श्री विश्वकर्मा पुराण

||श्री विश्वकर्मा - ।।पुराण।।

श्री विश्वकर्मा देव Jay Vishwakarma dev ki Jay हम अपने प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु गंधर्व द्वारा भी पूजित और वंदित है। भगवान विश्वकर्मा के निर्माण कार्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है। कर्ण का कुण्डल, दिव्य रथों और द्वारिकापुरी के भवनों का निर्माण विश्वकर्मा देव ने ही किया है। विश्वकर्मा देव जी को अन्य देवताओं की तरह ब्रम्हाजी ने उत्पन किया और उन्हे देवलोक और पृथ्वी लोक में भवन निर्माण हेतु नियुक्त किया। वह देवराज इंद्र की सभा में बैठते हैं।

हमारे धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों का वर्णन प्राप्त होता है।

आदिपुरुष परमेश्वर श्रीकृष्णस्वरूप से ब्रम्हा की  जो  पूर्व सत्य युग मे  ब्रम्हर्षी अश्वमेध यज्ञ करवाने के अधिकारी ब्राह्मण जिन्हें कर्मफल अनुसार ब्रम्हा की पदवी मिली उन्हें  नाभि कमाल से उत्पन्न किया जिनसे विराट की उत्पत्ति हुयी, सृष्टि के रचेता ब्रम्हा ने सृष्टि के सृजन हेतु शिव का ध्यान किया तो रुद्र शिवलिंग रूप मे उनके मस्तक से प्रगत हुए फिर बाल रूप मे प्रकट होकर रुदन करने लगे तो उन्हें ब्रह्माजी ने रुद्र कहकर पुकारा वही शिव का महादेव स्वरूप है। अन्य  देवताओं महर्षि की उत्पत्ति ब्रम्हा के मन से विचार मात्र से हो गई।
 धर्म अर्थात यमराज- महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र
 अंगिरावंशी - आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र
 सुधन्वा - महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र
 भृंगुवंशी- उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र)

देव विश्वकर्मा से विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है।

शिल्पशास्त्रो के प्रणेता बने स्वंय विश्वकर्मा जो ऋषशि रूप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है, शिल्पो कें आचार्य शिल्पी ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच प्रमुख शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस, काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिषश्ठाता मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव दैवज्ञा के रूप में जाने गये। ये सभी ऋषि परम्परा का पालन कर वेंदो में पारंगत थे।

स्कन्दपुराण के नागर खण्ड में विश्वकर्मा देव के वशंजों की चर्चा की गई है। विश्वकर्मा पंचमुख है। उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है। उनके नाम है – मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ।

 ऋषि मनु विष्वकर्मा - ये "सानग गोत्र" के कहे जाते है। ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है। इनके वशंज लोहकार के रूप मे जानें जाते है।
 सनातन ऋषि मय - ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है। ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। इनके वंशंज काष्टकार के रूप में जाने जाते है।
 अहभून ऋषि त्वष्ठा - इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है। इनके वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है।
 प्रयत्न ऋषि शिल्पी - इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है। इनके वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें मुर्तिकार भी कहते हैं।
 देवज्ञ ऋषि - इनका गोत्र है सुर्पण। इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं। ये रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म करते है,।

विश्वकर्मा देव के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है। लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को उत्पन्न करते वाले तथा घर, मंदिर एवं भवन, मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा अलंकारों की रचना करने वाले है। इनकी सारी रचनाये लोकहितकारणी हैं। इसलिए ये पाँचो एवं वन्दनीय शिल्पी है और वेद निर्धारित अधिकार अनुसार यज्ञ कर्म करने वाले है। इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि उत्पन्न हुये है।

विश्वकर्मा के दुसरे पुत्र मय थे। इनका विवाह कन्या सौम्या देवी के साथ हुआ था। इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है। इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है।

विश्वकर्मा के तिसरे पुत्र महर्षि त्वष्ठा थे। इनका विवाह कौषिक की कन्या जयन्ती के साथ हुआ था। इनके कुल में लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है। वे देवताओं में पूजित ऋषि थे।

विश्वकर्मा के चौथे महर्षि शिल्पी पुत्र थे। इनका विवाह करूणाके साथ हुआ था। इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि हुये है। इनकी कलाओं का वर्णन मानव जाति क्या देवगण भी नहीं कर पाये है।

विश्वकर्मा के पाँचवे पुत्र महर्षि दैवज्ञ थे। इनका विवाह चंद्रिका के साथ हुआ था। इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी शिल्पी हुये।

इन पाँच पुत्रो के अपनी छीनी, हथौडी, कील, रंदा और अपनी उँगलीयों से निर्मित कलाये दर्शको को चकित कर देती है। उन्होन् अपने वशंजो को कार्य सौप कर अपनी कलाओं को सारे संसार मे फैलाया और आदि युग से आजलक अपने-अपने कार्य को सभालते चले आ रहे है।

विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक कहा माना गया है। वह सृष्टि की रचना के समय निर्माण कला के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं-

देवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै।

वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है। उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहां मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है। वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।

विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।

सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों के ताप से रक्षा भी विश्वकर्मा ने वावास्तुकला से की थी। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका ज़िक्र मिलता है। यह ज़िक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—

कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।

हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥ उनका अष्टगंधादि से पूजन लाभदायक है।

विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं। संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया।

श्री विश्वकर्मा वंशावली

विश्वकर्मा के वंश का वर्णन मिलता है। स्कन्द पुराण के काशी खंड में महादेव जी ने पार्वती जी से कहा है कि हे पार्वती मैं आप से पाप नाशक कथा कहता हूं। इसी कथा में महादेव जी ने पार्वती जी को विश्वकर्मा उत्पन्न करने की कथा कहते हुए कहा कि देव शिल्पी विश्वकर्मा की त्वष्टा प्रजापति के पुत्र के रूप मे उत्पत्ति हुयी।

प्रथम अवतार

विश्वकर्माSभवत्पूर्व स्त्वपराSतनुः। त्वष्ट्रः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्व कर्मस।।

अर्थः प्रत्यक्ष आदि विश्वकर्मा त्वष्टा प्रजापति का पुत्र पहले उत्पन्न हुआ और वह सब कामों मे निपुण था।

दूसरा अवतार

स्कन्द पुराण प्रभास खंड सोमनाथ माहात्म्य सोम पुत्र संवाद में विश्वकर्मा के दूसरे अवतार का वर्णन इस भातिं मिलता है। ईश्वर उचावः

शिल्पोत्पत्तिं प्रवक्ष्यामि श्रृणु षण्मुख यत्नतः। विश्वकर्माSभवत्पूर्व शिल्पिनां शिव कर्मणाम्।। मदंगेषु च सभूंताः पुत्रा पंच जटाधराः। हस्त कौशल संपूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा।।

एक समय कैलाश पर्वत पर शिवजी, पार्वती, गणपति आदि सब बैठे थे उस समय स्कन्दजी ने गणपतिजी के रत्नजडित दातों और पार्वती जी के जवाहरात से जडें हुए जेवरों को देखकर प्रश्न किया कि, हे पार्वतीनाथ, आप यह बताने की कृपा करे कि ये हीरे जवाहरात चमकिले पदार्थो किसने निर्मित किये? इसके उत्तर में ईश्वर, शंकर ने कहा कि शिल्पियों के अधिपति श्री विश्वकर्मा की उत्पति सुनो। शिल्प के प्रवर्त्तक विश्वकर्मा विभिन्न रूपों में उत्पन्न हुए जिन के नाम मनु, मय, शिल्प, त्वष्टा, दैवेज्ञ थे। यह पांचों पुत्र ब्रह्मा की उपासना में सदा लगें रहतें थे इत्यादि।

तीसरा अवतार

आर्दव वसु प्रभास नामक की योगसिद्ध से विवाही गई और अष्टम वसु प्रभाव से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम विश्वकर्मा हुआ जो शिल्प प्रजापति कहलाया इसका वर्णन वायुपुराण अ.22 उत्तर भाग में दिया हैः

बृहस्पतेस्तु भगिनो वरस्त्री ब्रह्मचारिणी। योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा।। प्रभासस्य तु सा भार्या वसु नामष्ट मस्य तु। विश्वकर्मा सुत स्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः।।

मत्स्य पुराण अ.5 में भी लिखा हैः

विश्वकर्मा प्रभासस्य पुत्रः शिल्प प्रजापतिः। प्रसाद भवनोद्यान प्रतिमा भूषणादिषु। तडागा राम कूप्रेषु स्मृतः सोमSवर्धकी।।

अर्थः प्रभास का पुत्र शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा देव, मन्दिर, भवन, देवमूर्ति, जेवर, तालाब, बावडी और कुएं निर्माण करने देव आचार्य थे।

आदित्य पुराण में भी कहा है किः

विश्वकर्मा प्रभासस्य धर्मस्थः पातु स ततः।।

महाभारत आदि पर्व विष्णु पुराण औरं भागवत में भी इसका उल्लेख किया गया है।


विश्वकर्मा देव

विश्वकर्मा नाम के ऋषि भी हुए है। विद्वानों को इसका पूरा पता है कि ऋग्वेद में विभिन्न देवताओं के साथ विश्वकर्मा सूक्त दिया हुआ है और इस सूक्त में 14 ऋचायें है इस सूक्त का देवता विश्वकर्मा है और मंत्र दृष्टा ऋषि विश्वकर्मा है। विश्वकर्मा सूक्त 14 उल्लेख इसी ग्रन्थ विश्वकर्मा-विजय प्रकाश में दिया है। 14 सूक्त मंत्र और अर्थ भावार्थ सब लिखे दिये है। पाठक इसी पुस्तक में देखे लेंवे। य़इमा विश्वा भुवनानि इत्यादि से सूक्त प्रारम्भ होता है यजुर्वेद 4/3/4/3 विश्वकर्मा ते ऋषि इस प्रमाण से विश्वकर्मा को होना सिद्ध है इत्यादि।

विश्वकर्मा अनेक नामों से विभूषित

जगत me शिल्प कर्ता विश्वकर्मा भौवन विश्वकर्मा, ऋषि विश्वकर्मा धर्म ग्रंन्थों में अनेक अवतरण आये है। विषय अनेकानेक नामॆ में बटा हुआ है विश्वकर्मा वैश्य में निर्माण कर्म है, अर्थात विश्वकर्मा सन्तान कहने का दावा करने वाले तथा अपने को पांचाल शिल्पी वाले शिल्पी वैश्य है जैसे रथ निर्माण कार्य, कुम्हार, काष्ठ से भवन इत्यादि निर्माता- बढ़ई, लौह वस्तु बर्तन और खनिज शिल्पी-लोहार इत्यादि।

शिल्पज्ञ, विश्वकर्मा ब्राह्मणों को रथकार वर्धकी, एतब कवि, मोयावी, पाँचाल, रथपति, सुहस्त सौर और परासर आदि शब्दों में सम्बोधित किया गया था। उस समय आजकल के सामान लोहाकारों, काष्ठकारों और स्वर्णकारों आदि सभी के अलग-अलग जाति भेद नहीं थे। प्राचीन समय में शिल्प कर्म बहुत उंचा समझा जाता था, क्योंकि धर्मग्रंथों की खोज में हमें पता चलता है कि वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण के वर्ण संकर सन्तान सूत और सभी विश्वकर्मा तीनों ही वर्ण रथ कर्म अर्थात शिल्प कर्म करतें थे। अन्य हैं, रथकार, पाचांल, नाराशस इत्यादि। रथकार

यह शब्द प्राचीन धर्मग्रन्थों में अनेक स्थलों पर आया है और उनकें शिल्पी स्थान में प्रयोग हुआ है। अर्थात लोककार, काष्टकार, स्वर्णकार, सिलावट और ताम्रकार सब ही काम करने वाले कुशल प्रवीण शिल्पी ब्राह्मण का बोध केवल रथकार शब्द से ही कराया गया है और यही शब्दों वेदों तथा पुराणों में भी शिल्पज्ञ ब्राह्मणों के लिए लिखा गया है। स्कन्द पुराण नागर खण्ड अध्याय 6 में रथकार शब्द का प्रयोग हुआ हैः

विश्वकर्मा सुता होते रथ कारास्तु पचं च।। तास्मिन् काले महाभागो परमो मय रूप भाक्।। पाषणदार कंटकं सौ वर्ण दशकं तदा।। काष्ठं च नव लोहानि रथ कृद्यों ददौ विभुः।। रथ कारास्तदा चक्रुः पचं कृत्यानि सर्वदा।। षडदशनाद्य नुष्ठानं षट् कर्मनिरताश्च ये।।

अर्थः शंकर बोले कि हे स्कंन्द, इन विश्वकर्मा पुत्रों की रथकार सज्ञां है। अनेक रूप धारण करने वाले उस विश्वकर्मा ने अपने पुत्रों को टांकी आदि दस शिल्प आयुध अर्थात दस औजार सोना आदि नौ धातु लोहा, लकडीं आत्यादि दिया। उसके यह षटेकर्म करने वाले रथकार सृष्टि कार्य के पंचनिध पवित्र कर्म करने लगे।

रथकार शब्द के शिल्पी सूचक होने के विषय में व्याकरण में भी अष्टाध्यायी पाणिनि सूत्र पाठ सूत्र - शिल्पिनि चा कुत्रः 6/2/76 सज्ञांयांच 6/2/77 सिद्धांत कौमुदी वृतिः- शिल्पि वाचिनि समासे अष्णते। परे पूर्व माद्युदात्तं, स चेदण कृत्रः परो न भवति। ततुंवायः शिल्पिनि किम- काडंलाव, अकृत्रः किं-कुम्भकारः। सज्ञां यांच अणयते परे तंतुवायो नाम कृमिः। अकृत्रः इत्येव रथकारों नाम शिल्पीः।।पाणिनिसूत्र 4/1-151 कृर्वादिभ्योण्यः।

हर वर्ण जिन ब्राम्हण ऋषियों की कुल पूजा परम्परा का पालन करना था वह वही ऋषि गोत्र लिखता था जो कालांतर में वंश परम्परा गोत्र कहलाये। विश्वकर्मा ने जिन ब्राम्हण ऋषियों वह यह हैः कुरू, गर्ग, मगुंष, अजमार, ऱथकार, बाबदूक, कवि, मति, काधिजल इत्यादि, कौरव्यां, ब्राह्मणा, मार्ग्य, मांगुयाः आजमार्याः राथकार्याः वावद्क्याः कात्या मात्याः कापिजल्याः ब्राह्मणाः इति सर्वत्र।

तात्पर्य यह है कि व्याकरण शास्त्र में भी रथकार शब्द को आर्य गोत्र, सभी वर्ण थे और उसका उदाहरण भी रथकार दिया है।

पांचाल

रथकार शब्द के विषय के नमूने के तौर पर ऊपर उदाहरण देकर बता चुके है। अब इसी भातिं एक दो उदाहरण पांचाल शब्द के विषय में भी देकर बतावेंगे कि विश्वकर्मा प्राचीन धर्म ग्रन्थों में पांचाल भी कहा गया है। वराह पुराण में कहा हैः

पांचाल शिल्पेति हासः कथं।। तत्र सुवर्णालंकार वाणिज्यों प जीविनः पांचाल विश्वकर्माः।।

शैवागम में कहा हैः

पंचालाना च सर्वेषामा चारोSप्य़थ गीयते। षट् कर्म विनिर्मित्यनी पचांलाना स्मुतानिच।।

वास्तु ग्रंथ में भगवान शिवजी ने कहा किः

शिवा मनुमंय स्त्वष्टा तक्षा शिल्पी च पंचमः।। विश्वकर्मसुता नेतान् विद्धि प्रवर्तकान्।। एतेषां पुत्र पौत्राणामप्येते शिल्पिनो भूवि।। पंचालानां च सर्वेषां शाखास्याच्छौन कायनो।। पंचालास्ते रचित शिवस्य प्रतिमायाः विश्वकर्मणः।। रूद्रवामल वास्तु तन्त्र व्रत्यादि।।

उपरोक्त प्रमाणों में पाचांल शब्द का प्रयोग विश्वकर्माके स्थान में किया गया है। भगवान शिव कहते हैं कि, रथकार और पांचाल दोनों द्वारा निर्मित मेरी शिव प्रतिमा पुज्य है।

स्थापत्य

यज्ञ कर्म और देव कर्म संबंधी कर्म में कहीं कहीं विश्वकर्मा पाचांल ब्राह्मण की सज्ञां स्थापत्य भी कही गई है। जैसे भागवत स्कन्द 3 में स्थापत्य विश्वकर्म शास्त्र लिखा है, इसका यही अर्थ है कि यज्ञ सम्बधी वेदी निर्माण इइत्यादि और देव संबधी पवित्र शिल्प कर्म प्रतिमा बनाना करने वाले विश्वकर्मा सन्तान है। इसकी पुष्टि अमर कोष के प्रमाण से भी होती है।

देखो - अमर कोष अ. - सगींष्प तोष्टय्या स्थपतिः

अर्थः विश्व-कर्म कुलोत्पन्न शिल्पाचार्य हुए है।

वायु पुराण अध्याय 4 के पढने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि वास्तव में विश्वकर्मा सन्तान भृगु ऋषि को मानने वाली कुल परंपरानुसार शिल्पी वैश्य वंश से उत्पन्न है:

भार्ये भृगोर प्रतिमे उत्तमेSभिजाते शुभे।। हिरण्य कशिपोः कन्या दिव्यनाम्नी परिश्रुता।। पुलोम्नश्चापि पौलोमि दुहिता वर वर्णिनी।। भृगोस्त्वजनयद्विव्या काव्यवेदविंदा वरं।। देवा सुराणामाचार्य शुक्रं कविसुंत ग्रहं।। पितृंणा मानसी कन्या सोमपाना य़शस्विनी।। शुक्रस्य भार्यागीराम विजये चतुरः सुतान्।।

अर्थः हिरण्यकश्यप की बेटी दिव्या और पुलोमी की बेटी पौलीमी उत्तम कुलीन, यह दोनों मृग ऋषि को विवाही गई। दिव्या नाम वाली स्त्री के गर्भ से शुक्राचार्य पैदा हुए। सोम्य पितरों की मानसी कन्या अगीं नाम वाली शुक्राचार्य को विवाही गई। शुक्राचार्य जी के सूर्य के समान तेज वाले त्वष्टा, वस्त्र, शंड और अर्मक यह पुत्र पैदा हुए।

त्रिशिरा विश्वरूपस्तु त्वष्टाः पुत्राय भवताम्।। विस्वरूपानुजश्चापि विश्वकर्मा प्रजापतिः।।

अर्थः त्वष्टा प्रजापति के त्रिशिरा जिसका नाम विश्वरूप था बडा पराक्रमी औऱ उसका भाई विस्वकर्मा प्रपति यह दो पुत्र इसी विश्वकर्मा प्रजपति के विषय में स्कन्द पुराण रे प्रभास खंड में यह लिखा है।

विश्वकर्म महदभूतं विश्वकर्माणाम् मदंगेषु च सम्भूताः।। पुत्रा पचं जटाधराः हस्त कौशल सम्पूर्णाः पंच शिल्प सदा।।

अर्थः शिल्पियों में विश्वकर्मा बडा महान हुआ,।

किसी किसी ग्रन्थकार जैसे बोधयन नामक सूत्रकार ने वरिष्ठ शुनक अत्रि, भृगु, कण्व, वाध्न्यश्वा, वाधूल, यह गोत्र बी नाराशंस पांचालों के आर्षेय गोत्र लिखे है।

केवल आंगिरस कुल के प्रसिद्ध ऋषि

उपरोक्त अगिंरा वशांवली दी गई है, यह प्रमाण-सग्रंह से उधृत है। अगिंरा ऋषि ब्रह्मा, के मुख से उत्पन्न हुय़े। इनका वर्णन वेद, ब्राह्मण ग्रथं, श्रुति, स्मृति, रामायण, महाभारत और सभी पुराणों में उल्लेख है। अगिंरा महर्षि, विश्वकर्मा के कुल गुरू हैं।

अंगिरा

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण, भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है। मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है। भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए। महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है। ऋग्वेद 10-14-6 मे कहा है किः

अमगिरासों नः पितरो नवग्वा अर्थर्वाणो भृगबः सोम्यासः। तेषां वयं सुभतौं यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसः स्यामः।।

अर्थः जिसके कुल में भरद्वाज, गौतम और अनेक महापुरूष उत्पन्न हुए ऐसे जो अग्नि के पुत्र महर्षि अंगिरा बडे भारी विद्वान हुए है उनके वशं को सुनों। अंगिरस देव धनुष और बाण धारी थे, उनको ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या यह तीनों विवाही गई। सुरूमा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव उतथ्य और उशिर यह पांछ पुत्र जन्में, पथ्या के गर्भ से विष्णु संवर्त, विचित, अयास्य असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा यह सात पुत्र उत्पन्न हुए। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र ऱथकार में बडें कुशल देवता थे, तो भी इनकी गणना ऋषियों में की गई है। शिल्प के निर्माण वाले रथकार नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमे स्पष्ट सिद्ध हो गया की प्राचीन काल में शिल्पी भी कहा करते थे और रथकार भी।

श्री विश्वकर्मा चालीसा

   दोहा - श्री विश्वकर्म प्रभु वन्दऊँ, चरणकमल धरिध्य़ान।
   श्रशिल्प , बल अरु शिल्पगुण, दीजै दया निधान।।
   
   जय श्री विश्वकर्म भगवाना। जय विश्वेश्वर कृपा निधाना।।
   शशिल्प सूत्रम  धारउपकारी। भुवना-पुत्र नाम छविकारी।।
   अष्टमबसु प्रभास-सुत नागर। शिल्पज्ञान जग कियउ उजागर।।
   अद्रभुत सकल सुष्टि के कर्त्ता। सत्य ज्ञान श्रुति जग हित धर्त्ता।।
   अतुल तेज तुम्हतो जग माहीं। कोइ विश्व मँह जानत नाही।।
   दसवाँ हस्त बरद जग हेतू। अति भव सिंधु माँहि वर सेतू।।
   सूरज तेज हरण तुम कियऊ। अस्त्र शस्त्र जिससे निरमयऊ।।
   भाँति – भाँति के अस्त्र रचाये। सतपथ को प्रभु सदा बचाये।।
   अमृत घट के तुम निर्माता। साधु संत भक्तन सुर त्राता।।
   लौह काष्ट ताम्र पाषाना। स्वर्ण शिल्प के परम सजाना।।
   विद्युत अग्नि पवन भू वारी। इनसे अद् भुत काज सवारी।।
   खान पान हित भाजन नाना। भवन विभिषत विविध विधाना।।
   विविध व्सत हित यत्रं अपारा। विरचेहु तुम समस्त संसारा।।
   द्रव्य सुगंधित सुमन अनेका। विविध महा औषधि सविवेका।।
   शंभु विरंचि विष्णु सुरपाला। वरुण कुबेर अग्नि यमकाला।।
   तुम्हरे ढिग सब मिलकर गयऊ। करि प्रमाण पुनि अस्तुति ठयऊ।।
   भे आतुर प्रभु लखि सुर–शोका। कियउ काज सब भये अशोका।।
   अद् भुत रचे यान मनहारी। जल-थल-गगन माँहि-समचारी।।
   शिव अरु विश्वकर्म प्रभु माँही। विज्ञान कह अतंर नाही।।
   बरनै कौन स्वरुप तुम्हारा। सकल सृष्टि है तव विस्तारा।।
   रचेत विश्व हित त्रिविध शरीरा। तुम बिन हरै कौन भव हारी।।
   मंगल-मूल भगत भय हारी। शोक रहित त्रैलोक विहारी।।
   मनु मय त्वष्टा शिल्पी तक्षा। सबकी नित करतें हैं रक्षा।।
   पंच पुत्र नित जग हित धर्मा। हवै निष्काम करै निज कर्मा।।
   प्रभु तुम सम कृपाल नहिं कोई। विपदा हरै जगत मँह जोइ।।
   जै जै जै भौवन विश्वकर्मा। करहु कृपा गुरुदेव सुधर्मा।।
   इक सौ आठ जाप कर जोई। छीजै विपति महा सुख होई।।
   पढाहि जो विश्वकर्म-चालीसा। होय सिद्ध साक्षी गौरीशा।।
   विश्व विश्वकर्मा प्रभु मेरे। हो प्रसन्न हम बालक तेरे।।
   मैं हूँ सदा विश्व कर्चेमा चेरा। सदा करो प्रभु मन मँह डेरा।।
    
   दोहा - करहु कृपा शंकर सरिस, विश्वकर्मा शिवकलारुप।
   श्री शुभदा रचना सहित, ह्रदय बसहु सुरभूप।।

श्री विश्वकर्मा भगवान की प्रात: कालीन स्तुति

   श्री विश्वकर्मा विश्व के शिल्प सर्वाधारणम्। शरणागतम् शरणागतम् शरणागतम् सुखाकारणम्।।
   सर्वज्ञ व्यापक सत्तचित आनंद सिरजनहारणम्। सब करहिं स्तुति शेष शारदा पाहिनाथ पुकारणम्।।
   श्री विश्वपति भगवत के जो चरण चित लव लांइ है। करि विनय बहु विधि प्रेम सो सौभाग्य सो नर पाइ है।।
   संसार की सुख सम्पदा सब भांति सो नर पाइ है। गहु शरण जाहिल करि कृपा भगवान तोहि अपनाई है।।
   प्रभुदित ह्रदय से जो सदा गुणगान प्रभु की गाइ है। संसार सागर से अवति सो नर सुपध को पाइ है।।
   हे विश्वकर्मा विश्व के शिलपी सर्वा धारणम्। शरणागतम्। शरणागतम्। शरणागतम्। शरणागतम्।।
   श्री विश्वकर्मा भगवान की मुरति अजब विशाल। भरि निज नैन विलोकिये तजि नाना जंजाल।।
 


   आरती गाऊं विश्वकर्मा देव की। ब्रम्हा पुत्र विश्वकर्मा स्वामी की।
   तन मन धन सब अर्पण तेरे। करो वास हिये में प्रभु मेरे।
   सर्व शिल्पी विरंची तुमरे गुण गावें। शिल्प कर्म में तुमको ध्यावें। 1।
   कलियुग में कर साधन कीन्हां। चतुरानन वेद पढयो मुनि चारा।
   शिल्प कला शुभ मार्ग दीन्हा। साम यजु ऋग शिल्प भडारा। 2।
   विश्वकर्मा नाम सदा अविनाशी। अगम अगोचर घट घट वासी।
   कल्पतरु पद सब सुख धामा। सत्य सनातन मुद मगंल नामा। 3।
   करें अर्चन सुमरण पूजा किसकी। नहीं तुम बिन दूजा करे आसा जिसकी।
   विषय विकार मिटाओ मन के। दुख व्याधा रोग कटें तब तन के। 4।
   माता पिता तुम शरणा गत स्वामी। तुम पूरण प्रभु नित्य अन्तर्यामी।
   हम पावन पाठ करेंहिं चितलाई। करो संकट नाश सदा सुख दाई। 5।
   परम विज्ञानी सत्य लोक निवासी। देव तनु धर आयो, ख राशी।
   तुम बिन जग में कौन गोसाँई। विश्वप्रताप की अब जो करे सहाई। 6।
 

श्री विश्वकर्मा प्रार्थना

   हे विश्वकर्मा देव!, इतनी विनय सुन लीजिये। दु:ख दुर्गुणो को दूर कर, सुख सद् गुणों को दीजिये।।
   ऐसी दया हो आप की, सब जन सुखी सम्पन्न हों। कल्याण कारी गुण सभी में, नित नये उत्पन्न हों।।
   प्रभु विघ्न आये पास ना, ऐसी कृपा हो आपकी। निशिदिन सदा निर्मय रहें, सतांप हो नहि ताप की।।
   कल्याण होये विश्व का, अस ज्ञान हमको दीजिये। निशि दिन रहें कर्त्तव्य रल, अस शक्ति हमनें कीजियें।।
   तुम भक्त – वत्सल हो, `भौवन` तुम्हारा नाम है। सत कोटि कोट्न अहर्निशि, सुचि मन सहित प्रणाम है।।
 


   हो निर्विकार तथा पितुम हो भक्त वत्सल सर्वथा, हो तुम निरिहत तथा पी उदभुत सृष्टी रचते हो सढा।
   आकार हीन तथा पितुम साकार सन्तत सिध्द हो, सर्वेश होकर भी सदातुम प्रेम वस प्रसिध्द हो।
   करता तुही भरता तुही हरता तुही हो शृष्टि के, हे ईश बहुत उपकार तुम ने सर्लदा हम पर किये।
   उपकार प्रति उपकार मे क्या दें तुम्हे इसके लिए, है क्या हमारा शृष्टि में जो दे तुम्हे इसके लिए।
   जय दीन बन्धु सोक सिधी दैव दैव दया निधे, चारो पदार्थ दया निधे फल है तुम्हारे दृष्टि के।
 

श्री विश्वकर्मा आरती

 आरती पंच मुखी विश्वकर्मा की
 आरती विश्वकर्मा अवतार की
 आरती विश्वकर्मा हरि की
 आरती विराट विश्वकर्मा भगवान की


आरती पंच मुखी विश्वकर्मा की

     ओ3म् जय विश्वकर्मा देवा, प्रभु जय पंचानन देवा। सृष्टिखण्ड की करते तुम नित्य सेवा। 1।
     भव मय त्राता जगत विधाता, मुक्ति फल दाता। स्वर्ण सिहासन मुकुट शीश चहूँ, सबके मन भाता। 2।
     प्रभात पिता भवना (माता) विश्वकर्मा स्वामी। विज्ञान शिल्प पति जग मांहि, आयो अन्तर्यामी। 3।
     भान शशि नक्षत्र सारे, तुम से ज्योति पावें। दुर्गा इन्र्द देव मुनि जन, मन देखत हर्षावें। 4।
     श्रेष्ठ कमण्डल कर चक्तपाणी तुम से त्रिशुल धारी। नाम तुम्हारा सयाराम और भजते कुँज बिहरी। 5।
     नारद आदि शेष शारदा, नुत्य गावत गुण तेरे। अमृत घट की रक्षा कीन्ही, जब देवों ने टेरे। 6।
     सिन्धु सेत बनाय राम की पल में करी सहाई। सप्त ऋषि दुख मोचन कीन्हीं, तब शान्ति पाई। 7।
     सुर नर किन्नर देव मुनि, गाथा नित्य गाते। परम पवित्र नाम सुमर नर, सुख सम्पति पाते। 8।
     पीत वसन हंस वाहन स्वानी, सबके मन भावे। सो प्राणी धन भाग पिता, चरण शरण जो आवे। 9।
     पंचानन विश्वकर्मा की जो कोई आरती गावे। निश्वप्रताप, दुख छीजें सारा सुख सम्पत आवे। 10।
  


आरती विश्वकर्मा अवतार की

     ओ3म् जय पंचानन स्वामी प्रभु पंचानन स्वामी। अजर देव शिल्पी, नमो अन्तर्यामी।
     चतुरानन संग सात ऋषि, शरण आपकी आये। अभय दान दे ऋषियन को, सार कष्ट मिटाये। 1।
     निगम गम पथ दाता हमें शरण पडे तेरी। विषय विकार मिटाओ सारे, मत लाओ देरी। 2।
     कुण्डल कर्ण गले मे माला इस वाहन सोहे। जति सति संन्यासी जग के, देख ही मोहे। 3।
     श्रेष्ठ कमण्डल मुकमट शीश पर तुम त्रिशूल धारी। भाल विशा सुलोचन देखत सुख पावँ नरनारी। 4।
     देख देख कर रूप मुनिजन, मन ही मन रीझै। अग्नि वायु आदित्य अंगिरा, आनन्द रस पीजै। 5।
     भक्त की जय कार तुम्हारी विज्ञान शिल्प दाता। जिस पर हो तेरी दया दृष्टि भव सागर तर जाता। 6।
     ऋषि सिर्फ ज्ञान विधायक जो शरण तुम्हारी आये। विश्वप्रताप दुख रोग मिटे, सुख सम्पत पावे। 7।
  


आरती विश्वकर्मा हरि की

    जय विश्वकर्मा हरे जय विश्वकर्मा हरे। दीना नाथ शरण गत वत्सलभव उध्दार करे। 1।
     भक्त जनों के समय समय पर दुख संकट हर्ता। विश्वरुप जगत के स्वामी तुम आदि कर्ता। 2।
     ब्रह्म वशं मे अवतार धरो, निज इच्छा कर स्वामी। प्रभात पिता महतारी भूवना योग सुता नामी। 3।
     शिवो मनुमय त्वष्टा शिल्पी दैवज सुख दाता। शिल्प कला मे पांच तनय, भये ब्रह्म ज्ञाता। 4।
     नारद इन्द्रशेष शारदा तव चरणन के तेरे। अग्नि वायु आदित्य अंगिरा, गावें गुण तेरे। 5।
     देव मुनि जन ऋषि महात्मा चरण शरण आये। राम सीया और उमा भवानी कर दर्शन हर्षाये। 6।
     ब्रह्मा, विष्णु, शंकर तुम्हारे स्वमी, सबकी करते नित्य सेवा। जगत प्राणी दर्श करन हित, आस करें देवा। 7।
     हेली नाम विप्र ने मन से तुम्हारा गुण गाया। मिला षिल्प वरदान विप्र को, भक्ति फल पाया। 8।
     अमृत घट की रक्षा कीन्ही, सुर भय हीन भये। महा यज्ञ हेतु इन्द्र के घर, बन के गुरु गये। 9।
     पीत वसन कर सोहे. शिल्प अस्त्र धारी। वेद ज्ञान की बहे सरिता, सब विध सुखकारी। 10।
     हम अज्ञान भक्त तेरे तुम सच्चे हितकारी। करो कामना सब की पूर्ण, दर पर खडे भिकारी। 11।
     विश्वकर्मा सत्गुरु हमारे, कष्ट हरो तन का। विश्वप्रताप शरण सुख राशि दुख विनेश मन का। 12।
  

108 नाम- ऊँ विश्वकर्मणे नमः

ऊँ विश्वात्मने नमः

ऊँ विश्वस्माय नमः

ऊँ विश्वधाराय नमः

ऊँ विशवधर्माय नमः

ऊँ विरजे नमः

ऊँ विश्वेक्ष्वराय नमः

ऊँ विष्णुश्च सेवकाई नमः

ऊँ विश्वधराय नमः

ऊँ विश्वकराय नमः

ऊँ वास्तोष्पतये नमः

ऊँ विश्वभंराय नमः

ऊँ वर्मिणे नमः

ऊँ वरदाय नमः

ऊँ विश्वेशाधिपतये नमः

ऊँ वितलाय नमः

ऊँ विशभुंजाय नमः

ऊँ विश्वव्यापिने नमः

ऊँ देवाय नमः

ऊँ धार्मिणे नमः

ऊँ धीराय नमः

ऊँ धराय नमः

ऊँ परात्मने नमः

ऊँ पुरुषाय नमः

ऊँ धर्मात्मने नमः

ऊँ श्वेतांगाय नमः

ऊँ श्वेतवस्त्राय नमः

ऊँ हंसवाहनाय नमः

ऊँ त्रिगुणात्मने नमः

ऊँ सत्यात्मने नमः

ऊँ गुणवल्लभाय नमः

ऊँ भूकल्पाय नमः

ऊँ भूलेंकाय नमः

ऊँ भुवलेकाय नमः

ऊँ चतुर्भुजय नमः

ऊँ विश्वरुपाय नमः

ऊँ विश्वव्यापक नमः

ऊँ अनन्ताय नमः

ऊँ अन्ताय नमः

ऊँ आह्माने नमः

ऊँ अतलाय नमः

ऊँ आघ्रात्मने नमः

ऊँ अनन्तमुखाय नमः

ऊँ अनन्तभूजाय नमः

ऊँ अनन्तयक्षुय नमः

ऊँ अनन्तकल्पाय नमः

ऊँ अनन्तशक्तिभूते नमः

ऊँ अतिसूक्ष्माय नमः

ऊँ त्रिनेत्राय नमः

ऊँ कंबीघराय नमः

ऊँ ज्ञानमुद्राय नमः

ऊँ सूत्रात्मने नमः

ऊँ सूत्रधराय नमः

ऊँ महलोकाय नमः

ऊँ जनलोकाय नमः

ऊँ तषोलोकाय नमः

ऊँ सत्यकोकाय नमः

ऊँ सुतलाय नमः

ऊँ सलातलाय नमः

ऊँ महातलाय नमः

ऊँ रसातलाय नमः

ऊँ पातालाय नमः

ऊँ मनुषपिणे नमः

ऊँ त्वष्टे नमः

ऊँ देवज्ञाय नमः

ऊँ पूर्णप्रभाय नमः

ऊँ ह्रदयवासिने नमः

ऊँ दुष्टदमनाथ नमः

ऊँ देवधराय नमः

ऊँ स्थिर कराय नमः

ऊँ वासपात्रे नमः

ऊँ पूर्णानंदाय नमः

ऊँ सानन्दाय नमः

ऊँ सर्वेश्वरांय नमः

ऊँ विश्वकर्मा नमः

ऊँ तेजात्मने नमः

ऊँ शिल्पकर्मणे नमः

ऊँ कृतिपतये नमः

ऊँ बृहद् स्मणय नमः

ऊँ ब्रहमांडाय नमः

ऊँ भुवनपतये नमः

ऊँ त्रिभुवनाथ नमः

ऊँ सतातनाथ नमः

ऊँ सर्वादये नमः

ऊँ कर्षापाय नमः

ऊँ हर्षाय नमः

ऊँ सुखकत्रे नमः

ऊँ दुखहर्त्रे नमः

ऊँ निर्विकल्पाय नमः

ऊँ निर्विधाय नमः

ऊँ निस्माय नमः

ऊँ निराधाराय नमः

ऊँ निकाकाराय नमः

ऊँ महदुर्लभाय नमः

ऊँ निमोहाय नमः

ऊँ शांतिमुर्तय नमः

ऊँ शांतिदात्रे नमः

ऊँ मोक्षदात्रे नमः

ऊँ स्थवीराय नमः

ऊँ सूक्ष्माय नमः

ऊँ निर्मोहय नमः

ऊँ धराधराय नमः

ऊँ स्थूतिस्माय नमः

ऊँ विश्वरक्षकाय नमः

ऊँ दुर्लभाय नमः

ऊँ स्वर्गलोकाय नमः

ऊँ पंचवकत्राय नमः

ऊँ विश्वलल्लभाय नमः