शिक्षा में निर्देशन प्रत्येक व्यक्ति के सामने समायोजन की समस्या होती है। समस्याओं का समाधान वह अपने व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार करता है और कभी  कभी क्षमता की कमी के कारण वह समायोजन में असफल रहता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति को मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है मार्गदर्शन वह प्रक्रिया है।  जिसके द्वारा व्यक्ति की समायोजन समस्या के समाधान में सहायता की जाती है। समायोजन की समस्या उस समय उत्पन्न होती है। जबकि व्यक्ति की आवश्यकताएं पूरी नहीं होती यदि समायोजन की प्रक्रिया गलत हो जाती है। तो उसका स्वरूप विकृत हो सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में मार्ग-प्रदर्शन की अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है। जो व्यक्ति के व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन लाती है शिक्षा आदि व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखकर दी जाती है और वह बालक के सर्वागीण विकास को पूरा करने असमर्थ हो तो उसके कारणों की जांच होनी चाहिए। यदि बालक में कुछ दोष हो तो उसका निराकरण मार्ग प्रदर्शन द्वारा संभव है। । 

उपयुक्त विवरण से स्पष्ट है की मार्ग प्रदर्शन से जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने में, जीवन में सामंजस्य स्थापित करने में तथा सब तरह के व्यवहार संबंधी समस्याओं के सुलझाने में सहायता मिलती है जेम्स ड्रेवर ने मार्ग प्रदर्शन शब्द को तीन अर्थ में प्रयोग करने की बात की है:- 1) बालकों का मार्गप्रदर्शन – जिनका अर्थ है बालकों के व्यवहार अथवा शैक्षिक समस्याओं काअध्ययन कराता है। 2) शैक्षिक मार्ग प्रदर्शन। 3) व्यवसायिक मार्गप्रदर्शन- बालको तथा उनके माता-पिता को बालकों के व्यवसायिक चयन मैं सहायता पहुंचाता है।

                                               ==भारतीय बालकों के लिए निर्देशन की आवश्यकता==

निर्देशन की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को है। जीवन में कभी-कभी ऐसी जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कि हमारे हाथ- पैर ढीले पड़ जाते हैं और हम उन समस्याओं के समाधान प्राप्त करने के लिए अनुभवी व्यक्तियों के शरण में जाना चाहते हैं। कभी-कभी समस्याओं के समाधान प्राप्त करने के लिए ज्योतिषियों के दरवाजे के चक्कर काटता है। इससे यह स्पष्ट है कि व्यक्ति पथ प्रदर्शन चाहता है। वह अपनी समस्याओं के समाधान के लिए विद्वानों की सहायता चाहता है। तथा जीवन की उचित दिशा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। अघोरी तांत्रिक आदि देखती की आवश्यकता का लाभ उठाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति को निर्देशन की आवश्यकता है अतःनिर्देशन सेवा की स्थापना की भी आवश्यकता है। निर्देशन की आवश्यकता का अनुभव अतीत काल से ही होता आया है किंतु वर्तमान युग में निर्देशन की मांग बढ़ गई है। वर्तमान युग में हो रहे सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों ने निर्देशन को अतिआवश्यक बना दिया है। आजकल घर की परिस्थितियों में बड़ा परिवर्तन हो रहा है भारत अपने संयुक्त प्रणाली के लिए प्रसिद्ध रहा है किंतु अब संयुक्त परिवार कलह के घर होते जा रहे हैं। जिन परिवारों में संयुक्त परिवार की प्रथा नहीं है उनमें भी कभी-कभी यह देखा जाता है कि पिता नौकरी की परिषद के कारण बाहर रहता है और बालकों को पिता प्रेम से वंचित रह जाना पड़ता है। भारत में परिवार में बालक परिवार का एक महत्वपूर्ण अंग होने के कारण परंपरागत पैसे को आसानी से सीख जाता है। देश के अंदर एक स्थान से दूसरे स्थान पर व्यक्तियों का आना जाना लगा रहता है। उस समय में व्यक्ति अपने मित्र एवं भाई –बंधुओं से अलग हो जाता है आजकल शिक्षा का अत्यधिक प्रचार हो रहा है। प्रतिवर्ष छात्रों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। हमारे देश में बेकारी की समस्या अत्यधिक जटिल है।

अर्थशास्त्री समस्या का समाधान ढूंढने में अत्यधिक व्यस्त हैं दिन पर दिन या समस्या बढ़ती ही जा रही है।ग्राम उद्योग एवं लघु उद्योग इस समस्या का पर्याप्त समाधान कर सकते हैं अभी तक अधिकांश शिक्षित व्यक्ति नौकरी की खोज करते हैं। ऐसी परिस्थिति में उचित व्यवसायिक सनदर्शन अत्यंत आवश्यक है देश के परिस्थिति के अनुसार एवं यथा संभव बालक की रूचि के अनुसार व्यवसायिक निर्देशन एक उचित मांग है।

भारत में निर्देशन की स्थिति

संपादित करें

छात्र निर्देशन आंदोलन वर्तमान शताब्दी की उपज है। इसकी आवश्यकता एवं उपयोगिता का अनुभव करके अमेरिका जैसे प्रगतिशील देश में शिक्षा क अस्त्पर निर्देशन की अति सुंदमैंय वस्था कर दी गई है। लेकिन हमारे देश में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है भारत सरकार ने 1945 में शिवा राव की अध्यक्षता में प्रशिक्षण और रोजगार सेवा संगठन समिति की नियुक्ति की। इस समिति के सुझावों के अनुसार द्वितीय पंचवर्षीय योजना में संपूर्ण देशों में 50 निर्देशन केंद्रों की स्थापना का कार्यक्रम बनाया गया। पर उनमें से कुछ कही शिलान्यास किया गया भारत सरकार विभिन्न व्यवसायों के संबंध में समय-समय पर कुछ सुविधाएं भी प्रकाशित करती हैं उनका अनुकरण करके राज्य सरकार ने भी कुछ केंद्रों और प्रकाशनों की व्यवस्था की।जब हम विद्यालयों में निर्देशन की स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं तब हमें केवल शोभा निषाद का चित्रों के ही दर्शन होतेहैं। माध्यमिक शिक्षा ने सुझाव दिया था कि बहुद्देशीय विद्यालयों में निर्देशन कार्य का संगठन किया जाए।

देश में इस प्रकार के विद्यालय की समिति संख्या होने के कारण केवल थोड़े से ही छात्र निर्देशन का लाभ उठा पाते हैं। शिक्षा आयोग का सुझाव था कि सभी प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में छात्र निर्देशन कीव्यवस्था की जाए पर इस ओर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया है। सरकार ने केवल सिद्धांत के रूप में अग्रलिखित शब्दों में निर्देशन की व्यवस्था की आवश्यकता को स्वीकार किया है- द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद देश में जो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हुए हैं। उन्होंने इस बात को अत्यधिक आवश्यक कर दिया है कि हमारे विद्यालय में निर्देशन के कुछ रूपों की अधिक निश्चित व्यवस्था की जाए।।

शिक्षा मनोविज्ञान लेखक- भटनागर सुरेश