"लोक संगीत": अवतरणों में अंतर

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संगीतमयी प्रकृति जब गुनगुना उठती है लोकगीतों का स्फुरण हो उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न ॠतुओं के सहजतम प्रभाव से अनुप्राणित ये लोकगीत प्रकृति रस में लीन हो उठते हैं। बारह मासा, छैमासा तथा चौमासा गीत इस सत्यता को रेखांकित करने वाले सिद्ध होते हैं। पावसी संवेदनाओं ने तो इन गीतों में जादुई प्रभाव भर दिया है। पावस ॠतु में गाए जाने वाले कजरी, झूला, हिंडोला, आल्हा आदि इसके प्रमाण हैं।
[[लोकगीतों/लोकसंस्कृतियों का सहेजा जाना बहुत जरूरी है ।]]
कहा जाता है कि जिस समाज में लोकगीत नहीं होते, वहां पागलों की संख्या अधिक होती है । सदियों से दबे-कुचले समाज ने, खास कर महिलाओं ने सामाजिक दंश/अपमान/घर-परिवार के तानों/जीवन संघषों से जुड़ी आपा-धापी को अभिव्यक्ति देने के लिए लोकगीतों का सहारा लिया । लोकगीत किसी काल विशेष या कवि विशेष की रचनाएं नहीं हैं । अधिकांश लोकगीतों के रचइताओं के नाम अज्ञात हैं । दरअसल एक ही गीत तमाम कंठों से गुजर कर पूर्ण हुई है । महिलाओं ने लोकगीतों को ज़िन्दा रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । आज वैश्वीकरण की आंधी में हमने अपनी कलाओं को तहस-नहस कर दिया है । अपनी संस्कृतियां अनुपयोगी/बेकार की जान पड़ने लगी हैं । ऐसे समय में कुशीनगर जनपद की संस्था-`लोकरंग सांस्कृतिक समिति´ ने लोकगीतों को सहेजने का काम शुरू किया है । संस्था ने तमाम लोकगीतों को बटोरा है और अपने प्रकाशनों में छापा भी है । संस्था महत्वपूर्ण लोक कलाकारों के अन्वेषण में भी लगी हुई है और उसने रसूल जैसे महत्वपूर्ण लोक कलाकार की खोज की है जो भिखारी ठाकुर के समकालीन एवं उन जैसे जरूरी कलाकार थे ।