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हमारे यहां की छोटी-बड़ी सभी अदालतों में करीब साढ़े तीन करोड़ मुकदमे लटके हुए हैं। एक-एक मुकदमे को निपटाने में दस-दस, पंद्रह-पंद्रह साल लग जाते हैं। इसका मुख्य कारण है - अंग्रेजी का एकाधिकार। हमारे सारे कानून अंग्रेजी में और अंग्रेजी राज की जरूरतों के मुताबिक बने हुए हैं। अपने नागरिकों को वास्तविक अर्थों में न्याय दिलाने के लिए इस समूची न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण किया जाना बहुत जरूरी है। ऐसा करने से न्याय व्यवस्था न सिर्फ सस्ती होगी, बल्कि मुकदमे भी जल्दी निपटेंगे और लोगों की न्याय व्यवस्था के प्रति आस्था भी मजबूत होगी।
 
=== न्यायनिर्णयन का प्राचीन भारतीय मापदण्ड ==
* '''उत्तरदायित्व का सिद्धान्त''' : [[कौटिल्य]] के अनुसार [[दण्ड]] न्यायसंगत और उचित होना चाहिये। किसी शीर्ष अधिकारी द्वारा गलत निर्णय करने पर उसे उत्तरदायी मानते हुए उचित कार्यवाही की जानी चाहिये। उत्तरदायित्व में चूक होने पर जनता राजा से भी प्रश्न कर सकती थी।
 
* '''न्यायालयों का पदानुक्रम''' : [[बृहस्पतिस्मृति]] के अनुसार, न्यायालयों का एक निश्चित पदानुक्रम था। इसमें सबसे निम्न संस्था पारिवारिक न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायाधीश, इसके बाद मुख्य न्यायाधीश (प्राड्विवाक या अध्यक्ष) होता था तथा राजा का दरबार सर्वोपरि होता था।
 
* '''न्यायिक सर्वोच्चता''' : [[कात्यायन]] के अनुसार ‘यदि राजा वादियों (विवादिनम) पर कोई अवैध या अधार्मिक निर्णय लेता है, तो यह न्यायाधीश (साम्य) का कर्तव्य है कि वह राजा को चेतावनी दे और उसे रोके’।
 
* '''न्यायिक भ्रष्टाचार''' : [[विष्णु संहिता]] के अनुसार ‘भ्रष्ट न्यायाधीश की पूरी सम्पत्ति को राज्य द्वारा जब्त कर लेना चाहिये’। इसमें यह भी कहा गया है कि वाद के लंबित रहने के दौरान वादियों के साथ निजी तौर पर वार्तालाप न्यायिक कदाचार है।
 
==इन्हें भी देखें==