व्यवहारभानु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित एक लघु पुस्तिका है। इसका उद्देश्य 'मनुष्यों के व्यवहार में सुधार लाना' है। यह पुस्तक लगभग 50 पृष्ठों की है। इसमें मनुष्यों के उपयोग व हित की अनेक बातें हैं जो अन्यत्र कहीं पढ़ने को नहीं मिलतीं।

व्यवहारभानु
पुस्तक रचयिता
लेखकस्वामी दयानंद सरस्वती
अनुवादककोई नहीं, मूल पुस्तक हिन्दी में है
रचनाकारअज्ञात
कवर कलाकारअज्ञात
भाषाहिन्दी
शृंखलाशृंखला नहीं
विषयधर्मसम्मत व्यवहार का महत्व
शैलीधार्मिक, सामाजिक
प्रकाशकपरोपकारिणी सभा व अन्य
प्रकाशन स्थानभारत
मीडिया प्रकारमुद्रित पुस्तक
पृष्ठ
आई.एस.बी.एनअज्ञात Parameter error in {{isbn}}: Invalid ISBN.
ओ.सी.एल.सीअज्ञात
इससे पहलेशृंखला नहीं 
इसके बादशृंखला नहीं 

सामग्री व पुस्तक का प्रारूप

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महर्षि ने इस पुस्तक के बारे में स्वय्ं इसकी भूमिका में लिखा है कि-

मैंने परीक्षा करके निश्चय किया है कि जो धर्मयुक्त व्यवहार में ठीक-ठीक वर्त्तता है उसको सर्वत्र सुखलाभ और जो विपरीत वर्त्तता है वह सदा दुःखी होकर अपनी हानि कर लेता है। देखिये, जब कोई सभ्य मनुष्य विद्वानों की सभा में वा किसी के पास जाकर अपनी योग्यता के अनुसार नम्रतापूर्वक 'नमस्ते' आदि करके बैठ के दूसरे की बात ध्यान से सुन, उसका सिद्धान्त जान निरभिमानी होकर युक्त प्रत्युत्तर करता है, तब सज्जन लोग प्रसन्न होकर उसका सत्कार और जो अण्डबण्ड बकता है, उसका तिरस्कार करते हैं।
जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है तब उसका विश्वास और मान्य मित्र भी नहीं करते। इसमें जो थोड़ी विद्या वाला भी मनुष्य श्रेष्ठ शिक्षा पाकर सुशील होता है उसका कोई भी कार्य्य नहीं बिगड़ता।
इसलिये मैं मनुष्यों की उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादि शास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीतियुक्त इस 'व्यवहारभानु' ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करता हूं कि जिसको देख लिया, पढ़ पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपने अपने संतान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें।

व्यवहारभानु में उठाये गये प्रमुख प्रश्न

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कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न जिन्हें प्रस्तुत कर उनका उत्तर इस पुस्तक में दिया गया है, वे ये हैं- [1]

-कैसे मनुष्य विद्या प्राप्ति कर और करा सकते हैं?

-विद्या पढ़ने और पढ़ानेवालों के विरोधी व्यवहार कौन-कौन हैं?

-शूरवीर किनको कहते हैं?

-शिक्षा किसको कहते हैं?

-विद्या और अविद्या किसको कहते हैं?

-मनुष्यों को विद्या की प्राप्ति और अविद्या के नाश के लिए क्या-क्या कर्म करना चाहिए?

-ब्रह्मचारी किसको कहते हैं?

-आचार्य किसको कहते हैं?

-अपने सन्तानों के लिए माता-पिता और आचार्य क्या-क्या शिक्षा करें?

-विद्या किस-किस प्रकार और किस साधन से होती है?

-आचार्य के साथ विद्यार्थी कैसा-कैसा व्यवहार करें और कैसा-कैसा न करें?

-आचार्य विद्यार्थियों के साथ कैसे वर्तें?

-धर्म और अधर्म किसको कहते हैं?

-जब जब सभा आदि बैठकों व व्यवहारों में जावें, तब-तब कैसे-कैसे व्यवहार करें?

-जड़बुद्धि और तीव्रबुद्धि किसे कहते हैं?

-माता, पिता, आचार्य और अतिथि अधर्म करें और कराने का उपदेश करें तो मानना चाहिए वा नहीं?

-राजा, प्रजा और इष्ट-मित्र आदि के साथ कैसा-कैसा व्यवहार करें?

-न्याय और अन्याय किसको कहते हैं?

-महामूर्ख के लक्षण?

-पुरुषार्थ किसको कहते और उसके कितने भेद हैं?

-विवाह करके स्त्री-पुरुष आपस में कैसे-कैसे वर्तें?

-सब मनुष्यों का विद्वान वा धर्मात्मा होने का सम्भव है वा नहीं?

-राजा और प्रजा किसको कहते हैं?

पुस्तक में अनेक विषयों व प्रश्नों को समझाने के लिए अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं जिन्हें बच्चे व बड़े पढ़कर प्रभावित व लाभान्वित होते हैं। पुस्तक के समापन पर ऋषि दयानन्द जी लिखते हैं

जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो, परन्तु दुष्ट व्यवहारों को छोड़कर धार्मिक होके खाने-पीने, बोलने-सुनने, बैठने-उठने, लेने-देने आदि व्यवहार सत्य से युक्त यथायोग्य करता है वह कहीं कभी दुःख को प्राप्त नहीं होता और जो सम्पूर्ण विद्या पढ़के (व्यवहारभानु पुस्तक के अनुसार) उत्तम व्यवहारों को छोड़कर दुष्ट कर्मों को करता है वह कहीं, कभी सुख को प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए सब मनुष्यों को उचित है कि अपने लड़के, लड़की, इष्ट-मित्र, अड़ौसी-पड़ौसी और स्वामी-भृत्य आदि को विद्या और सुशिक्षा से युक्त करके सर्वदा आनन्द करते रहें।

अन्यत्र पठनीय

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व्यवहारभानु में स्वामी जी ने व्यवहार का वर्णन किया है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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