व्यवहारवाद (राजनीति विज्ञान)

राजनीतिक सिद्धांत

राजनीति-विज्ञान में व्यवहारवाद (बिहेवियरलिज़म) एक ऐसा प्रभावशाली राजनीतिक सिद्धांत है जिसने राजनीतिक अध्ययन करने में मूल्यों को तरजीह देने का विरोध किया। यह राजनीति को प्राकृतिक विज्ञानों के तर्ज़ पर समझना चाहती है। व्यवहारवादी विद्वानों ने राजनीति को एक प्रणाली के रूप में देखा और गुणात्मक के बजाय मात्रात्मक विश्लेषण पर ज़ोर दे कर उसे एक विशुद्ध विज्ञान बनाने की कोशिश की।

अमेरिकी राजनीति-विज्ञान में बीसवीं सदी के दूसरे दशक से ही राजनीतिक सैद्धांतिकी को अधिकाधिक विज्ञानसम्मत बनाने के रुझान पैदा होने लगे थे। राजनीति-विज्ञान के पिता समझे जाने वाले चार्ल्स मेरियम के नेतृत्व में राजनीतिक विचार का ऐतिहासिक अध्ययन करने के साथ-साथ इस विद्या को राजनीतिक व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित करने की कोशिशें शुरू हो चुकी थीं। इसका मकसद था राजनीति-विज्ञान को व्यावहारिक राजनीतिक लक्ष्यों की सेवा में लगाना। मेरियम के ये सरोकार तीस और चालीस के दशक में आये आर्थिक-राजनीतिक संकट के कारण मंद हो गये, लेकिन इनका उभार एक बार फिर पचास के दशक में हुआ। इसे राजनीति-विज्ञान में व्यवहारवादी क्रांति की संज्ञा दी गयी जिससे इस अनुशासन के भविष्य को गहरायी से प्रभावित किया। साठ के दशक में इस व्यवहार के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में डेविड ईस्टन की रचनाएँ सामने आयीं।

इस दौर में शीत-युद्ध अपने चरम पर था जिसके प्रभाव में राजनीति को एक निश्चित मूल्य-प्रणाली की दृष्टि से देखने वाले आग्रहों का अवमूल्यन हुआ। अमेरिकी विद्वानों ने राजनीति-विज्ञान को नागरिक-शिक्षण और राजनीतिक सुधारों का ज़रिया बनाने के बजाय विशुद्ध विज्ञान बनाने की ठानी। उनके इस संकल्प के पीछे तर्कपरक प्रत्यक्षवाद  था जिसका जन्म इंद्रियानुभवाद के गर्भ से हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पचास और साठ के दशक में नयी पीढ़ी के समाज-वैज्ञानिकों ने राजनीति की समझ बनाने के लिए औपचारिक संस्थाओं की सत्ता और प्राधिकार पर विचार करने या राजनीतिक विचारों का इतिहास खँगालने के बजाय ‘तथ्यों के अध्ययन’ पर ज़ोर देना उचित समझा। इसके तहत आग्रह किया गया कि राजनीति का विज्ञानसम्मत अध्ययन तभी सम्भव है जब किसी भी तरह के नीतिगत, निजी या आस्थागत रुझान से साफ़ बचते हुए सिर्फ़ तथ्यों और आँकड़ों के दम पर राजनीति और समाज को समझने के मॉडल बनाये जाएँ। औपचारिक संस्थाओं की जगह मतदाताओं, हित- समूहों, राजनीतिक दलों और अन्य राजनीतिक कर्त्ताओं के व्यवहार पर रोशनी डाली जाए। इसी के साथ औपचारिक पदों पर बैठे विधिकर्त्ताओं, अधिकारियों और न्यायाधीशों वग़ैरह के तौर-तरीकों की जाँच की जाए। इस व्यवहारवादी समाज- विज्ञान ने राजनीतिक दर्शन की उपयोगिता को एकदम ठुकरा दिया और सभी तरह के मानकीय प्रश्नों और विचार-विमर्श से किनारा कर लिया। यह दृष्टि बहुत कुछ प्राकृतिक विज्ञानों से ली गयी थी।

इसी योजना के तहत नार्मेटिव (मानकीय) की जगह इम्पिरिकल (तथ्यात्मक और अनुभवसिद्ध) विश्लेषण पद्धति और अनुसंधान पर ज़ोर दिया जाने लगा।  राजनीतिक व्यवहार और राजनीतिक प्रक्रियाओं के तथ्यपरक अध्ययन और विवेचन को तरजीह दी गयी, सर्वेक्षण-तकनीकें अपनायी जाने लगीं, राजनीतिक तंत्रों को मॉडलों के रूप में समझने का सिलसिला शुरू हुआ और चुनाव आदि के आँकड़ों के विश्लेषण के माध्यम से राजनीतिक व्यवहार का सूत्रीकरण किया जाने लगा। व्यवहारवाद के इस हस्तक्षेप ने राजनीतिक- विज्ञान में रिसर्च का एजेंडा पूरी तरह बदल डाला। अमेरिकी संस्थानों ने भी इस तरह के अनुसंधान में जम कर संसाधनों का निवेश किया और सारी दुनिया में राजनीति को समझने के लिए व्यवहारवादी शोध की धूम मच गयी। दिलचस्प बात यह है कि जिन दिनों व्यवहारवाद अपना दबदबा बना रहा था, समाज-विज्ञान में उसकी आलोचना भी पनप रही थी। तीस के दशक से ही अमेरिका में जर्मनी से ऐसे विद्वानों के आने का ताँता लगा हुआ था जो समाज-विज्ञान को अपने मानकीय सरोकारों से अलग करके वस्तुनिष्ठ विज्ञान बनाने के पक्ष में नहीं थे। इनमें प्रमुख थे लेवी-स्त्रॉस, एरिक वोजलिन, हान्ना अरेंत, थियोडोर एडोर्नों और हरबर्ट मारक्यूज़। वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, विद्वत्ता के क्षेत्र में इन विद्वानों ने उस अमेरिकी रवैये से असहमति व्यक्त की जो वैज्ञानिकता, उदारतावाद और ऐतिहासिक प्रगति के पक्ष में अत्यधिक झुका हुआ था। इन लोगों ने व्यवहारवादियों के इस दावे का खण्डन किया कि मानकीय आधार पर विकसित हुई राजनीतिक सैद्धांतिकी का ज़माना अब गुज़रता जा रहा है। स्त्रॉस ने कहा कि राजनीति को नया विज्ञान बनाने की कोशिशों में निहित प्रत्यक्षवादी रवैयों के कारण राजनीति की बेहतर समझ बनाना नामुमकिन होता जा रहा है। पूरे पचास के दशक में राजनीतिक सिद्धांत को केंद्र बना कर व्यवहारवाद और उसके आलोचकों के बीच बहस छिड़ी रही। इसी के परिणामस्वरूप साठ के दशक में राजनीतिक सिद्धांत की दुनिया तीन श्रेणियों में बँट गयी। एक श्रेणी में वे सिद्धांतकार आते थे जिनकी प्राथमिकता राजनीतिक विचारों के इतिहास को केंद्र बना कर अध्ययन-मनन की थी। दूसरी श्रेणी मानकीय राजनीतिक सिद्धांत की और तीसरी श्रेणी राजनीतिक के तथ्यात्मक अनुभवसिद्ध ज्ञान पर आधारित थी। तीसरी श्रेणी के प्रमुख हस्ताक्षर डेविड ईस्टन, कार्ल ड्यूश और रॉबर्ट दाह्ल थे जिन्होंने जिन्होंने एक इलाके के तथ्यों का विश्लेषण करते हुए मॉडल रचे और सामान्य सिद्धांतों की रचना कर डाली।

साठ के दशक के अंत में व्यवहारवादियों को कई क्षेत्रों से आलोचना के नये दौर का सामना करना पड़ा। राजनीति के अध्ययन को विशुद्ध विज्ञान बना देने के आग्रहों पर आरोप लगा कि उनके कारण उस दौर के कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों की समझ विकसित नहीं हो पायी है। इस आलोचना की रोशनी में ईस्टन ने व्यवहारवाद में संशोधन तजवीज़ किया और उसे ‘पोस्ट-बिहेवियरल रेवोल्यूशन’ की संज्ञा दी। सत्तर और अस्सी के दशक में व्यवहारवाद की इसी संशोधित छवि का विकास होता रहा जिसके तहत वैज्ञानिक पद्धति और तकनीक के साथ-साथ राजनीति-विज्ञान के सामाजिक और मूल्यगत दायित्वों का भी ध्यान रखा गया। सत्तर के दशक में ही तर्कपरक प्रत्यक्षवाद की आलोचनाएँ सामने आयीं जिन्होंने समाज-विज्ञान के दर्शन को प्रभावित किया। यही वह दौर था जिसमें युरगन हैबरमास, रॉबर्ट नॉज़िक और जॉन रॉल्स की रचनाएँ प्रकाशित हुईं जो व्यवहारवाद के बजाय मानकीय राजनीतिक सिद्धांत की कवायद पर आधारित थीं।

भारतीय समाज-विज्ञान पर भी साठ और सत्तर के दशक में इस प्रवृत्ति का असर पड़ा। विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के विद्वानों ने इस दौर में रजनी कोठारी के नेतृत्व में भारतीय राजनीति को समझने के लिए विचारधारात्मक रुझानों से मुक्त मॉडल बनाने का प्रयास किया। लेकिन जल्दी ही साफ़ हो गया कि कोठारी के इस मॉडल में इम्पिरिकल आग्रहों के साथ-साथ तथ्यों के मूल्यांकन के लिए समाज-विज्ञान के मानकीय आयामों का भी सहारा लिया गया है।

बिहेवियरिज़म और बिहेवियरलिज़म

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हिंदी का पद व्यवहारवाद समाज-विज्ञान के दो पदों, बिहेवियरिज़म और बिहेवियरलिज़म, के लिए काम आता है। संस्कृति-अध्ययन ने बिहेवियरिज़म को मनोविज्ञान से लेकर अपनाया है। व्यवहारवाद की इस किस्म के अनुसार मनोविज्ञान केवल तभी सच्ची वैज्ञानिकता का वाहक हो सकता है जब वह अपने अध्ययन का आधार व्यक्ति की मांसपेशीय और ग्रंथिमूलक अनुक्रियाओं को बनाये।

राजनीति-विज्ञान में बिहेवियरलिज़म एक ऐसा प्रभावशाली राजनीतिक सिद्धांत है जिसने राजनीतिक अध्ययन करने में मूल्यों को तरजीह देने का विरोध किया। व्यवहारवाद की यह किस्म राजनीति को प्राकृतिक विज्ञानों के तर्ज़ पर समझना चाहती है। व्यवहारवादी विद्वानों ने राजनीति को एक प्रणाली के रूप में देखा और गुणात्मक के बजाय मात्रात्मक विश्लेषण पर ज़ोर दे कर उसे एक विशुद्ध विज्ञान बनाने की कोशिश की।

रोचक बात यह है कि बिहेवियरिज़म के प्रचलन के पीछे भी अमेरिकी विद्वानों का हाथ था और बिहेवियरियलिज़म तो राजनीति-विज्ञान पर अमेरिकी छाप के रूप में जाना ही जाता है। दोनों अनुशासनों की नींव बीसवीं सदी की शुरुआत में पड़ी। पचास और साठ के दशक में वे अपने शिखर पर पहुँचे।

1. डी. रिकी (1984), द ट्रैजेडी ऑफ़ पॉलिटिकल साइंस, येल युनिवर्सिटी प्रेस, न्यू हैविन, कनेक्टीकट.

2. डी. वाल्डो (1975), ‘पॉलिटिकल साइंस : ट्रैडिशन, डिसिप्लिन, प्रोफ़ैशन, साइंस, एंटरप्राइज़’, एफ़. ग्रीनस्टाइन और एन. पोल्बी (सम्पा.), द हैंडबुक ऑफ़ पॉलिटिकल साइंस, खण्ड 1, एडिसन- वेज़ली, रीडिंग, मेसाचुसेट्स.

3. बी.एफ़. स्किनर (1974), एबाउट बिहेवियरिज़म, जोनाथन कैप, लंदन.

इन्हें भी देखें

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