श्रीधराचार्य
श्रीधराचार्य (जन्म : 870 ई) प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ थे। इन्होंने शून्य की व्याख्या की तथा द्विघात समीकरण को हल करने सम्बन्धी सूत्र का प्रतिपादन किया।
उनके बारे में हमारी जानकारी बहुत ही अल्प है। उनके समय और स्थान के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। किन्तु ऐसा अनुमान है कि उनका जीवनकाल ८७० ई से ९३० ई के बीच था; वे वर्तमान हुगली जिले में उत्पन्न हुए थे; उनके पिताजी का नाम बलदेवाचार्य और माताजी का नाम अच्चोका था।
श्रीधराचार्य का जीवनकाल
संपादित करेंयह खेद का विषय है कि इस विश्रुत गणितज्ञ के विषय में हमें अत्यन्त स्वल्प जानकारी प्राप्त है। उन्होंने स्वयं अपने माता-पिता, जन्म-स्थान आदि के विषय में कुछ नहीं लिखा है। त्रिशतिका के प्रथम श्लोक से केवल इतना अनुमान होता है कि वे शैव थे क्योंकि उन्होंने शिव को प्रणाम किया है। पाटीगणित के प्रारम्भ में भी उन्होंने सृष्टि, स्थिति, संहार के कारण अजन्मा ईश्वर को नमस्कार निवेदित किया है। परवर्ती लेखकों ने भी श्रीधराचार्य के जीवन-वृत्त के विषय में कोई प्रकाश नहीं डाला है।
इनके काल के विषय में भी अनेक मतभेद हैं। महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी का मानना है कि प्रशस्तपादभाष्य के प्रख्यात 'न्यायकन्दली' व्याख्याकार श्रीधराचार्य तथा प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य एक ही हैं। कन्दली व्याख्या की रचना उसके अन्तिम श्लोक के अनुसार 913 शकाब्द में की गई थी। इस प्रकार इसका रचना काल 991 ई. है। विश्रुत इतिहासकार डा. ए. बी. कीथ ने बिना किसी परीक्षा या प्रमाण का उल्लेख करते हुए यह काल स्वीकार कर लिया है। डा. ब्रजमोहन आदि विद्वान् भी इस मत के समर्थक हैं।
परन्तु अन्य अनेक विद्वानों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया है। सर्वप्रथम शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने सिद्ध किया है कि महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रह में श्रीधर के 'मिश्रक व्यवहार' से कुछ वाक्य या नियम प्राप्त किये हैं। इस प्रकार श्रीधर, महावीर से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। आगे चलकर डा० विभूतिभूषण दत्त और सिंह आदि अनेक विद्वानों ने इस मत का समर्थन करते हुए श्रीधराचार्य को 672 शक या 750 ई. का सिद्ध किया है। डा. गोरख प्रसाद, डा. सबलसिंह आदि ने भी इनका यही स्थिति-काल स्वीकार किया है। विद्वानों का यह मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है।
न्यायकन्दली में व्याख्याकार ने कुछ स्वरचित ग्रन्थों के नाम बताए हैं। जैसे अद्वयसिद्धि, तत्त्वप्रबोध, तत्त्वसंवादिनी तथा संग्रहटीका । ये सभी दर्शन-ग्रन्थ हैं। इसमें उनके किसी गणित के ग्रन्थ का उल्लेख नहीं है। इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि न्यायकन्दली के वे विवेचन जहाँ गणितीय सिद्धान्तों का उल्लेख प्रासंगिक हो सकता है, वहाँ भी व्याख्याकार ने ऐसा कोई निरूपण प्रस्तुत नहीं किया है। जैसे, परिमाण के उपभेद 'दीर्घ', 'ह्रस्व' आदि गुणों के प्रसंग में प्रशस्तपादभाष्य की व्याख्या करते हुए कन्दलीकार ने यह सिद्ध किया है कि द्रव्यों में समवेत दीर्घ, ह्रस्व गुण परस्पर विरोधी हैं तथा वे अन्य गुणों की भाँति वस्तुनिष्ठ तथा तत्त्वतः अचर गुण हैं। यदि उसमें प्रेक्षक के भेद से कभी दीर्घ तथा कभी ह्रस्व की प्रतीति होती है तो वह विरोधी होने से वास्तविक नहीं, अपितु औपचारिक है। पर गणित में त्रिशतिकाकार ने 'दैर्घ्य' का प्रयोग लम्बाई के लिये तथा 'विस्तर' का चौड़ाई के लिये किया है । यह 'दैर्घ्य' अन्ततः विस्तर के सापेक्ष है। 'विस्तर' के बदलने पर दैर्घ्य के प्रयोग में व्यतिक्रम हो सकता है। उक्त प्रसंग में कन्दलीकार द्वारा गणित के इस तथ्य का उल्लेख हो सकता था । पर ऐसा न होने से ऐसा नहीं लगता कि कन्दली तथा त्रिशतिका के प्रणेता एक ही होंगे।
उक्त विवेचनाओं के आधार पर प्रायः सभी विद्वान् श्रीधराचार्य को कन्दलीकार तथा गणितसारसंग्रहकार महावीराचार्य से पूर्ववर्ती मानते हैं। पर पाटीगणित के व्याख्याकार डा. कृपाशंकर शुक्ल ने इन्हें कन्दलीकार का पूर्ववर्ती, परन्तु महावीराचार्य का उत्तरवर्ती स्वीकार किया है। इस विषय में डा. शुक्ल द्वारा प्रस्तुत लगभग सभी तथ्य 'अभाव' प्रमाण पर अवलम्बित हैं। उनका मानना है कि 'पाटीगणित' में अनेक रोचक सूत्र वर्तमान हैं, जो कि गणितसारसंग्रह में उपलब्ध नहीं है। यदि महावीर, श्रीधर के बाद होते तो उनका उल्लेख अवश्य करते । ऐसा न होने से श्रीधर उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। `डा. शुक्ल का यह भी मानना है कि श्रीधराचार्य के सूत्र अधिक सही तथा सूक्ष्मता के अधिक समीप हैं, जबकि महावीर के उतने समीप नहीं हैं। इनसे प्रकट है कि श्रीधर ने महावीर के सूत्रों के अवलोकन के पश्चात् अपने गम्भीर विचार के अनन्तर अधिक सूक्ष्मता प्रदान की होगी।
कृतियाँ तथा योगदान
संपादित करेंइन्होंने 750 ई. के लगभग दो प्रसिद्ध पुस्तकें, पाटीगणित और त्रिशतिका (इसे 'पाटीगणितसार' भी कहते हैं), लिखीं। इन्होंने बीजगणित के अनेक महत्वपूर्ण आविष्कार किए। वर्गात्मक समीकरण को पूर्ण वर्ग बनाकर हल करने का इनके द्वारा आविष्कृत नियम आज भी 'श्रीधर नियम' अथवा 'हिंदू नियम' के नाम से प्रचलित है।
'पाटीगणित, पाटीगणित सार और त्रिशतिका उनकी उपलब्ध रचनाएँ हैं जो मूलतः अंकगणित और क्षेत्र-व्यवहार से संबंधित हैं। भास्कराचार्य ने बीजगणित के अंत में - ब्रह्मगुप्त, श्रीधर और पद्मनाभ के बीजगणित को विस्तृत और व्यापक कहा है - :'ब्रह्माह्नयश्रीधरपद्मनाभबीजानि यस्मादतिविस्तृतानि'।
इससे प्रतीत होता है कि श्रीधर ने बीजगणित पर भी एक वृहद् ग्रन्थ की रचना की थी जो अब उपलब्ध नहीं है। भास्कर ने ही अपने बीजगणित में वर्ग समीकरणों के हल के लिए श्रीधर के नियम को उद्धृत किया है -
- चतुराहतवर्गसमै रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत।
- अव्यक्तवर्गरुयैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ॥
- अन्य सभी भारतीय गणिताचार्यों की तुलना में श्रीधराचार्य द्वारा प्रस्तुत शून्य की व्याख्या सर्वाधिक स्पष्ट है। उन्होने लिखा है-
- यदि किसी संख्या में शून्य जोड़ा जाता है तो योगफल उस संख्या के बराबर होता है; यदि किसी संख्या से शून्य घटाया जाता है तो परिणाम उस संख्या के बराबर ही होता है; यदि शून्य को किसी भी संख्या से गुणा किया जाता है तो गुणनफल शून्य ही होगा।
- उन्होने इस बारे में कुछ भी नहीं कहा है कि किसी संख्या में शून्य से भाग करने पर क्या होगा।
- किसी संख्या को भिन्न (fraction) द्वारा भाजित करने के लिये उन्होने बताया है कि उस संख्या में उस भिन्न के व्युत्क्रम (reciprocal) से गुणा कर देना चाहिये।
- गोलव्यासघनार्धं स्वाष्टादशभागसंयुतं गणितम्। ( गोल व्यास घन अर्धं स्व अष्टादश भाग संयुतं गणितम् )
- अर्थात V = d3/2 + (d3/2) /18 = 19 d3/36
- गोले के आयतन π d3 / 6 से इसकी तुलना करने पर पता चलता है कि उन्होने पाई के स्थान पर 19/6 लिया है।
- वर्ग समीकरण का हल प्रस्तुत करने वाले आरम्भिक गणितज्ञों में श्रीधराचार्य का नाम अग्रणी है।
वर्ग समीकरण हल करने की श्रीधराचार्य विधि
संपादित करेंax2 + bx + c = 0
4a2x2 + 4abx + 4ac = 0 ; (4a से गुणा करने पर)
4a2x2 + 4abx + 4ac + b2 = 0 + b2 ; (दोनों पक्षों में b2 जोड़ने पर)
(4a2x2 + 4abx + b2) + 4ac = b2
(2ax + b)(2ax + b) + 4ac = b2
(2ax + b)2 = b2 - 4ac
(2ax + b)2 = (√D)2 ; (D = b2-4ac)
अतः x के दो मूल (रूट) निम्नलिखित हैं-
पहला मूल α = (-b - √(b2-4ac)) / 2a
दूसरा मूल β = (-b + √(b2-4ac)) / 2a
अर्थात्
इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- त्रिशतिका या पाटीगणितसार, सुद्युम्न आचार्य द्वारा हिन्दी व्याख्या सहित (राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान)
- पाटिगणित (कृपाशंकर शुक्ल द्वारा अंगरेजी में अनूदित)
- पाटीगणित (सम्पूर्ण पाठ)
- श्रीधराचार्य