"समुद्र मन्थन": अवतरणों में अंतर
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श्री शुकदेव जी बोले, "हे राजन्! राजा [[बलि]] के राज्य में [[दैत्य]], [[असुर]] तथा [[दानव]] अति प्रबल हो उठे थे। उन्हें [[शुक्राचार्य]] की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच [[दुर्वासा]] ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर था। इन्द्र सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ विष्णु ही बता सकते थे, अतः ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान [[नारायण]] के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि इस समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये। तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी हर शर्त मान लो और अन्त में अपना काम निकाल लो। अमृत पीकर तुम अमर हो जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।
"भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। [[मन्दराचल]] [[पर्वत]] को मथनी तथा [[वासुकी]] [[नाग]] को नेती बनाया गया। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, असुर, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।
"समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख [[योजन]] चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का
"विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न [[कामधेनु]] गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर [[उच्चैःश्रवा]] घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद [[ऐरावत]] हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् [[कौस्तुभमणि]] समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर [[कल्पद्रुम]] निकला और [[रम्भा]] नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। [[लक्ष्मी]] जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में [[वारुणी]] प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक [[चन्द्रमा]], [[पारिजात]] वृक्ष तथा [[शंख]] निकले और अन्त में [[धन्वन्तरि]] वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।"
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[[kn:ಸಮುದ್ರ ಮಂಥನ]]
[[ko:우유 바다 휘젓기 (신화)]]
[[mr:समुद्र मंथन]]
[[simple:Churning of the Ocean]]
[[te:క్షీరసాగర మథనం]]
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