"कारणता": अवतरणों में अंतर

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==परिचय==
'''कार्य-कारण-संबंध''' अन्यव्यतिरेक पर आधारित है। कारण के होने पर कार्य होता है, कारण के न होने पर कार्य नहीं होता। प्रकृति में प्राय: कार्य-कारण-संबंध स्पष्ट नहीं रहता। एक कार्य के अनेक कारण दिखाई देते हैं। हमें उन अनेक दिखाई देनेवाले कारणों में से वास्तविक कारण ढूँढ़ना पड़ता है। इसके लिए सावधानी के साथ एक-एक दिखाई देनेवाले कारणों को हटाकर देखना होगा कि कार्य उत्पन्न होता है या नहीं। यदि कार्य उत्पन्न होता है तो जिसको हटाया गया है वह कारण नहीं है। जो अंत में शेष बच रहता है वहीं वास्तविक कारण माना जाता है। यह माना गया है कि यह कार्य का एक ही कारण होता है अन्यथा अनुमान की प्रामाणिकता नष्ट हो जाएगी। यदि धूम के अनेक कारण हों तो धूम के द्वारा अग्नि का अनुमान करना गलत होगा। जहाँ अनेक कारण दिखाई देते हैं वहाँ कार्य का विश्लेषण करने पर मालूम होगा कि कार्य के अनेक अवयव कारण के अनेक अवयवों से उत्पन्न हैं। इस प्रकार वहाँ भी कार्यविशेष का कारणविशेष से संबंध स्थापित किया जा सकता है। कारणविशेष के समूह से कार्यविशेष के समूह का उत्पन्न मानना भूल है। वास्तव में समूह रूप में अनेक कारणविशेष समूहरूप में कार्य को उत्पन्न नहीं करते। वे अलग-अलग ही कार्यविशेष के कारण हैं।
 
कार्य के पूर्व में नियत रूप से रहना दो तरह का हो सकता है। कारण कार्य के उत्पादन के पहले तो रहता है परंतु कार्य के उस कारण से पृथक् उत्पन्न होता है। कारण केवल नवीन कार्य के उत्पादन में सहकारी रहता है। मिट्टी से घड़ा बनता है अत: मिट्टी घड़े का कारण है और वह कुम्हार भी जो मिट्टी को घड़े का रूप देता है। कुम्हार के व्यापार के पूर्व मिट्टी मिट्टी है और घड़े को कोई अस्तित्व नहीं है। कुम्हार के सहयोग से घड़े की उत्पत्ति होती है अत: घड़ा नवीन कार्य है जो पहले कभी नहीं था। इस सिद्धांत को आरंभवाद कहते हैं। कारण नवीन कार्य का आरंभक होता है, कारण स्वयं कार्य रूप में परिणत नहीं होता। यद्यपि कार्य के उत्पादन में मिट्टी, कुम्हार, चाक आदि वस्तुएँ सहायक होती हैं परंतु ये सब अलग-अलग कार्य (घड़ा) नहीं हैं और न तो ये सब सम्मिलित रूप में घड़ा इन सबके सहयोग से उत्पन्न परंतु इन सबसे विलक्षण अपूर्व उपलब्धि है। अवयवों से अवयवी पृथक् सत्ता है; इसी सिद्धांत के आधार पर आरंभवाद का प्रवर्तन होता है। भारतीय दर्शन में न्यायवैशेषिक इस सिद्धांत के समर्थक हैं।