शिव स्वरोदय एक प्राचीन तान्त्रिक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के रूप में है। इसमें कुल ३९५ श्लोक हैं। १९८३ में सत्यानन्द सरस्वती ने इस पर 'स्वर योग' नाम से टीका लिखी।

ग्रन्थ के आरम्भ में पार्वती भगवान शिव से पूछती हैं, हे प्रभु ! मेरे ऊपर कृपा करके सर्व सिद्धिदायक ज्ञान कहिये, ये ब्रह्माण्ड कैसे उत्पन्न हुआ, कैसे स्थित होता है, और कैसे इसका प्रलय होता है? हे देव ब्रह्मांड के निर्णय को कहिए। महादेवजी बोले,

तत्त्वाद् ब्रह्याण्डमुत्पन्नं तत्त्वेन परिवर्त्तते।
तत्त्वे विलीयते देवि तत्त्वाद् ब्रह्मा़ण्डनिर्णयः।।
तत्व से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है, इसी से इसकी पालना होती है और इसी से इसका विनाश होता है। निराकार प्रभु महादेव से आकाश उत्पन्न हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्त्पन हुई है, इसी से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है और अंत में सब तत्व में विलीन हो जाता है, फिर सूक्ष्म रूप में तत्व ही रमण करता है।

शिव आगे कहते हैं-

इन्ही पंच तत्वों की मनुष्य देह है और देह में सूक्ष्म रूप से ये पंच तत्व ही विद्यमान हैं। स्वर के उदय में ये पंच तत्व ही समाये हैं, स्वर का ज्ञान सारे ज्ञानो में उत्तम है। हे देवी स्वर में सम्पूर्ण वेद और शास्त्र है, स्वर में उत्तम गायन विद्या है स्वर में सम्पूर्ण त्रिलोकी है, स्वर ही आत्म स्वरुप है। ब्रह्माण्ड के खंड तथा पिंड, शरीर आदि स्वर से ही रचे हुए हैं। संसार की सृष्टि करने वाले महेश्वर भी साक्षात् स्वर रूप ही हैं। स्वर और तत्वों को जानने वाला मेरे अनुग्रह का भागी होता है। इससे उत्तम ज्ञान न देखा गया है न सुना गया है।

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