शास्त्रदीपिका, एक प्रमुख मीमांसा ग्रन्थ है। इसके रचयिता पार्थसारथि मिश्र हैं और यह उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है। शास्त्रदीपिका, मीमांसादर्शन में लिखी गयी सम्पूर्ण रचनाओं में श्रेष्ठ सिद्ध होती है। मीमांसा का शायद ही कोई विषय अछूता रह गया हो जिसका विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ में न हुआ हो । इसकी भाषा, विवेचन पद्धति, युक्तियाँ, पूर्वपक्ष का उपन्यास, सभी के सब उत्तम एवं आकर्षक हैं। सरल गघ में सूक्ष्म भावों का हृदयङ्गम विवेचन किया गया है। शास्त्रदीपिका के प्रणयन के पश्चात् ही पार्थसारथि मिश्र की कीर्ति अमर हुई और वे ‘मीमांसाकेसरि’ के रुप में प्रसिद्ध हुए।

भाट्टपरम्परा के सिद्धान्तों का क्रमबद्ध अवबोधन कराने वाला शास्त्रदीपिका प्रथम ग्रन्थ है। विषय प्रतिपादन में उपस्थित शङ्काओं का पार्थसारथि पूर्वपक्ष-सिद्धान्तपक्ष आदि के सम्यगुपस्थापनपूर्वक तर्कसङ्गत समाधान प्रस्तुत करते हैं।

शास्त्रदीपिका मे छः अधिकरणों के अन्तर्गत मीमांसा-सम्मत विषयों का निबन्धन किया गया है। इन अधिकरणों के नाम व उनके प्रतिपाद्य विषय निम्नलिखित हैं -

  • (१) जिज्ञासाधिकरम् :- इस अधिकरण में भाट्टमतानुसार ‘अध्ययनविधि’ का विवेचन किया गया है । यहाँ ‘स्वाध्यायोऽध्येतव्यः’ के अध्यापनविधि प्रयुक्त होने के प्राभाकर-मत का खण्डन किया गया है । तत्पश्चात् जिज्ञासा का चातुर्विध्य बताया गया है ।
  • (२) धर्मलक्षाधिकरणम् :- इस अधिकरण में तर्कपाद के द्वितीयसूत्र का विचार प्रारम्भ किया गया है । यहाँ प्राभाकरों के मत का खण्डन करते हुए पार्थसारथि उपस्थापित करते हैं कि कार्य में ही शक्तिग्रह मानना चाहिये । तत्पश्चात् धर्म में प्रमाण के विषय में विचार किया गया है तथा धर्म के स्वरुप की विवेचना की गयी है ।
  • (३) धर्मप्रमाणपरीक्षाधिकरणम् :- तृतीयाधिकरण में धर्म में प्रमाणों के परीक्षण हेतु मीमांसा सुत्र १/१/३ का उल्लेख किया गया है। यहाँ अधिक व्याख्या नहीं प्राप्त होती है ।
  • (४) धर्मे प्रत्यक्षस्याप्रामाण्याधिकरणम् :- चतुर्थ अधिकरण में प्रत्यक्ष प्रमाण के धर्म में अप्रामाण्य की व्याख्या की गयी है । इस सन्दर्भ में प्राभाकर-मत, बौद्धमत तथा अद्वैतियों के सिद्धान्तों का पूर्वपक्ष के रुप में खण्डन करते हुए सिद्धान्तपक्ष की पुष्टि की गयी है ।
  • (५) धर्मे वेदप्रामाण्याधिकरणम् :- पञ्चम अधिकरण में पार्थसारथि मिश्र ने सर्वप्रथम वेदों के अपौरुषेयत्व का व्याख्यान किया है । तत्पञ्चात् प्रमा का लक्षण उपस्थित कर उसका खण्डन किया गया है । इस अधिकरण में समस्त ज्ञानमीमांसीय व प्रमाणमीमांसीय विषयों का निबन्धन किया गया है। इस सन्दर्भ में पूर्वपक्षियों के मतों का तर्कपूर्ण खण्डन करते हुए सिद्धान्तपक्ष की सिद्धि की गयी है । इस अधिकरण को शास्त्रदीपिका का हृदय-स्थल कहा जा सकता है ।
  • (६) शब्दनित्यताधिकरणम् :- यह शास्रदीपिका का अन्तिम अधिकरण है । इसमें क्षणभङ्गवादी बौद्धों व नैयायिकादि पूर्वपक्षियों के शब्दनित्यत्व के आक्षेपों का खण्डन करते हुए शब्दनित्यत्व की सिद्धि की गयी है। साथ ही वाक्याधिकरण में प्राभाकरों के अन्विताभिधानवाद का खण्डन करते हुए अभिहितान्वयवाद की पुष्टि की गयी है ।

उपर्युक्त अधिकरणों में मीमांसाशास्त्रान्तर्गत प्रायः समस्त दार्शनिक विषयों का प्रौढ शैली में विवेचन किया गया है । शास्त्रदीपिका के विषयगाम्भीर्य के कारण ही पूरे भारतवर्ष मे विद्वज्जनों द्वारा इसकी समालोचना व व्याख्या की गयी । मिथिला में इस ग्रन्थ का सर्वाधिक प्रसार दक्षिण भारत में हुआ । इसी के आधार पर खण्डदेवादि दाक्षिणात्य विद्वानों ने स्वतन्त्र अधिकरण ग्रन्थों की रचना की । डा० मण्डन मिश्र के अनुसार इस एक ग्रन्थ के अध्ययन से ही मीमांसाशास्र के सभी पदार्थ अधिगत हो जाते है।

शास्रदीपिका की निम्नलिखित व्याख्याएँ प्रसिद्ध है -

  • मयूखमालिका - सोमनाथ
  • मूयखावलि - अप्पयदीक्षित
  • कर्पूरवर्तिका - राजचूडामणि
  • दिनकरीव्याख्या - दिनकरभट्ट
  • प्रभामण्डल - यज्ञनारायण, अनुभवानन्दयति
  • प्रकाश - चम्पकनाथ, शङ्करभट्ट
  • प्रभा - वैद्यनाथ
  • अलोक - कमलाकरभट्ट
  • प्रकाश - सुदर्शनाचार्य
  • व्याख्या - नारायण भट्ट
  • श्रीचन्द्रप्रभा - किशोर दास स्वामी

इस प्रकार शास्त्रदीपिका की अनेक व्याख्याएँ इस ग्रन्थ की प्रौढता व लोकप्रसिद्धि को सहज ही संकेतित करती हैं । सिद्धान्तचन्द्रिकाकार रामकृष्णाचार्य ने इसके महत्त्व को प्रकाशित करते हुए लिखा है -

न शास्त्रदीपिका व्याख्या कृता केनापि सूरिणा ।
तदपूर्वाध्वसञ्चारी नोपहास्यः स्खलन्नपि ॥

बाहरी कड़ियाँ

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