विष्णु सीताराम सुकथंकर
विष्णु सीताराम सुकथंकर (1887-1943) संस्कृत के विद्वान एवं भाषावैज्ञानिक थे।
परिचय
संपादित करेंप्रारंभिक शिक्षा मराठा हाईस्कूल तथा सेंट जेवियर कॉलज (बंबई) में प्राप्त करने के बाद ये केंब्रिज चले गए, जहाँ इन्होंने गणित में एम.ए. किया। तत्पश्चात् इनका रुझान भाषा विज्ञान एवं संस्कृत साहित्य के अध्ययन की ओर हो गया और ये बर्लिन जा पहुँचे। वहाँ इन्हें प्रोफेसर लूडर्स के अधीन भाषा विज्ञान की विधाओं में अच्छा प्रशिक्षण प्राप्त हुआ। इनके शोध प्रबंध का शीर्षक था 'डाई ग्रैमैटिक शाकटायनाज'। इसमें इन्होंने शाकटायनकृत व्याकरण के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद का सटीक विवेचन किया। भारत लौट आने के बाद इनकी नियुक्ति पुरातत्वीय पर्यवेक्षण विभाग में सहायक अधीक्षक के पद पर हो गई। यहाँ इन्होंने कितने ही पूर्व मध्यकालीन शिलालेखों का उद्वाचन और स्पष्टीकरण किया तथा उसे 'एपिग्रैफिआ इंडिका' में प्रकाशित कराया। इसके सिवा इन्होंने सातवाहन राजवंश के इतिहास पर कई महत्वपूर्ण लेख लिखे और महाकवि भास आदि का सम्यक् विवेचन किया।
श्री सुकथंकर की प्रतिभा का पूर्ण विकसित रूप उस समय प्रकट हुआ जब सन् 1925 में इन्होंने भाण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान में 'महाभारत मीमांसा' के प्रधान संपादक के रूप में काम करना आरंभ किया। इन्होंने बड़े धैर्य और बड़े परिश्रम के साथ कार्य करते हुए अद्भुत समीक्षात्मक विदग्धता का परिचय दिया और मूल पाठ संबंधी विवेचन की ऐसी विधाएँ प्रस्तुत कीं जिनका प्रयोग उस महाकाव्य के संपादन में कारगर रूप से किया जा सकता था। इनका शुरू में ही यह विश्वास हो गया था कि शास्त्रीय भाषा विज्ञान के जो सिद्धांत यूरोप में निश्चित हो चुके हैं, वे उनके लक्ष्य के लिए पूर्णत: उपयोगी नहीं हो सकते। इनका उद्देश्य इस ग्रंथ के उस प्राचीन मूल पाठ का निर्धारण करना था, जो उपलब्ध विभिन्न पांडुलिपियों के पाठभेदों का उदारतापूर्वक किंतु सावधानी से प्रयोग करने पर उचित जान पड़े। महाभारत मीमांसा (1933) के उपोद्धात में इन्होंने इस संबंध में अपने विचार बड़ी योग्यता से प्रस्तुत किए हैं। इस ग्रंथ के लिए दो पर्वों- आदि पर्व तथा आरण्यक पर्व-का संपादन उन्होंने स्वयं किया था।
बंबई विश्वविद्यालय के तत्वावधान में श्री सुकथंकर महाभारत पर चार व्याख्यान देने वाले थे किंतु तीसरे व्याख्यान के ठीक पहले उनका देहावसान हो गया। ये व्याख्यान इनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित किए गए। वास्तव में इनके निधन के दो वर्ष के भीतर ही इनकी सभी रचनाएँ दो जिल्दों में प्रकाशित कर दी गईं। ये अमरीकी प्राच्य संस्था के सम्मानित सदस्य थे तथा प्राग के प्राच्य संस्थान के भी सदस्य थे।