पूरी उम्र गरीबी, तंगी और मुफ़लिसी में काटने के बाद फिरदौसी मर चुका था। कहते हैं कि फिरदौसी की एकमात्र संतान उसकी लड़की ने भी यह धान लेने से इंकार कर दिया था। इस तरह सम्राट कवि का कर्जदार रहा और आज भी है। शायद यही वजह है कि आज फिरदौसी का शाहनामा जितना प्रसिद्ध है उतनी ही या उससे ज्यादा प्रसिद्ध वे पंक्तियां है जो फिरदौसी ने महमूद गज़नबी की आलोचना करते हुए लिखी थीं।