"अश्वत्थामा": अवतरणों में अंतर

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श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनने के पश्चात् भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उसने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुए गुरुपुत्र को देखकर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को प्रणाम कर उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं, ब्राह्मण सदा ही पूजनीय होता है और उसका वध पाप है। इनके पिता से ही आपने इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञानार्जन किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनके वध से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेंगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”
[[चित्र:Draupadi and Ashvatthaman, Punjab Hills c. 1730.jpg|thumb|Draupadi and Ashvatthaman, Punjab Hills c. 1730]]
द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपने खड्ग से अश्वत्थामा के केश विच्छेदित कर डाले और उसकी मस्तक मणि का भी विच्छेदन कर डाला। मणि-विच्छेदन से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था, जब उसने निर्दोष निद्रामग्न बालकों का वध किया था। किन्तु केश मुंड जाने और मणि-विच्छेदन से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका मस्तक झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से निष्कासित कर दिया।
 
श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के पतित कर्मों के कारण ही अश्वत्थामा को अमर होने का शाप दिया था कि, जिस प्रकार तूने पतित कर्म कर द्रोपदी की ममता को सदा के लिए शोक संतप्त दिया है उसी तरह तू भी इस मणि के विच्छेदित किए जाने से हुए घाव के साथ अनंतकाल पर्यंत जीवित रहेगा, तेरी मृत्यु नहीं होगी । तू शारीरिक और मानसिक आघातों की पीड़ा भोगता हुआ उस दुःख को अनुभव कर सकेगा जो तूने दूसरों को दिए हैं और कभी शांति को प्राप्त नहीं होगा, इसके पश्चात ही अश्वत्थामा को कोढ़ रोग हो गया था। आज भी वह मस्तक मणि-विच्छेदन से हुए रिसते धाव के साथ अशांत होकर यत्र-तत्र विचरण कर रहा है, ऐसा माना जाता है ।