व्यंजना

अलगोरी भी व्यंजना है

व्यंजना, शब्दशक्ति का एक प्रकार है।

व्यंजना के दो भेद हैं- शाब्दी व्यंजना और आर्थी व्यंजना।

शाब्दी व्यंजना

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शाब्दी व्यंजना के दो भेद होते हैं- एक अभिधामूला और दूसरी लक्षणामूला।

अभिधामूला शाब्दी व्यंजना

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संयोग आदि के द्वारा अनेकार्थ शब्द के प्रकृष्णतोपयोगी एकार्थ के नियंत्रित हो जाने पर जिस शक्ति द्वारा अन्यार्थ का ज्ञान होता है वह शाब्दी व्यंजना है।

मुखर मनोहर श्याम रंग बरसत मुद अनुरूप।
झूमत मतवारो झमकि बनमाली रसरूप ॥

यहाँ 'वनमाली' शब्द मेघ और श्रीकृष्ण दोनों का बोधक है। इसमें एक अर्थ के साथ दूसरे अर्थ का भी बोध हो जाता है। ध्यान दें कि यहाँ श्लेष नहीं। क्योंकि रूढ़ वाच्यार्थ ही इसमें प्रधान है। अन्य अर्थ का आभास-मात्र है। श्लेष में शब्द के दोनों अर्थ अभीष्ट होते है- समान रूप से उस पर कवि का ध्यान रहता है।

अनेकार्थ शब्द के किसी एक ही अर्थ के साथ प्रसिद्ध अर्थ भी होते हैं। जैसे-

शंख-चक्र-युत हरि कहे, होत विष्णु को ज्ञान।

'हरि' के सूर्य, सिंह, वानर आदि अनेक अर्थ हैं; कितु शंख-चक्र-युत कहने से यहाँ विष्णु का ही ज्ञान होता है।

लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना

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जिस प्रयोजन के लिए लक्षणा का आश्रय लिया जाता है वह प्रयोजन जिस शक्ति द्वारा प्रतीत होता है उसे लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना कहते हैं।

आर्थी व्यंजना

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जो शब्दशक्ति वक्ता (कहने वाला), बोद्धव्य (जिससे बात की जाए), वाक्य, अन्य-संनिधि, वाच्य (वक्तव्य), प्रस्ताव (प्रकरण), देश काल, चेष्टा आदि की विशेषता के कारण व्यंग्यार्थ की प्रतीति कराती है वह आर्थी व्यंजना कही जाती है। इस व्यंजना से सूचित व्यंग्य अर्थजनित होने से अर्थ होता है। अर्थात किसी शब्द-विशेष पर अवलम्बित नहीं रहता।

जैसे- प्रस्ताववैशिष्टयोत्पन्नवाच्यसंभवा- में जहाँ प्रस्ताव से अर्थात प्रकरणवश वक्ता के कथन में व्यंग्यार्थ का बोध हो, वहाँ प्रस्ताव वैशिष्टयोत्पन्न आर्थी व्यंजना होती है।

स्वयं सुसजिजत करके क्षण में, प्रियतम को प्राणी के प्रण में,
हमीं भेज देती है रण में क्षात्र-धर्म के नाते। --- मैथिलीशरण गुप्त

इस पद्य से यह व्यंग्यार्थ निकलता है कि वे कहकर भी जाते तो हम उनके इस पुण्य से कार्य में बाधक नहीं होती। उनका चुपचाप चला जाना उचित नहीं था। यहाँ प्रस्ताव या प्रकरण बुद्धदेव के गृहत्याग का है। यह प्रस्ताव न होने से यह व्यंग्य नहीं निकलता। इसी प्रकार देशवैशिष्टयोत्पन्नवाच्यसंभवा- में जहाँ स्थान की विशेषता के कारण व्यंग्यार्थ प्रकट हो वहाँ यह भेद होता है। जैसे-

ये गिरी सोर्इ जहाँ मधुरी मदमत मयूरन की धुनि छार्इ।
या बन में कमनीय मृगीन की लोल कलोलनि डोलन भार्इ।।
सोहे सरितट धारि धनी जल मृच्छन को नभ नीव निकार्इ।
वंजुल मंजु लतान की चारू चुभीली जहाँ सुखमा सरसार्इ।। -- सत्यनारायण कविरत्न

यहाँ रामचन्द्रजी के अपने वनवास के समय की सुख-स्मृतियाँ व्यंजित होती हैं जो देश-विशेषता से ही प्रकट है। इन पृथक-पृथक विशेषताओं से वर्णन के अनुसार भी व्यंग्य सूचित होता है। रस निरूपण का आगे विस्तार है।

इन्हें भी देखें

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