"संस्कृत भाषा का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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आचार्य पतंजलि के "व्याकरण महाभाष्य" नामक प्रसिद्ध शब्दानुशासन के आरंभ में भी वैदिक भाषा और लौकिक भाषा के शब्दों का उल्लेख हुआ है। "संस्कृत नाम दैंवी वागन्वाख्याता महर्षिभि:" वाक्य में जिसे देवभाषा या 'संस्कृत' कहा गया है वह संभवत: यास्क, पाणिनि, कात्यायन और पंतजलि के समय तक "छंदोभाषा" (वैदिक भाषा) एवम् "लोकभाषा" के दो नामों, स्तरों व रूपों में व्यक्त थी।
 
बहुत से विद्वानों का मत है कि भाषा के लिए "संस्कृत" शब्द का प्रयोग सर्वप्रथ वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड (30 सर्ग) में हनुमन् द्वारा विशेषणरूप सेमें (संस्कृता वाक्) किया गया है।
 
भारतीय परंपरा की किंवदंती के अनुसार संस्कृत भाषा पहले अव्याकृत थी, अर्थात उसकी प्रकृति एवम् प्रत्ययादि का विश्लिष्ट विवेचन नहीं हुआ था। देवों द्वारा प्रार्थना करने पर देवराज इंद्र ने प्रकृति, प्रत्यय आदि के विश्लेषण विवेचन का उपायात्मक विधान प्रस्तुत किया। इसी "संस्कार" विधान के कारण भारत की प्राचीनतम आर्यभाषा का नाम "संस्कृत" पड़ा। ऋक्संहिताकालीन "साधुभाषा" तथा 'ब्राह्मण', 'आरण्यक' और 'दशोपनिषद्' नामक ग्रंथों की साहित्यिक "वैदिक भाषा" का अनंतर विकसित स्वरूप ही "लौकिक संस्कृत" या "पाणिनीय संस्कृत" कहलाया। इसी भाषा को ही "संस्कृत","संस्कृत भाषा" या "साहित्यिक संस्कृत" नामों से जाना जाता है।