"सफ़दर हाशमी": अवतरणों में अंतर

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१९७५ में इमरजेंसी के लागू होने तक सफदर जनम के साथ नुक्कड़ नाटक करते रहे, और उसके बाद इमरजेंसी के दौरान उन्होने, गढ़वाल, कश्मीर और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी साहित्य के लेक्चरर का पद संभाला।
इमरजेंसी के बाद सफदर वापिस राजनैतिक तौर पर सक्रिय हो गए, और १९७८ तक जनम भारत में नुक्कड़ नाटक के एक बड़ संगठन के रूप में उभरकर आया। एक नए नाटक 'मशीन' को दो लाख मजदूरों की विशाल सभा के सामने आयोजित किया गया। इसके बाद और भी बहुत से नाटक सामने आए, जिनमे निम्र वर्गीय किसानों की बेचैनी का दर्शाता हुआ नाटक 'गांव से शहर तक', सांप्रदायिक फासीवाद को दर्शाते(हत्यारे और अपहरण भाईचारे का), बेरोजगारी पर बना नाटक 'तीन करोड़', घरेलू हिंसा पर बना नाटक 'औरत' और मंहगाई पर बना नाटक 'डीटीसी की धंाधली' इत्यादि प्रमुख रहे। सफदर ने बहुत सी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों और दूरदर्शन के लिए एक धारावाहिक 'खिलती कलियों का निर्माण भी किया'। उन्होने बच्चों के लिए किताबें लिखीं, और भारतीय थिएटर की आलोचना में भी अपना योगदान दिया।
{{Rquote|right|मुद्दा यह नहीं है कि नाटक कहां आयोजित किया जाए((नुक्‍कड नाटक, कला को जनता तक पंहुचाने का श्रेष्‍ठ माध्‍यम है), बल्कि मुख्‍य मुद्दा तो तो उस अवश्‍यंभावी और न सुलझने वाले विरोधाभास का है, जो जो कला के प्रति ‘व्‍यक्तिवादी बुर्जुवा दृष्टिकोण’ और ‘सामूहिक जनवादी दृष्टिकोण’ के बीच होता है।
- सफदर हाशमी, अप्रैल 1983
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