प्रणामी सम्प्रदाय एक हिन्दू सम्प्रदाय है जिसमें "राज जी" (सदचित्त आनन्द) को सर्वेसर्वा ईश्वर मानने वाले अनुयायी शामिल है। यह संप्रदाय अन्य धर्मों की तरह बहुईश्वर में विश्वास नही रखता, साथ ही कृष्ण को दो भगवानों का अवतार मानता है तथा प्राणनाथ स्वामी जो४०० वर्ष पूर्व हुए हैं उनको निष्कलंक अवतार मानते हैं। यह ४००-वर्ष प्राचीन संप्रदाय है। इसकी स्थापना देवचंद्र महाराज द्वारा हुई तथा इसका प्रचार प्राणनाथ स्वामी व उनके शिष्य महाराज छत्रसाल ने किया।[1] जामनगर में नवतनपुरी धाम प्रणामी धर्म का मुख्य तीर्थ स्थल है।[1] इसे श्री कृष्ण प्रणामी धर्म या निजानंद सम्प्रदाय या परनामी संप्रदाय भी कहते हैं।

परब्रह्म परमात्मा श्री राज जी एवं उनकी सह-संगिनी श्री श्यामा महारानी जी इस ब्रह्माण्ड के पालनहार एवं रचयिता है। इस संप्रदाय में जो तारतम ग्रन्थ है , वो स्वयं परमात्मा की स्वरुप सखी इंद्रावती ने प्राणनाथ के मनुष्य रूप में जन्म लेकर लिखा। वाणी का अवतरण हुआ और कुरान , बाइबल , भगवत आदि ग्रंथो के भेद खुले। प्रणामियो को ईश्वर ने ब्रह्म आत्मा घोषित किया है। अर्थात ब्रह्मात्मा के अंदर स्वयं परमात्मा का वास होता है। ये ब्रह्मात्माएँ परमधाम में श्री राज जी एवं श्यामा महारानी जी के संग गोपियों के रूप में रहती है। सबसे पहले परमात्मा का अवतरण कृष्ण (केवल 11 वर्ष 52 दिन तक के गोपी कृष्ण के रूप में , बाकी जीवन में कृष्ण विष्णु अवतार थे। और सोहलवीं शताब्दी में श्री प्राणनाथ के रूप में ईश्वर के रूप में जन्म लिया।

इस सम्प्रदाय में 11 साल और 52 दिन की आयु वाले बाल कृष्ण को पूजा जाता है। क्योकि इस आयु तक कृष्ण रासलीला किया करते थे। पाठक गलत न समझे कि कृष्ण अलग अलग है। कृष्ण तो केवल एक मनुष्य रूप का नाम है कोई ईश्वर का नही। बाल्यकाल में कृष्ण परमात्मा के अवतार थे और बाकी जीवन में विष्णु अवतार।

इतिहास संपादित करें

देवचन्द्रजी महाराज (1581-1655), का जन्म सिंध प्रांत के उमरकोट गांव में हुआ था। बाल्यकाल में ह़ी उनमे संत प्रवृत्ति देखी गई। अपनी सोलह बरस की उम्र में, वें संसार को त्याग ब्रह्म-ज्ञान (दिव्य ज्ञान) की खोज में, पहले कच्छ के भुज और फिर जामनगर के लिए, निकल पड़े। देवचन्द्रजी ने धर्म की एक नई धारा, जिसे उन्होंने निजानंद संप्रदाय कहा, को खोजने और उसे ठोस रूप देने का कार्य किया। वह जामनगर आकर बस गए, जहां उन्होंने धार्मिक मतभेद और सामाजिक वर्ग के असम्माननीय व्यक्तियों के लिए सरल भाषा में सुगम तरीके से वेद, वेदांत ज्ञान और भगवतम की व्याख्या रची तथा उन्हें "तारतम" सिखाया। उनके अनुयायियों को बाद में सुंदर साथ या प्रणामी के रूप में जाना जाने लगा।[2][3][4][5] जो राम का नही वो किसी काम का नही ।

प्रणामी धर्म के आगे के प्रसार का श्रेय, उनके योग्य शिष्य और उत्तराधिकारी, प्राणनाथ जी (मेहराज ठाकुर) (1618-1694) को जाता है, जो जामनगर राज्य के दीवान केशव ठाकुर के पुत्र थे। उन्होंने धर्म के प्रसार के लिए पूरे भारत की यात्रा की। उन्होंने कुलजम स्वरूप नामक कृति रची, जिसे छह भाषाओं में लिखा गया - गुजराती, सिंधी, अरबी, फारसी, उर्दू और हिन्दी, साथ ही इसमें और कई अन्य प्रचलित भाषाओं के शब्द भी लिए गए। कुलजम स्वरूप उर्फ कुल्ज़म स्वरूप एवं मेहर सागर नामक उनकी कृति, अब धर्म का मुख्य पाठ है। अपने जीवनकाल के दौरान उन्होंने हरिद्वार में कुंभ मेले में भी भाग लिया तथा कई संतों और अपने समय के धार्मिक नेताओं से मुलाकात की, जो उनके ज्ञान और शक्ति से प्रभावित थे।[2][3][4][5]

बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल (1649-1731), महामति प्राणनाथजी के प्रबल शिष्य और प्रणामी धर्म के अनुयायी थे। उनकी भेंट 1683 में पन्ना के निकट मऊ में संपन्न हुई। उनके भतीजे देव करण जी, जो पूर्व में स्वामी प्राणनाथ जी से रामनगर में मिल चुके थे, ने इस भेंट के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। छत्रसाल प्राणनाथ जी से अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गए। महाराजा छत्रसाल जब उनसे मिलने आए, वह मुगलों के खिलाफ युद्ध के लिए जा रहे थे। स्वामी प्राणनाथ जी ने उन्हें अपनी तलवार दे दी, एक दुपट्टे से उनके सिर को ढंका और कहा "आप सदा विजयी होंगे। आपकी भूमि में हीरे की खानों की खोज होंगी और आप एक महान राजा बनेंगे।" उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई, आज भी पन्ना क्षेत्र अपने हीरे की खानों के लिए प्रसिद्ध है। स्वामी प्राणनाथ जी छत्रसाल के केवल धार्मिक गुरू नहीं थे; वरन वह उन्हें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों में भी निर्देशित करते थे। पन्ना में हीरे मिलना स्वामी प्राणनाथ जी द्वारा दिया वरदान ही था जिससे महाराजा छत्रसाल समृद्ध हो गए।[2][3][4][5] जो राम का नही वो किसी काम का नही ।

एक गौरतलब बात - महात्मा गांधी की मां पुतलीबाई प्रणामी संप्रदाय की थी।[6][7] गांधी की अपनी पुस्तक सत्य के साथ मेरे प्रयोग में इस संप्रदाय के बारे में उल्लेख है - "प्रणामी ऐसा संप्रदाय है जिसमें कुरान और गीता दोनों का सर्वोत्तम प्राप्त होता है, एक लक्ष्य की खोज - ईश्वर।"[8]

पवित्र ग्रंथ संपादित करें

तारतम सागर संपादित करें

तारतम सागर महामति प्राणनाथ जी द्वारा धर्म प्रचार-प्रसार के लिए देश-विदेश में दिए गए उपदेशों का संग्रह है जिसमें प्रणामी धर्म के सम्पूर्ण सिद्धान्त तथा दर्शन समाविष्ट हैं।[9] चौदह कृतियों का यह पवित्र संकलन वैदिक ग्रंथों, कतेब (सामी ग्रंथो- कुरान, तोरा, दाउदबाइबल के गान) के साथ ही सर्वोच्च धाम परमधाम के विवरण जिसे मुस्लिम अर्शे अज़ीम (लाहुत) और इसाई सर्वोच्च स्वर्ग कहते हैं, के रहस्योद्घाटन से मिलकर बना है। इस पवित्र संकलन के कारण दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है। श्री कृष्ण प्रणामी आस्था के अनुयायी इस पवित्र ग्रंथ की पूजा स्वयं प्रभु की तरह करते हैं।

तारतम सागर में संकलित चौदह कृतियाँ है - रास, प्रकाश, षट्ऋतु, कलश, सनंध, किरंतन, खुलासा, खिलवत, परिक्रमा, सागर, सिनगार, सिंधी, मारफत सागर और कयामतनामा। इसमें कुल 18,758 चौपाईयाँ संकलित हैं।[9]

विराट संपादित करें

वृति/चर्चाणी संपादित करें

अक्षरातीत श्रीकृष्न का वर्णन धर्मग्रन्थों में इस प्रकार किया गया है-

चिदादित्यं किशोरांगं परेधाम्नि विराजितम्।
स्वरुपं सच्चिदानन्दं निर्विकारं सनातनम् ॥ -- ब्रह्मवैवर्त पुराण

" चिदादित्य (सदा चमकने वाला) , किशोर अंगों वाला, परमधाम में विराजित, सच्चिदानन्द स्वरूप, निर्विकार, और सनातन'

तीर्थ स्थल संपादित करें

जामनगर संपादित करें

नवतनपुरी धाम, जामनगर प्रणामी धर्म का तीर्थ स्थल है क्योंकि देवचंद्र जी को यहां दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। ऐसी मान्यता है, एक बार देवचंद्र जी ने अपने दाँत साफ़ कर दातुनों को वहीं जमीन में गाड़ दिया जो उगकर विशाल वृक्ष हो गया। आज, 400 साल बाद भी, वह अब भी वहां हैं और खिजडा वृक्ष कहलाता है तथा मंदिर खिजड़ा मंदिर कहलाता है।[1]

सूरत संपादित करें

प्राणनाथ ने उपदेश देते 17 महीने सूरत में बिताए। इसी दरम्यान उन्हें गद्दी के नेतृत्व की पेशकश हुई तथा उनके शिष्यों ने महामति स्वामी प्राणनाथ की उपाधि के साथ उनकी पूजा की थी। तब से, सैयदपुरा के इस संस्था को, श्री 5 महा मंगलपुरी धाम या और अधिक लोकप्रिय नाम मोटा मंदिर, के रूप में जाना जाने लगा।[1]

पन्ना संपादित करें

पन्ना जहां प्राणनाथ महाराजा छत्रसाल से मिले, उन्हें आशीर्वाद दिया तथा एक तलवार भेंट की जो जलपुकार कहलाती है। इस तलवार के साथ छत्रसाल ने महू में मुगल सेना को पराजित किया। प्राणनाथ ने भी पन्ना की भूमि को हीरे की उपज का आशीर्वाद दिया, जिसने छत्रसाल को औरंगजेब से लड़ने के लिए धन प्रदान किया। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला पर एक नया पन्ना बसाने के लिए बधाई दी, प्राणनाथ ने भी इसी भूमि को चुना और वहाँ एक ध्वज 'श्री जी का झंडा' फहराया। ध्वज आज भी देखा जा सकता है। प्राणनाथ ने 11 साल तक पन्ना में निवास किया तथा परमधाम के लिए अपनी काया यहां छोड़ दी। यह स्थल मुक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है तथा वहां स्थापित मंदिर पद्मावतीपुरी धाम कहलाता है।[1]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "sri-krishna-pranami-dharma-a-400yearold-sect-is-a-libera". मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 अगस्त 2014.
  2. "Pranami Faith : Saints of Pranami Dharma : Texts". मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2014.
  3. "Nijanad Sampradaya". मूल से 5 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2014.
  4. "The Pranami Faith: Beyond `Hindu' and `Muslim'- Dominique-Sila Khan". मूल से 13 जनवरी 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2014.
  5. Vishava Pranami Dharma[मृत कड़ियाँ]
  6. Identity and religion: foundations of anti-Islamism in India By Amalendu Misra. 2004. पृ॰ 67.
  7. Mohandas: A True Story of a Man, His People, and an Empire By Gandhi. 2006. पृ॰ 5.
  8. The Agony of Arrival: Gandhi, the South Africa Years by Nagindas Sanghavi. 2006. मूल से 3 नवंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2014.
  9. "श्री कृष्ण प्रणामी धर्म". मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 अगस्त 2014.

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें