"कछवाहा": अवतरणों में अंतर

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स्याऊ रियासत का सजरा
'''[[जयपुर]]''' में प्राथमिक रुप से जागीरदारों का विभाजन 'बारह कोटड़ी 'से आधारित था, सरदारों में सबसे मुख्य राजपूत कछवाहा थे, जो राजा के निकट सम्बन्धी होते थे। जयपुर के समीप स्थित आमेर का किला कछवाहा राजपूतों के गौरवशाली इतिहास का गवाह है। आमेर की घाटी में मीणाओं को फतह कर उन्होंने जब आमेर नगरी बसाई तो वहीं एक पहाडी पर उन्होंने भव्य किले का निर्माण कराया था। वही किला आज आमेर फोर्ट के नाम से विख्यात है।
इतिहास अतीत के माध्यम से वर्तमान को समझने की सतत् प्रक्रिया है जो भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करता है|एक प्रकार से यह परम्परा का पुनसुर्जन है|अतीत के प्रति आस्था भविष्य के प्रति सशक्त प्रेरणा है|क्षत्रियोंका इतिहास संपूर्ण भारत के लिए गौरव की वस्तु है|वह भारत के सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है|वस्तुतः उनका संपूर्ण इतिहास शौर्य और उत्सर्ग की अभीष्ट कहानी है|यही कारण है की क्षत्रिय-धर्म आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे मर्मज्ञ साहित्यकारों को भी सम्मोहित करता रहा है|खेद की बात है कि इतना समृद्ध इतिहास स्वयं हमसे विस्मृत होता जा रहा है|
 
क्षत्रियों का इतिहास वैदिक काल से प्रारम्भ होता है|ऋग्वेद के दशम मण्डल के अनुसार ब्रह्मा के बाहु से क्षत्रिय का जन्म हुआ|किन्तु कालान्तर से जिस प्रकार एक ही वृक्ष से अनेक शाखाएं प्रस्फुटित होती है उसी प्रकार क्षत्रियों कि भी शाखाएं प्रतिशाखाएं होती गयी|अतः यह अनिवार्य प्रतीत होता है कि क्षत्रियों कि शाखा विशेष के इतिहास का शोध किया जाये जिससे उनकी उत्पत्ति और विकास के सही क्रम का बोध हो सके|इसी संदर्भ में अथक प्रयास करने पर स्याऊ रियासत से उर्दू में लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ,जिसका हिंदी अनुवाद निम्न है:
आमेर घाटी को फूलों की घाटी कहा जाता है। घाटी में प्रवेश करते ही दूर से विशाल दुर्ग की प्राचीर, उसके गुंबद, बुर्ज और प्रवेशद्वार नजर आने लगते हैं। जिस पहाडी पर आमेर दुर्ग स्थित है उसके सामने एक सुंदर झील है। इसे मावठा सरोवर कहते हैं। झील के एक छोर पर ही किले में जाने का मार्ग है। जहां एक सुंदर वाटिका बनी है। इसे राजा जयसिंह के समय में बनवाया गया था। इसका नाम दूलाराम बाग है। बाग में कुछ छतरीनुमा कक्ष बने हैं। वहां एक छोटा सा संग्रहालय भी है। जिसमें ढूंढाढ क्षेत्र की धरोहरें प्रदर्शित हैं। इनमें प्राचीन मूर्तियां, शिलालेख, शिलापट्ट और सिक्के आदि शामिल हैं। किला करीब 150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आगे पैदल ढलान पर बढते हुए 10-15 मिनट में किले तक पहुंचा जा सकता है। यहीं कुछ गाइड पर्यटकों को घेर लेते हैं। इतिहास और स्थापत्य में रुचि रखने वाले सैलानी यहां गाइड जरूर करते हैं। उनसे उन्हें इमारत से जुडी तमाम गाथाओं की जानकारी हो जाती है। मार्ग में गाइड किले के निर्माण और कछवाहा राजपूतों का इतिहास बताने लगते हैं।
शजरा रियासत सियाजाद कैछ्वाई नरोके सुरजवंशी मानव वशिष्ठ काषिटक अयोध्यापुरी स्थान कश्मीर सुधानवासा काश्मीर से नरवरगढ़ से अमीरगढ सुधानवासा झांके मोजमाबाद सुधानवासा वहां से नंगला व स्याऊ सुधानवासा ब्रह्माजी के पुत्र श्री मार्कंडेय जी,मार्कंडेय जी के पुत्र कश्यप जी,कश्यप जी के पुत्र श्री सूर्यनारायण जी,सूर्यनारायण से १०६ पुश्त बाद राजा रामचन्द्र जी अवतार हुए जो राजा जी के बेटे थे और उस समय अयोध्या पूरी में रहते थे|राजा रामचन्द्र जी के दो बेटे जिनका नाम लव कुमार जिन्होंने लाहौर आबाद किया था|दुसरे बेटे कुश कुमार जिन्होंने कश्मीर आबाद किया था|कुश कुमार के दो पुत्र हुए जिनका नाम श्री कुमार और अश्वनी कुमार था|अश्वनी कुमार कि अड़तालिस पुशत बाद राजा नल हुए जिसने नरवरगढ़ आबाद किया|राजा नल के बेटे ढोल कुमार हुए,ढोल कुमार ने अमीरगढ़ बसाया|सम्वत ९७६ राजा हनुजी ,हनुजी के बेटे काकुलजी के बेटे राजा भूलरदेव,भेलरदेव के बेटे राजा पुजावन,राजा पुजावन के बेटे मलसी जी,मलसी जी के बेटे राजा वीजड़ जी,वीजड़ जी के बेटे राजा राजन देव जी,राजा राजन देव जी के बेटे राजा कल्याण सिंह जी,राजा कल्याण सिंह जी के बेटे राजा कोमल जी,कोमल जी के बेटे राजा जुनी जी, राजा जुनी जी के बेटे राजा मानव कर्ण,उनके दो बेटे राजा मीर सिंह और राजा नरु जी,राजा नरसिंह गढ़ कि गद्दी पर रहे,राजा नरु जी को चार लाख कि जागीर दी गयी|
 
सम्वत १४४२ मती फाल्गुन वदी तीज राजा नरोजी से न्रुके कहलाये,नरोजी के बेटे राजा जिलहर जी जिनके सात बेटे हुये उन्होंने नरवरगढ़ बसाया,राजा जिलहर जी के बेटे राजा महासिंह व कर्ण सिंह,राजा महासिंह के बेटे राजा बीजाकरण,राजा बीजाकरण के बेटे वहरमजी,राजा वहरमजी के बेटे राजा धर्मजी,राजा धर्मजी के दो बेटे हुए,राजा भागसेन और राजा अजीचन्द,अजीचन्द के दो बेटे सावंत और राजा मालदेव सिंह और मालदेव सिंह गंगा स्नान के लिए गढ़मुक्तेश्वर गये और सम्वत १४४२ में बाअहद बादशाह बाबरशाह मुगल रोहिल्ला के वक्त में आये,राजा सावंत सिंह ने हमराह १२ क्षत्री लेकर और वृन्दोवीन झानू ने दी और मद्दी को फतेह किया|वहां से नंगला आबाद किया और फिर स्याऊ आबाद किया|
 
हेवेन्द्र कुमार सिह् कुशवाहा(स्याऊ)
 
आमेर के अतीत पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि छ: शताब्दियों तक यह नगरी ढूंढाढ क्षेत्र के सूर्यवंशी कछवाहों की राजधानी रही है। बलुआ पत्थर से बने आमेर के किले का निर्माण 1558 में राजा भारमल ने शुरू करवाया था। निर्माण की प्रक्रिया बाद में राजा मानसिंह और राजा जयसिंह के समय में भी जारी रही। करीब सौ वर्ष के अंतराल के बाद राजा जयसिंह सवाई के काल में यह किला बन कर पूरा हुआ। उसी दौर में कछवाहा राजपूत और मुगलों के बीच मधुर संबंध भी बने, जब राजा भारमल की पुत्री का विवाह अकबर से हुआ था। बाद में राजा मानसिंह अकबर के नवरत्‍‌नों में शामिल हुए और उनके सेनापति बने। वही आमेर घाटी और इस किले का स्वर्णिम काल था।
 
कछवाहों द्वारा अपनी राजधानी जयपुर स्थानांतरित करने के बाद आमेर का वैभव लुप्त होने लगा। लेकिन यह गौरवशाली किला आज भी उसी शान से खडा है। बाहरी परिदृश्य में यह किला मुगल शैली से प्रभावित दिखाई पडता है। जबकि अंदर से यह पूर्णतया राजपूत स्थापत्य शैली में है। पर्यटक आमेर किले के ऊंचे मेहराबदार पूर्वी द्वार से प्रवेश करते हैं। यह द्वार सूरजपोल कहलाता है। इसके सामने एक बडा सा चौक स्थित है। इसे जलेब चौक कहते हैं। आमेर फोर्ट पहाडी के ढलान पर विभिन्न सोपानों पर बना है। जलेब चौक इनमें सबसे निचले सोपान पर स्थित है। विशाल चौक के तीन ओर कुछ कक्ष बने हैं। बताते हैं कि उस समय यहां सैन्य आवास तथा घुडसाल आदि होते थे। आज इनमें हैंडीक्त्राफ्ट आदि की दुकानें हैं। इसके पश्चिम दिशा में चांदपोल नामक एक अन्य द्वार है।
 
महलों की ओर
 
जलेब चौक से सैलानी महलों की ओर बढते हैं तो वहां दो सीढियां नजर आती हैं। इनमें एक सीढी शिला देवी मंदिर की ओर जाती है। मान्यता है कि शिला देवी राजाओं की कुलदेवी थीं। मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा राजा मानसिंह द्वारा 1605 में स्थापित की गई थी। मंदिर के द्वार पर चांदी के कलात्मक दरवाजे लगे हैं। मंदिर में दर्शन करने के बाद पर्यटक दूसरी सीढियों से सिंहपोल में प्रवेश करते हैं। यह एक दोहरा द्वार है। इससे अंदर जाते ही सामने दीवान-ए-आम है। यह एक विशाल आयताकार भवन है। इसके मध्य दरबार लगता था और राजा जनता से मिलते थे। इस हाल का निर्माण राजा जयसिंह प्रथम के काल में हुआ था। तीन ओर से खुले इस भवन के चारों ओर लाल पत्थर के खंबों की दो पक्तियां हैं। दीवान-ए-आम में कुल चालीस खंबे हैं। इनमें कुछ संगमरमर के खम्बे हैं। इसके दक्षिण दिशा में आलीशान गणेश पोल नजर आता है। यह इस किले का सुंदरतम द्वार है। जिसका निर्माण जयसिंह सवाई ने करवाया था। मेहराबनुमा इस शानदार द्वार के तीन ओर भव्य नक्काशी और चित्रकारी देखने को मिलती है। द्वार में पीतल के सुंदर दरवाजे जडे हैं। द्वार के ऊपरी हिस्से में गणेश जी की छोटी सी प्रतिमा विराजमान है। गणेशपोल से अंदर जाते ही शानदार महलों का सिलसिला शुरू हो जाता है। इनमें सर्वप्रमुख शीश महल है। यह वास्तव में दीवान-ए-ख्ास है। इसे जयमंदिर भी कहते हैं। इसकी दीवारों पर शीशे की आलीशान पच्चीकारी और मनमोहक नक्काशी देखने लायक है। इसकी छत में भी शीशे जडे हैं। दीपक या मोमबती का जरा सा प्रकाश करते ही यह शीशमहल जगमगा उठता है। प्रत्येक शीशे में जब प्रकाश का प्रतिबिंब दिखता है तो ऐसा लगता है जैसे आसमान में असंख्य तारे टिमटिमा उठे हों। दीवान ए ख्ास में दो विशाल कमरे हैं। आगे वाले कमरे में तीन तरफ सुंदर बरामदे बने हैं।
 
राजाओं का निजी महल
 
आगे बढें तो सुखनिवास है। यह आमेर के राजाओं का निजी महल था। इसके आगे एक हरा-भरा उद्यान है। यह उद्यान मुगल उद्यानों की चारबाग शैली में बनाया गया था। मध्य में लगे फव्वारे और जल प्रवाह के लिए बनी नालियों में जब पानी बहता तो वातावरण शीतल हो जाता था। ग्रीष्म ऋतु में यह उनका प्रिय आवास होता था। सुखनिवास के चंदन के दरवाजों पर पच्चीकारी भी इस उद्यान के डिजाइन के अनुरूप की गई है। यह कारीगरी हाथी दांत से की गई है।
 
यश मंदिर नामक महल दीवान-ए-खास के ऊपर बना है। यहां पीछे की ओर बनी संगमरमर की जालियां और झरोखे बहुत शानदार लगते हैं। इनसे मावठा झील और आमेर घाटी का विहंगम दृश्य दिखाई पडता है। इसके पास ही सुहाग मंदिर है। यह गणेशपोल के ऊपरी भाग में बना है। यहां भी संगमरमर के बारीक डिजाइन वाली जालियां लगी हैं। जिनमें छोटे-छोटे झरोखे भी बने हैं। रनिवास की स्त्रियां यहां से दीवान-ए-आम में होने वाली गतिविधियां देखा करतीं थीं। आमेर फोर्ट के तीसरे सोपान पर जनाना महल है। यह यहां का सबसे प्राचीन महल बताया जाता है। जिसे राजा मानसिंह ने बनवाया था। इसमें रंगीन टाइल्स लगी थीं। जो अब क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। इसके निकट ही परिचारिकाओं के प्रवास के अलावा रसोईघर और भ्ाडारगृह आदि बने हैं।
 
कैसे पहुंचें
 
आमेर का किला गुलाबी नगरी जयपुर से केवल 11 किलोमीटर दूर है। किले तक जाने के लिए हाथी की सवारी भी की जा सकती है। हालांकि यह छोटा सा ट्रिप काफी महंगा होता है। आमेर आने वाले सैलानी यहां की गलियों में भी घूमने निकल पडते हैं। जगत शिरोमणी मंदिर उन्हें बहुत प्रभावित करता है। इसे मीराबाई मंदिर भी कहते हैं। इसके अलावा प्राचीन नरसिंह मंदिर, पन्ना मियां की बावडी तथा कुछ हवेलियों के भग्नावशेष भी यहां देखे जा सकते हैं। यहां से ऊपर पहाडी पर आगे जाकर जयगढ फोर्ट भी देखा जा सकता है। ज्यादातर सैलानी जयपुर से आकर यह किला देख जाते हैं। यहां घूमने का उपयुक्त मौसम अगस्त से अप्रैल तक है। आमेर भ्रमण वैसे तो जयपुर यात्रा का हिस्सा ही है। लेकिन किले को अच्छी तरह देखना हो तो अधिक समय लेकर आना चाहिए। आमेर के भव्य किले को देखने के बाद हमें मध्यकालीन राजाओं के वैभव का अनुमान लगता है।
[[श्रेणी:राजस्थान]]
[[श्रेणी:राजवंश]]