वैकम मुहम्मद बशीर

केरल, भारत से मलयालम कथा लेखक

वैकम मुहम्मद बशीर (१९१०) मलयालम के वरिष्ठ साहित्यकार थे। अनर्थ निमिष, जन्मदिन, मूर्खों का स्वर्ग, मेरे दादा का हाथी आदि उनकी २५ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे साहित्य अकादमी के वरिष्ठ पदों पर भी रह चुके हैं।[1]

वैकम मुहम्मद बशीर

जन्म 21 जनवरी 1908
वैक्कम, केरल, भारत
मृत्यु जुलाई 5, 1994(1994-07-05) (उम्र 86 वर्ष)
कोज़ीकोड, केरल, भारत
व्यवसाय साहित्यकार
राष्ट्रीयता भारतीय
उल्लेखनीय सम्मान पद्मश्री

जीवन चरीत्र

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प्रार्ंभिक जीवन

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बशीर उत्तरी त्रावणकोर, में तलयोलपर्ंब में पैदा हुए, वह अपने माता-पिता के बडे बेटे थे। उनके पिता एक इमारती लकड़ी व्यवसाय में थे, उनके काम से उनके पूरे परिवार वालों का गुज़ारा नहीं हो पाता था। मलयालम माध्यम के स्कूल में अपनी शिक्षा की शुरुआत की और उसके बाद् वह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल मे पढाई की, जो वैकम मे था। जबकि स्कूल में वह महात्मा गांधी के प्रभाव मे आ गये, स्वदेशी आदर्शों से प्रेरित होकर, उन्होंनें खद्दर पहनना शुरू कर दिया। जब गाँधी वैकम सत्याग्रह् (१९२४) में भाग लेने के लिए आये, बशीर उन्हें देखने गये। जिस कार मे गाँधी यात्रा कर रहे थे, बशीर उस पर चढ़े और उनका हाथ को छुआ। वह हर रोज़ गांधी के सत्याग्रह आश्रम जाते थे, जो वैकम मे स्थित् है। इस् कारण वो विद्यालय में देर से पहुँचते थे और उनको सज़ा मिलती थी। उन्होने विद्यालय छोड़ कर, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का निर्णय लिया। वह सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे।

त्रावणकोर मे कोई स्वतंत्रता आंदोलन ना होने के कारण, वह मालाबार सत्याग्रह में भाग लेने के लिए गये। सत्याग्रह मे भाग लेने से पहले ही उनका संघ गिरफ्तार हो गया। बशीर को तीन महीने की कैद की सजा सुनाई गयी और कन्नूर के जेल में भेजा गया। वह कन्नूर जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु, जैसे क्रांतिकारियों की वीरता की कहानियों को सुनकर प्रेरित हो गये। गांधी-इर्विन समझौता मार्च १९३१ के बाद वह और लगभग ६०० राजनैतिक कैदियों को रिहा किया गया। जेल से रिहा होने के बाद उन्होने एक अंग्रेज-विरोधी आंदोलन का आयोजन किया और एक क्रांतिकारी जर्नल, उज्जीवनम ('विद्रोह') संपादित भी किया। उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी किया गया था।

केरल छोड़ने के बाद, उन्होंने पूरी भारत की यात्रा की और एशिया के कई जगहों पर भी गये। यहाँ जो भी काम किया उससे वह भूखे नहीं रहते थे। एक करघा फिटर, ज्योतिषी, कुक, अखबार विक्रेता, फल विक्रेता, खेल के सामान एजेंट, एकाउंटेंट, चौकीदार, चरवाहा से लेकर वे सारे काम करते थे। एक तपस्वी के रूप में वे हिंदू संत और सूफी फकीरों के साथ उनके रीति रिवाजों और प्रथाओं का पालन कर के हिमालय और गंगा बेसिन की गुफाओं में रहते थे। कई बार बिना पानी और खाने से उनकी हालत दयनिय रही। अजमेर, पेशवार, कशमीर, कलकत्ता में छोटे मोटे काम कर के जीते रहे। बशीर फिर घर वापस आया और तब उसे पता चला कि उसका परिवार गरीब हो गया है। जब बशीर काम दूँढकर "जयकेसरी" नामक अखबार के कार्यालय मे गये, उसके सम्पादक ने कहा कि उसके पास देने के लिये कोई काम नही था पर वे उसके लिये कहानियॉ लिख सकते थे जिसके लिये उसे पैसा मिलेगा। इसी अखबार में उनकी पहली कहानी "एन्डे त्ंगम" प्राकशित हुई। उनकी बाकी कहानियाँ नवाजीवन मे प्रकाशित की गई।

कारावास और बाद

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कोटयम् मे वे गिरफ्तार हुए और उन्हे एक पुलिसे स्टेशन में डाला गया। पुलिस और कैदियों से सुनी हुई कहानियँ उन्होंने अपने कृतियों में शामिल की। उन्हें डेढ साल की सज़ा मिली। फिर उन्हें त्रिवेन्द्रम की जेल में डाला दिया गया। उन्होने "प्रेम लेखन" (१९४३) नामक कहानी उनकी सज़ा के दौरान लिखी और उसे प्रकाशित किया। "बाल्यकालसखी" को १९४४ में प्रकाशित किया। फिर उन्होने अपना व्यवसाय लेखक के रूप मे जारी किया। पहले -पहले अपनी कृती खुद ही प्रकाशित करते और घर घर में जाकर बेचते थे। उनके दो पुस्तक स्टाॅल थे जिनके नाम "सर्कल् पुस्तक घर" और "बशीर पुस्तक स्टाल" था। ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत ने अपने भाग्य का नियंत्रण हासिल किया, हालांकि बशीर ने सक्रिय राजनीति छोड दी। अपने काम मे नैतिकता और राजनीतिक निष्ठा पर प्रकाश डाला। अपनी चालीसवें वर्ष में, एक छोटी उम्र की औरत फाभी बशीर से शादी की और उनके दो बच्चे हुए जिनका नाम अनीस और शाहीना था। कोझिकोड के दक्षिणी किनारे पर बेपुर नामक जगह मे रहते थे। इस दौरान वह मानसिक बीमारी से पीड़ित हुए और दो बार मानसिक अस्पताल मे भर्ती कराये गये थे। वह त्रिशूर में एक मानसिक अस्पताल में इलाज के दौरान अपनी सबसे प्रसिद्ध कहानी "पातुम्मायुडे आड" (पातुम्मा की बकरी) लिखी। दोनो बार मानसिक बीमारी से आरोग्य प्राप्ति हुई। उनकी मृत्यु ५ जुलाई १९९४ को बेपुर मे हुई।

भाषा शैली

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बशीर अप्रचलित भाषा श्रेणी के प्रमुख हैं। वो साहित्यिक भाषा और आम आदमी के भाषा में अंतर नही रखते थे। अगर कोई व्याकरण त्रुटि भी आये तो वो ध्यान नहीं देते थे। पहले-पहले उनकी रचनाओं में इस प्रकार की भाषा को प्रकाशकों ने भी स्वीकार नही किया, इसलिए वे लोग उनकी रचनाओं में बदलाव और संशोधन चाहते थे। जब बशीर ने इन रचनाओं को अपनी असली शैली से दूसरी मलयालम शैली में परिवर्तित करते हुए देखा तो, उन्हें बहुत गुस्सा आया क्योंकि उसमे स्वाभिकता और शीतलता बिलकुल नहीं थी। उन्होनें प्रकाशकों को अपनी असली रचनाओं को प्रकाशित करने के लिये जबरदस्ती बोला। बशीर के एक भाई, जो एक अध्यापक थे, उनका नाम अबदूल खादर था। एक बार वो बशीर की एक कहानी पढ रहे थे, तब उन्होंने बशीर से पूछा "इस मे कहा आक्यास और आक्याथास (यह एक मल्यालम पद है) है?"। तब बशीर ने उनको जवाब दिया कि "मैं जो लिखता हूँ वो असली मलयालम भाषा है, इसलिए आक्यास और आक्याथास् मत ढूँढो"। यह दिखाता है कि बशीर व्याकरण के ऊपर ध्यान नही देते थे बल्कि अपनी देशीय भाषा के ऊपर ध्यान देते थे। वे खुद का मज़ाक उडाते थे कि उनको मलयालम नहीं आती है लेकिन उनको मलयालम में बहुत अच्छा ज्ञान है।

बशीर इंसान के स्वभाव के एक अच्छे निरीक्षक थे और वो बडी कुशलता से हास्य और करूणा को अपनी रचनाओं में जोडते थे। प्यार, भूख और दरिद्रता उनकी रचनाओं में हमेशा प्रथम विषयों में रहती थीं।

  1. समकालीन भारतीय साहित्य (पत्रिका). नई दिल्ली: साहित्य अकादमी. जनवरी मार्च १९९२. पृ॰ १९३. |year= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद); |access-date= दिए जाने पर |url= भी दिया जाना चाहिए (मदद)

इस में