"रॉबर्ट क्लाइव": अवतरणों में अंतर
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'''राबर्ट क्लाइव''' (१७२५-१७७४ ई.) [[भारत]] में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक। २९ सिंतबर, १७२५ को स्टाएच में जन्म हुआ। पिता काफी दिनों तक मांटगुमरी क्षेत्र से पालमेंट के सदस्य रहा। बाल्यकाल से ही वह निराली प्रकृति का था। वह एक स्कूल से दूसरे स्कूल में भर्ती कराया जाता किंतु वह खेल में इतना विलीन रहता कि पुस्तक आलमारी में ही धरी रह जाती। १८ वर्ष की आयु में मद्रास के बंदरगाह पर क्लर्क बनकर आया। यहीं से उसका [[ईस्ट इंडिया कंपनी]] का जीवन आरंभ होता है। १७४६ में जब मद्रास अंग्रेजों के हाथ से निकल गया तब उसे बीस मील दक्षिण स्थित सेंट डेविड किले की ओर भागना पड़ा। उसे वहाँ सैनिक की नौकरी मिल गई। यह समय ऐसा था जब भारत की स्थिति ऐसी हो रही थी कि
क्लाइव ने सेंट डविड के किले में आने के बाद रेजर लारेंस की अधीनता में कई छोटी मोटी लड़ाइयों में भाग लिया ही था कि १७४८ में [[फ्रांस]] और [[इंग्लैंड]] के बीच समझौता हो गया और क्लाइव को कुछ काल के लिये पुन: अपनी क्लर्की करनी पड़ी। उसे उन्हीं दिनों जोरों का बुखार आया फलस्वरूप वह बंगाल आया। जब वह लौटकर मद्रास पहुंचा, उस समय दक्षिण और कर्नाटक की नवाबी के लिये दो दलों में संघर्ष चल रहा था। चंदा साहब का साथ कर्नाटक का नवाब बन गया। मुहम्मद अली ने अंग्रेजों से समझौता किया, सारे कर्नाटक में लड़ाई की आग फैलगई, जिसके कारण कर्नाटक की बड़ी क्षति हुई। तंजोर और मैसूर के राजाओं ने भी इसमें भाग लिया। मुहम्मद अली त्रिचनापल्ली को काबू में किए हुए थे। चंदा साहब ने उस पर आक्रमण किया। अंग्रेंजों ने मुहम्मद अली को बचाने के लिये क्लाइव के नेतृत्व में एक सेना आर्काट पर आक्रमण करने के लिये भेजी। क्लाइव ने आर्काट पर घेरा डाल दिया और डटकर मुकाबला किया। चंदा साहब की
आर्काट के घेरे के कारण यूरोप में क्लाइव की धाक जम गई। वलियम पिट ने उसे स्वर्ग से जन्में सेनापति कह कर सम्मानित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालक मंडल ने उसे ७०० पाउंड मूल्य की तलवार भेंट करनी चाही तो उसने उसे तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक उसी रूप में लारेंस का सम्मान नहीं हुआ।
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इसी बीच यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध आरंभ हो गया। इसका प्रभाव भारत की राजनीति पर भी पड़ा । यहां भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में लड़ाई छिड़ गई। बंगाल में चंद्रनगर पर फ्रांसीसियों का प्रभाव रहा।
अंग्रेजों ने वहां अपना समुद्री बेड़ा भेजने की तैयारी आरंभ कर दी। १४ मार्च, १७५७ को चंद्रनगर पर आक्रमण हुआ और एक ही दिन के बाद फ्रांसीसियों ने हथियार डाल दिए। वाटसन ने नदी की ओर से और क्लाइव ने दूसरी ओर से
चंद्रनगर की लड़ाई के बाद क्लाइव को ज्ञात हुआ कि सिराजुद्दौला से उसके अपने ही आदमी असंतुष्ट हैं; और उनमें उसका सेनापति मीरजाफर प्रमुख हैं। क्लाइव ने इससे लाभ उठाने का निश्चय किया। फलस्वरूप मीरजाफर और अंग्रेजों के बीच एक गुप्त समझौता हुआ। जिसके अनुसार कलाइव ने पीरजाफर को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी दिला देने का वादा किया। इसके लिये मीर जाफर को कलकत्ता में हुए कंपनी की हानि और सैनिक व्यय के लिये १० लाख पाउंड, कलकत्ते के अंग्रेज निवासियों को २ लाख पाउंड और अरमीनियन व्यापारियों को ७० हजार पाउंड देने की बात ठहरी। अमीचंद ने, जिसने अंग्रेजों और मीरजाफर के बीच समझौता कराया था, नवाब से उसके खजाने का पँाच प्रतिशत कमीशन माँगा। और इस बात का उललेख संधिपत्र में किए जाने का आग्रह किया। फलत: क्लाइव ने दो संधिपत्र तैयार कराए। एक असली दूसरा नकली। नकली संधिपत्र में अमीचंद की शर्ते लिख दी गई थीं। नकलीवाले संधिपत्र पर अंग्रेज गवर्नर का हस्ताक्षर बनाकर उसे दिखाया गया। मीरजाफर ने लड़ाई में तटस्थ रहने का वादा किया । यह निश्चय हुआ कि लड़ाई के मैदान में मौजूद रहते हुए भी वह अलग रहेगा।
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अंग्रेजी सेना ने क्लनाइव के नेतृत्व में सिराजुद्दौला के खिलाफ कार्रवाई की और परिणामस्वरूप प्लासी की लड़ाई हुई। प्लासी में सिराजुद्दौला की हार हुई और अंग्रेजों ने मीरजाफर को बंगाल को नवाब बना दिया। इस प्रकार क्लाइव के कारण अंग्रेज बंगाल के मालिक बन गए। ईस्ट इंडिया कंपनी को १५ करोड़ पौंड मिले। क्लाइव को उसमें से २ लाख ३४ हजार पौंड दिया गया और मीरजाफर ने भी उसे तीस हजार पौंड सालाना की जागीर दूसरे रूप से दी।
१७५९ में राजकुमार अली गौहर ने, जो आगे चलकर शाहआलम के नाम से शासक हुआ, दिल्ली से भागकर अवध में शरण ली । वह अपनी शक्ति बढ़ाने के लिये बिहार और बंगाल पर भी कब्जा करना चाहता था। उसने पटना को घेर लिया। नवाब के प्रतिनिधि रामनारायण ने उसका मुकाबला तब तक किया जब तक कलकत्ता से अंग्रेजों की सहायता नहीं
१७५९ में डच लोगों ने मीरजाफर के लड़के से साजिश कर अंग्रेजों को बंगाल से निकालने की योजना बनाई और फलस्वरूप उन्होंने सात जहाज नागापट्टम से रवाना किए ; मगर जब वे हुगली के पास पहुँचे तो नवाब की ओर से उन्हें अपनी सेना उतारने की मनाही मिली। फलत: डच और अंग्रेजों में झड़प हुई, जिसमें डचों को जान और माल का नुकसान हुआ।
१७६० ई. में क्लाइव इंग्लैंड वापस लौटा । उस समय क्लाइव के पास ३० लाख पौंड सालाना की रकम मिलने की व्यवस्था थी। इंग्लैंड
१७६४ में फिर क्लाइव को बंगाल का गवर्नर बनाकर भेजा गया और मई, १७६५ में क्लाइव दुबारा कलकत्ता आया। इस समय उसके सामने दो समस्याएँ थीं। एक राजनीतिक और दूसरी प्रशासकीय। राजनीतिक समस्या मुगल बादशाहों, अवध राज्य तथा बंगाल के नवाव से संबंध रखती थी । प्रशासकीय समस्या कं पनी के नौकरों की मुनाफाखोरी की थी।
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बंगाल की गवर्नरी से पहले उसने कं पनी के भत्ते के संबंध में नए कानून बनाए थे मगर वे कार्यवित न हो सके थे। क्लाइव ने बंगाल पहुंचते ही इस कानून को जारी किया। इस कानून के अनुसार सैनिक अफसरों को बंगाल और बिहार में उसी समय भत्ता मिल सकता था जब वे छावनी से बाहर हों। केवल मुंगेर और पटना केंद्र में रहने वाले अफसरों को भत्ता मिलता था। इस प्रकार एक अफसर को तीन, छह और बारह रूपए प्रति दिन भत्ता मिलता था। सिविल अफसरों की भाँति जब सैनिक अफसरों ने भी इस कानून के विरोध में नौकरी से इस्तीफा देने की ठानी तब क्लाइव ने उनका इस्तीफा स्वीकार किया और उसके स्थान पर मद्रास से बुलाकर अफसर रखे। जो लोग विद्रोह पर तैयार हुए उन्हें दबा दिया। मीनजाफर ने अपनी वसीयत में ७० हजार पौंड क्लाइव के लिये लिखे थे। उनको क्लाइव ने उन लोगों के नाम कर दिया जो युद्ध में घायल हुए थे।
फरवरी, १७६७ में क्लाइव ने अंतिम बार भारत छोड़ा मगर जाने से पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी की नींब मजबूत कर दी। इंग्लैंड जाने पर उनके ऊपर [[भ्रष्टाचार]] का [[मुकदमा]] चला, किंतु उससे वह बरी कर दिया गया और अपनी सेवाओं के लिये वजीफा दिया गया।
[[श्रेणी:भारत के ब्रिटिश प्रशासक]]
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