व्यवहारभानु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित एक लघु पुस्तिका है। इसका उद्देश्य 'मनुष्यों के व्यवहार में सुधार लाना' है।

व्यवहारभानु  

पुस्तक रचयिता
लेखक स्वामी दयानंद सरस्वती
अनुवादक कोई नहीं, मूल पुस्तक हिन्दी में है
चित्र रचनाकार अज्ञात
आवरण कलाकार अज्ञात
देश भारत
भाषा हिन्दी
श्रृंखला शृंखला नहीं
विषय धर्मसम्मत व्यवहार का महत्व
प्रकार धार्मिक, सामाजिक
प्रकाशक परोपकारिणी सभा व अन्य
मीडिया प्रकार मुद्रित पुस्तक
पृष्ठ
आई॰एस॰बी॰एन॰ अज्ञात
ओ॰सी॰एल॰सी॰ क्र॰ अज्ञात
पूर्ववर्ती शृंखला नहीं
उत्तरवर्ती शृंखला नहीं

सामग्री व पुस्तक का प्रारूप संपादित करें

महर्षि ने इस पुस्तक के बारे में स्वय्ं इसकी भूमिका में लिखा है कि-

मैंने परीक्षा करके निश्चय किया है कि जो धर्मयुक्त व्यवहार में ठीक-ठीक वर्त्तता है उसको सर्वत्र सुखलाभ और जो विपरीत वर्त्तता है वह सदा दुःखी होकर अपनी हानि कर लेता है। देखिये, जब कोई सभ्य मनुष्य विद्वानों की सभा में वा किसी के पास जाकर अपनी योग्यता के अनुसार नम्रतापूर्वक 'नमस्ते' आदि करके बैठ के दूसरे की बात ध्यान से सुन, उसका सिद्धान्त जान निरभिमानी होकर युक्त प्रत्युत्तर करता है, तब सज्जन लोग प्रसन्न होकर उसका सत्कार और जो अण्डबण्ड बकता है, उसका तिरस्कार करते हैं।
जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है तब उसका विश्वास और मान्य मित्र भी नहीं करते। इसमें जो थोड़ी विद्या वाला भी मनुष्य श्रेष्ठ शिक्षा पाकर सुशील होता है उसका कोई भी कार्य्य नहीं बिगड़ता।
इसलिये मैं मनुष्यों की उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादि शास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीतियुक्त इस 'व्यवहारभानु' ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करता हूं कि जिसको देख लिया, पढ़ पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपने अपने संतान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें।

सन्दर्भ संपादित करें

अन्यत्र पठनीय संपादित करें

व्यवहारभानु में स्वामी जी ने व्यवहार का वर्णन किया है।

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें