"शिबू सोरेन": अवतरणों में अंतर

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*[[झारखंड]]
*[[झारखंड आंदोलन]]
एक जमाना था जब झारखंड के शोषित उत्पीड़ित आदिवासियों के एक मात्र निर्विवाद नेता शिबू सोरेन थे, जिन्हें उनके अनुयायी सस्नेह गुरु जी कहकर पुकारते थे। शिबू सोरेन के तेव्रा जुझारू थे और सभी राजनैतिक दल उन्हें अपनी तरफ खींचने का अपने साथ बनाए रखन का प्रयत्न करते थे। तब से अब तक गंगा यमुना में बहुत सारा पानी बह चुका है और झारखंड की जमीन बेगुनाहों के खून की नदियों से दिल दहलाने वाल कीचड़ में तब्दील हो चुकी है। मगर जिस दर्दभरी दास्तान की बात हम यहां करने जा रहे हैं, वह झारखंड की व्यथा की नही, बल्कि एक कद्दावर नेता के एक ऐसे बौने रूप में बदलने की है, जिस कोई बेचारा मानेने को भी तैयार नहीं।
 
शिबू सोरेन का नाम आज की नौजवान पीढ़ी को समर्थ या क्रांतिकारी अपनी जमीन या लोगों से जुड़े आदर्शवादी नेता के रूप में याद नहीं रह गया। उनकी पहचान है, एक ऐसे भ्रष्ट खुदगर्ज, कुनबापरस्त अवसरवादी व्यक्ति की, जो साझा सरकार के युग में केंद्र का भयादोहन करने में माहिर है। शिबू सोरेन ने बदनामी कमान के दौर में तब कदम रखा, जब अब तक भारत के इतिहास में सबसे भ्रष्ट प्रधानमंत्री का आक्षेप झेल चुके नरसिंह राव गद्दीनशीन थे।
 
झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वतखोरी कांड खासा विवादास्पद रहा और संसद के विशेषाधिकार की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अति तकनीकी व्याख्या के कारण ही शिकंजे में फंसे सांसद छुटकारा पा सके थे। जितने भोलेपन से आदिवासियों ने शातिर लोगों द्वारा पेश किया नजराना कबूल किया और फिर इतनी बड़ी रकम को देखने-संभालन का कोई अनुभव न होन के कारण उसे निजी बैंक खातों में जमा करवा दिया था, उस पर तरस ही खाया जा सकता है। एेसे किसी निरीह व्यक्ति को पेशेव्रा मक्कार या जालसाज कोई कैस कह सकता है? इस तरह के घपले-घोटाल की तुलना चारा फर्जीबाड़े या बाढ़ राहत कार्य स करना बेकार है। सत्यम जैसी कंपनी के मालिक राजू साहब का सफेदपोश अपराध तो और भी दूरदराज की चीज है।
 
इन दो-तीन बातों का जिक्र यहां इसलिए बेहद जरूरी है कि शिबू सोरेने और उनके समर्थक अपने बचाव में इसी तरह के उदाहरण देते रहे हैं। अगर चारा घोटाले में लिप्त होन के आरोपी और अब तक बाइज्जत बरी न हो सके -लालू यादव या ताज एक्सप्रेसवे समेत दर्जनों बड़े सरकारी निर्माण कार्यों का भंडाफोड़ होने के बावजूद बहन मायावती न केवल मुख्यमंत्री बनी रहती है, बल्कि प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सकती हैं तब फिर रोक-टोक गुरु जी के लिए ही क्यों? बात यहीं खत्म नहीं होती।
 
शिबू सोरेन पर हत्या जैसे जघन्य अपराध का आरोप भी है। मगर यहां भी यह तर्क दिया जा सकता है कि उन्हें राजनैतिक कारणों से इस मामले में फंसाया गया है। जिस घटना में उन्हें दोषी पाया गया और दंडित किया गया, उसमें उनकी जिम्मेदारी एक ऐसे जुलूस के नेतृत्व की रही जो आपा खा कर मजिस्ट्रेट की हत्या करने पर आमादा हो गया। भारतीय राजनीति में जितने भी आपराधिक छवि वाले बाहुबली नेतागण या उनके वंशज हैं, सभी अपने बचाव में इसी तरह की बात तोंतारटंत की तरह दोहराते रहते हैं। शाहाबुद्दीन हो या डी पी यादव, मुख्तार अंसारी हो या कोई और, एक बार इस बुनियाद पर अदालत के फैसले को नकारन के बाद हम जंगल राज से बच नहीं सकते।
 
सबस कड़वा सच तो यह है कि सरकार में बने रहने के लिए या अपने न्यस्त स्वार्थों की रक्षा के लिए या तो दिग्गज नेता समर्थ बाहुबलियों से हाथ मिला लेते हैं या महाबली समझे जाने वाले असामाजिक तत्व अपना जातीय गौरव या सामंती ठसका भूल राजनैतिक हस्तियों के सामने झुकने लगते हैं। मजबूरी का कारण यह है कि भारत के उच्चतर न्यायपालिका आज भी निर्भय और निष्पक्ष है और हाल ही में अपन कई फैसलों में सर्वोच्च न्यायालय यह बात भलीभांति झलका चुका है कि वह धनव्नाा या ताकतवर अपराधियों को बख्शने वाला नहीं, चाहे वह कितनी ही मशहूर हस्ती क्यों न हो।
 
मृत्युदंड या आजीवन कारावास की तलवार जब अपने या लाड़ले के सर पर लटक रही हो, तब हठ पर डटे रहना कठिन हो जाता है। विडंबना यह है कि अपराधी को क्षमादान का अधिकार सत्तारूढ़ सरकार को है। अगर निर्लज्जता से एकाएक ऐसा करना संभव न हो तब भी मामल की जांच-पड़ताल को पथभ्रष्ट कर मुकदम को हल्का बनाना बिना सरकारी सहयोग के संभव नहीं। यही वजह है कि डी पी यादव हो या राजा भैया उन्हें अब मायावती किसी और राजनैतिक पार्टी- नेता की तुलना में फायदेमंद नज़र आती है।
 
यूपीए सरकार के साथ लालू जी के नात को पुख्ता रखने में भी यह तर्क असरदार रहा है। जब तक केंद्र में एनडीए सरकार थी, तब तक उन लोगों को जांच-गिरफ्तारी सजा का वैसा खौफ न था, जैसा आज है। बात बाबरी मस्जिद के व्क्ता की ही नहीं मुंबई के 1993 वाले बम धमाकों के बाद भड़के दंगों और गोधरा कांड के बाद गुजरात में फैली वंशनाशक सांप्रदायिक हिंसा की भी है। गुनाहगार को सज़ा मिलेगी ही इसका भरोसा करना सहज नहीं।
 
मतदाता अपना मन तात्कालिक कारणों, स्थानीय मुद्दों, निजी स्वार्थों के अुनसार बनाते हैं, सरकारों के नसीब बनते-बिगड़ते हैं और इस आवाजाही में पुराने घपले-घोटाले बिसराए जाते हैं आसानी से। शिबू सोरेन जैसे लोगों को इन सब का बेशुमार फायदा हुआ है। वह यह जिद्द पाले रहे कि या तो उन्हें उनके सूब का मुख्यमंत्री बनाया जाय या केंद्र में फायदेमंद अपनी रुचि का विभाग सौंप कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया जाए।
 
झारखंड का घनघोर दुर्भाग्य यह रहा है कि उसके भविष्य के बारे में जुबान खोलने का हकदार वहां रहने वाले आम आदमी को नहीं समझा जाता, बल्कि उसके भाग्य का विधाता शिबू सोरेन, लालू यादव बहुत हो गया तो मरांडी, मधु कोड़ा जैसे लोग ही समझे जाते हैं। यही कारण है कि राज्य के प्रशासकों का मनोबल- पुलिस का ही नहीं- बुरी तरह टूटा हुआ है। नक्सलवादी हिंसा पर काबू पाना असंभव हो गया है और बेशुमार खनिज संपत्ति का मालिक होन के बावजूद भी राज्य दरिद्र बना हुआ है।
 
यदि भूले-बिसरे किसी और सिलसिले में झारखंड का जिक्र होता भी है तो पलक झपकते क्रिकेट की लॉटरी खुलने से अरबपति बने मॉडलनुमा महेंद्र सिंह धोनी के असमाजिक तत्वों द्वारा भयादोहन के कारण। शिबू सोरेन की दर्दभरी दास्तान उनके मौजूदा कष्ट के कारण इतनी क्लेशदायक नहीं जितना इस लगभग शाश्वत सत्य के कारण कि शिबू सिर्फ एक व्यक्ति नहीं प्रतीक और लक्षण हैं उस लगभग लाइलाज बीमारी का, जिससे हमारा सार्वजनिक जीवन आज ग्रस्त है।
 
==बाहरी कड़ियाँ==