व्युत्पत्तिशास्त्र
भाषा के शब्दों के इतिहास के अध्ययन को व्युत्पत्तिशास्त्र कहते हैं। इसमें विचार किया जाता है कि कोई शब्द उस भाषा में कब और कैसे प्रविष्ट हुआ; किस स्रोत से अथवा कहाँ से आया; उसका स्वरूप और अर्थ समय के साथ किस तरह परिवर्तित हुआ है। व्युत्पत्तिशास्त्र में शब्द के इतिहास के माध्यम से किसी भी राष्ट्र, प्रांत एवं समाज की भाषिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि अभिव्यक्त होती है।
'व्युत्पत्ति' का अर्थ है ‘विशेष उत्पत्ति’। किसी शब्द के क्रमिक इतिहास का अध्ययन करना, व्युत्पत्तिशास्त्र का विषय है। इसमें शब्द के स्वरूप और उसके अर्थ के आधार का अध्ययन किया जाता है। अंग्रेजी में व्युत्पत्तिशास्त्र को 'Etymology' कहते हैं। यह शब्द यूनानी भाषा के यथार्थ अर्थ में प्रयुक्त Etum तथा लेखा-जोखा के अर्थ में प्रयुक्त Logos के योग से बना है, जिसका आशय शब्द के इतिहास का वास्तविक अर्थ सम्पुष्ट करना है।
भारतवर्ष में व्युत्पत्तिशास्त्र का उद्भव बहुत प्राचीन है। जब वेद मन्त्रों के अर्थों को समझना सुगम नहीं रहा तब भारतीय मनीषियों द्वारा वेदों के क्लिष्ट शब्दों के संग्रह रूप में निघण्टु ग्रन्थ लिखे गए तथा निघण्टु ग्रन्थों के शब्दों की व्याख्या और शब्द व्युत्पत्ति के ज्ञान के लिए निरुक्त ग्रन्थों की रचना हुई। वेदों के अध्ययन के लिए वेदागों के छ: शास्त्रों में निरुक्त शास्त्र भी सम्मिलित हैं। निरूक्त शास्त्र संख्या में 12 बतलाए जाते हैं, लेकिन इस समय आचार्य यास्क प्रणीत एक मात्र निरूक्त उपलब्ध है।
विषय का प्राचीनतम मूल
संपादित करेंशब्दों की उत्पत्ति का दुनिया में सबसे पहले गहन विश्लेषण करने का श्रेय भारत के संस्कृत वैयाकरणों को जाता है जिन्होंने निरुक्त नाम से सबसे पहले वैदिक शब्दों का निर्वचन व व्याख्या की। संस्कृत के चार वैयाकरण सबसे प्रसिद्ध हैं:
संस्कृत के शब्दों की व्युत्पत्ति में उपर्युक्त वैयाकरणों के कार्यों का सन्दर्भ लिया जाता है। संस्कृत के इस अग्रग कार्य का सन्दर्भ लेकर आगे चलकर पश्चिमी विद्वानों ने भी व्युत्पत्तिशास्त्र का विकास किया।
कुछ प्रमुख शब्दों की व्युत्पत्ति
संपादित करें- व्याकरण -- वि +आङ् (आ) +डुकृञ् (कृ) +ल्युट -- व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः अनेन इति व्याकरणः (जिसके द्वारा शब्दों की व्याकृति एवं व्युत्पत्ति बतायी जाती है, वह व्याकरण है।)
- वेद -- 'विद्' धातु (विद् ज्ञाने) + 'घञ्' प्रत्यय -- विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते वा एभिः धर्मादि पुरुषार्था इति वेदाः (जिसके द्वारा धर्म आदि पुरुषार्थों को जाना अथवा प्राप्त किया जाता है, वे वेद कहलाते हैं ।)
- दर्शन -- 'दृशिर् प्रेक्षणे' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न -- दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम् -- इसके द्वारा दिखाया जाता है, यही दर्शन है।
- योग -- युज् धातु में घञ् प्रत्यय -- युज्यतेऽस्मिन् इति योगः
- आसन -- 'आस्' (धातु) +ल्युट (प्रत्यय) । -- जिसके विभिन्न अर्थ हैं जैसे - 1. बैठना, 2. बैठने का आधार, 3. बैठने की विशेष प्रक्रिया, 4. बैठ जाना इत्यादि।
- मोक्ष -- 'मुच्' धातु +
- न्याय -- नीयते विवक्षितार्थः अनेन इति न्यायः (देवराज) ; प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः (वात्स्यायन)
- प्रमाण -- 'प्रमा' से बना -- कारणदोषबाधकज्ञानरहितम् अगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् । (जिस ज्ञान में अज्ञात वस्तु का अनुभव हो, अन्य ज्ञान से बाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही 'प्रमाण' है।)
- मन्त्र -- "मनानात् त्रायते इति मंत्रः" (जो बंधन या जन्म-मरण के चक्र से उत्पन्न होने वाले सभी दुखों से रक्षा (त्रायते) करता है, उसका निरंतर जप (मनानात्) मंत्र कहलाता है।)
- ऋषि -- ऋषति पश्यति इति ऋषिः (ऋषति प्राप्नोति सर्व्वान् मन्त्रान् ज्ञानेन पश्यति संसारपारं वा इति -- जो मन्त्र प्राप्त करता है या देखता है, वह ऋषि है)
- धन -- 'धि' धातु में 'क्यु' प्रत्यय -- धीनोतीति सतः (तृप्त करने के कारण यह धन कहलाता है।)
- संक्षिप्तः -- 'क्षिप्' धातु से 'रक्' प्रत्यय --
- अन्न -- 'आ' पूर्वक 'नम्' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय -- आनतं भूतेभ्यः (प्राणियों के लिये झुका हुआ)
- मनुष्य -- विचारार्थक 'मन' तथा विस्तारात्मक 'षिवु' धातुओं के संयुक्त रूप से ढ्यन प्रत्यय -- मत्वा कर्माणि सीव्यन्ति (अत्यन्त सोच-विचारकर कार्यों को करते हैं)
- नाटक -- 'नट्' (नाचना) धातु + 'घञ्' प्रत्यय --
- साहित्य -- स + हित +'यत्' प्रत्यय -- 'सहितस्य भाव साहित्य्' ('सहित' का भाव साहित्य है।')
- वर्ण -- वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति 'वृ' धातु से बताई जाती है, जिसका अर्थ है 'चुनना' । अतः 'वर्ण' शब्द का अर्थ हुआ व्यवसाय ।
- नीति --